नारी सशक्तिकरण को पीछे धकेलती संकीर्ण सोच

Edited By ,Updated: 03 Mar, 2022 05:21 AM

narrow thinking pushing women empowerment back

गत दिनों मलेशिया की महिला, परिवार तथा सामुदायिक विकास उपमंत्री सिति जैलाह मोहम्मद यूसुफ द्वारा दिया गया विवादास्पद बयान खासी चर्चा में रहा। महिला मंत्री ने पतियों को सलाह दी कि वे अपनी ‘जिद्दी’ पत्नियों को ‘अभद्र’ व्यवहार करने पर शालीनतापूर्वक...

गत दिनों मलेशिया की महिला, परिवार तथा सामुदायिक विकास उपमंत्री सिति जैलाह मोहम्मद यूसुफ द्वारा दिया गया विवादास्पद बयान खासी चर्चा में रहा। महिला मंत्री ने पतियों को सलाह दी कि वे अपनी ‘जिद्दी’ पत्नियों को ‘अभद्र’ व्यवहार करने पर शालीनतापूर्वक पीटें। अपने वीडियो संदेश में उन्होंने पुरुषों से कहा कि अपनी पत्नियों के साथ बातचीत करें, उन्हें अनुशासित करें। अगर उनकी पत्नी सलाह मानने से इंकार करती है तो 3 दिन तक उससे शयन दूरी बनाए रखें। यदि फिर भी उनका व्यवहार न बदले तो सख्ती दिखाएं और पत्नियों की पिटाई करें। पति का दिल जीतने की सलाह देते हुए उन्होंने महिलाओं से कहा कि पति की अनुमति मिलने पर ही उनसे कुछ कहें। 

एक महिला द्वारा अपने ही वर्ग के प्रति दोयम दर्जे की सोच रखना तथा पुरुषों को बेतुकी सलाह देकर हिंसा के लिए उकसाना, निश्चय ही भत्र्सना योग्य है। हालांकि आज की नारी प्रत्येक क्षेत्र में अपनी क्षमता का लोहा मनवा चुकी है, किंतु यह भी सर्वविदित है कि उसे वर्चस्व का यथार्थ मूल्यांकन होना अभी बाकी है। समानता व सशक्तिकरण के अधिकार हेतु वह आज भी समाज की पितृसत्तात्मक सोच से जूझ रही है। 

अक्सर पुरुष वर्ग पर महिलाओं को कमतर आंकने के आरोप लगते हैं। प्रताडि़त करना अथवा अधिकार जमाना पुरुषोचित्त अहं से जोड़ा जाता है, किंतु उन महिलाओं का क्या, जो स्वयं ही नारी प्रताडऩा की हिमायत करें? इसे आधुनिक समाज की विडंबना ही कहेंगे कि विकास के इस दौर में भी वैचारिक आधार पर अपेक्षित प्रगति संभव नहीं हो पाई। आज भी राष्ट्रीय-अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर कुछ लोग उस रूढि़वादी सामाजिक संरचना को कायम रखने के पक्षपाती हैं, जिसमें प्रत्येक निर्णय एवं अधिकार पर केवल पुरुष-वर्चस्व हो। बात-बेबात पति का समर्थन करना, हर कार्य में उसकी अनुमति व सहमति ग्रहण करना पत्नी-धर्म का पर्याय था, पत्नी-प्रताडऩा पुरुष का जन्मसिद्ध अधिकार और पीड़ा को सहर्ष अंगीकार करना नारी जीवन की नियति समझा जाता था। 

स्थिति और भी खेदपूर्ण हो जाती है, जब नारी उत्पीडऩ का कारण ऐसी नारी बने जो स्वयं महिला, परिवार व सामुदायिक विकास जैसे महत्वपूर्ण विभाग से जुड़ी हो। वास्तव में विचारों से ही व्यक्तित्व की पहचान होती है, इसका न तो वर्ग से कोई लेना-देना है और न ही पद से कोई संबंध। उच्च पदासीन हो जाने मात्र से ही व्यक्तित्व उच्च नहीं हो जाता, उदाहरण हमारे सम्मुख है। प्रतीत होता है कि माननीय महोदया भी उस पुरातनपंथी महिला वर्ग से ही ताल्लुक रखती हैं, जिन्होंने कुछ समय पूर्व पुरुषों द्वारा महिलाओं को पीटने के समर्थन में अपने हाथ ऊंचे किए थे। 

