कोई दिलेरी भरा कदम नहीं उठाया गया इस बजट में

Edited By ,Updated: 04 Feb, 2017 11:44 PM

no action was taken in this budget is full mettle

बजट का दिन आया और गुजर गया। बुधवार से लेकर अब तक इस विषय


बजट का दिन आया और गुजर गया। बुधवार से लेकर अब तक इस विषय पर करोड़ों शब्द लिखे और बोले गए हैं। ज्यादातर लोग इस मौके पर कसे गए चतुराई भरे जुमलों या शे’रो- शायरी को याद नहीं रखेंगे। वैसे अब के बजट में तो किसी प्रकार की जुमलेबाजी नहीं की गई। केवल एक ही सवाल शेष रह जाएगा कि क्या इस बजट ने मूलभूत मुद्दों पर औसत नागरिक को कोई राहत प्रदान की है या बजट इन मुद्दों को संबोधित हुआ है? मैं सीधा इस समस्या के केन्द्र ङ्क्षबदू से शुरूआत करना चाहूंगा।

बहुत से लोग गरीब हैं। उनकी या तो कोई भी आय नहीं या नाममात्र की आय है। उनके और उनके बच्चों के पास कोई रोजगार नहीं। आवास, स्वास्थ्य, स्वास्थ्य सेवाओं तक पहुंच तथा शिक्षा के मामले में भी वे घोर गरीब हैं और हर जगह उन्हें भेदभाव तथा अनदेखी का शिकार होना पड़ता है। 

हर तरह की आंच उन्हीं पर आती है और हर अवसर से इंकार उन्हीं को होता है। मध्यवर्गीय परिवारों के अधिकतर बच्चे भी रोजगार ढूंढते हैं लेकिन उन्हें मिलता नहीं। बेरोजगारी और गरीबी का आजमाया हुआ नुस्खा तेज रफ्तार आर्थिक वृद्धि ही है। बेशक यह मुहावरा कुछ घिसा-पिटा-सा महसूस हो लेकिन है यह 100 प्रतिशत सच कि उठ रहा ज्वारभाटा सभी की नौकाओं को ऊंचा उठा देता है।

वित्त मंत्री के बजट भाषण का पृष्ठ 37, पैराग्राफ 184 पढऩे के बाद मेरे मन में यह प्रभाव पैदा हुआ कि भारत 2017-18 और यहां तक कि 2018-19 में भी उच्च आर्थिक वृद्धि के मार्ग पर नहीं लौट पाएगा।

निराशाजनक रिकार्ड
सरकार ने यह माना है कि प्राइवेट निवेश का बुरा हाल है। सरकार इस तथ्य से परेशान है कि 2015-16 में केवल 1.50 लाख रोजगारों का ही सृजन हो पाया है। इस प्रकार दोहरी चुनौती दर पेश है।

प्राइवेट निवेश सहित हर प्रकार के निवेश के मामले में सकल-अचल पूंजी सृजन (जी.एफ.सी.एफ.) को व्यापक स्तर पर पैमाने के रूप में प्रयुक्त किया जाता है। आर्थिक सर्वेक्षण के अनुसार गत 3 वित्त वर्षों के दौरान जी.एफ.सी.एफ. की वृद्धि इस प्रकार रही : 
2014-15: 4.9 प्रतिशत
2015-16: 3.9 प्रतिशत
2016-17: (-) 0.2 प्रतिशत
जहां तक रोजगार सृजन की बात है, राजग सरकार के अंतर्गत केवल 2015-16 में ही सबसे बेहतर कारगुजारी देखने को मिली जब 1 लाख 50 हजार लोगों को रोजगार मिला। यानी कि सरकार प्रति वर्ष 2 करोड़ रोजगार पैदा करने के वायदे के कहीं आसपास भी नहीं पहुंच पाई। 
प्रत्यक्ष कदम सरकार को क्या करना चाहिए था? मैं ऐसे कदमों की सूची प्रस्तुत कर रहा हूं जो प्रत्यक्ष तौर पर उठाए जाने चाहिए थे लेकिन ऐसा नहीं किया गया:

1. सकल मांग को बढ़ावा देना। सकल मांग बढ़ाने का आजमाया हुआ और बेहतरीन तरीका है अप्रत्यक्ष करों में कटौती करना। ये कर सभी गरीब, अमीर तथा मध्यवर्गीय उपभोक्ताओं द्वारा हर प्रकार की वस्तुओं और सेवाओं के लिए अदा किए जाते हैं। यदि अप्रत्यक्ष करों में कटौती की जाती है तो करोड़ों-करोड़ उपभोक्ताओं को तत्काल पैसे की बचत होती है। सेवा प्रदाता तथा वस्तुओं के उत्