एनसाइक्लोपीडिया ब्रिटानिका में स्पष्ट रूप से उल्लेखित है कि 1800 के प्रारंभिक दशक में अधिकांश कानूनी प्रणालियों में पत्नी की पिटाई, पति-अधिकार के रूप में स्वीकृत थी। 16वीं शताब्दी के अंग्रेजी आम कानून ने पत्नी की पिटाई को ‘घरेलू हिंसा’ के अंतर्गत, महिला विरुद्ध अपराध के व्यक्तिगत रूप में न लेकर, शांति भंग प्रयास के आधार पर समुदाय के विरुद्ध अपराध माना। समाज सुधारकों की पहल एवं शैक्षिक जागृति से नारी के प्रति वैचारिक दृष्टिकोण में धीरे-धीरे विश्वस्तरीय सकारात्मक परिवर्तन आभासित होने लगा। संयुक्त राष्ट्र ने महिला-उत्पीडऩ को मानवाधिकार-उल्लंघन विषय मानते हुए 17 दिसंबर, 1999 को संयुक्त राष्ट्र महासभा में प्रस्ताव पारित किया, जिसमें जनजागृति लाने एवं वैश्विक स्तर पर नारी उत्पीडऩ पर रोक लगाने हेतु प्रतिवर्ष 25 नवंबर को ‘अंतर्राष्ट्रीय महिला हिंसा उन्मूलन दिवस’ के रूप में मनाने का निर्णय लिया गया। नारी को समानाधिकार प्रदान करने हेतु ही प्रत्येक 8 मार्च को ‘अंतर्राष्ट्रीय महिला दिवस’ के रूप में मनाने की परम्परा आरम्भ हुई। 

दरअसल, ‘घरेलू हिंसा’ एक वैश्विक मुद्दा है, लेकिन अक्सर इसे ‘व्यक्ति गत तथा पारिवारिक समस्या’ मान कर नजरअंदाज कर दिया जाता है। वर्ष 2018 में तुर्की में घरेलू ङ्क्षहसा के कारण 440 महिलाओं को अपनी जान गंवानी पड़ी। देश की इस विचारणीय समस्या के प्रति लोगों व सरकार का ध्यानाकॢषत करने हेतु, तुर्की कलाकार वाहित टूना ने इस्तांबुल में एक बिल्डिंग पर ‘ओपन एयर आर्ट इंस्टालेशन’ के रूप में मृत महिलाओं की संख्या के बराबर, काले रंग की 440 हील्स टांंग दीं। छ: मास तक चलने वाली यह अनोखी प्रदर्शनी, ‘यानकोस’ नामक गैर-लाभकारी आर्ट प्लेटफॉर्म द्वारा आयोजित की गई, जिसे 2017 में कॉफी चेन ‘कहवे दुनयासी’ ने आरंभ किया था। इसका मुख्य उद्देश्य घरेलू हिंसा के इर्द-गिर्द खींची गई चुप्पी तोडऩा था। वाहित के अनुसार ‘ब्लैक हील्स’ नारी शक्ति  को चिन्हित करते स्वतंत्रता तथा अधिकार के सूचक थे। 

वैश्विक स्तर पर ‘घरेलू हिंसा’ के  प्रतिरोध में स्वर बुलंद होना निश्चय ही एक सुखद संकेत है, किंतु इसका पूर्णत: निर्मूलन उस पारंपरिक सोच के परिवर्तित हुए बिना असंभव है, जिसके चलते आज भी बड़ी संख्या में महिलाएं पुरुष प्रताडऩा का शिकार बनती हैं। डब्ल्यू.एच.ओ की 2017 की रिपोर्ट के अनुसार, विश्व भर में 35 फीसदी महिलाएं अपने जीवनकाल में प्रेमी या जीवनसाथी द्वारा हिंसा की शिकार होती हैं। संपन्न व शिक्षित वर्ग भी इससे अछूता नहीं। विशेषकर, कोरोनाकाल के दौरान घरेलू हिंसा मामलों में चिंताजनक बढ़ौतरी दर्ज की गई। मारपीट आदि शारीरिक आक्रामकता या उपेक्षा, जबरन नियंत्रित करने जैसे दुव्र्यवहार न केवल संबंधों में कटुता लाते हैं, अपितु अनेकानेक शारीरिक-मानसिक व्याधियों को भी जन्म देते हैं। परिवार के बच्चों पर इसका मनोवैज्ञानिक दुष्प्रभाव पड़ता है। 

वैचारिक तथा संवेदनात्मक अभिव्यक्ति  की स्वतंत्रता व सम्मान ही स्वस्थ दांपत्य का आधार है। महिला होने के नाते मोहतरमा को ज्ञात होना चाहिए कि प्रेम प्रेमाभाव से ही पंगुरता है; दबाव, उपेक्षा अथवा सहमति, अनुमति और खुश रखने संबंधी विवशताओं से तो प्रतिकूलताएं ही पनपती हैं। प्रताडऩा में शालीनता की अपेक्षा रखना निरर्थक है। बहरहाल, उपमंत्री के वक्तव्य की जमकर आलोचना हो रही है, घरेलू हिंसा बढ़ाने के आरोप में उनके इस्तीफे की मांग भी की गई।-दीपिका अरोड़ा 
 

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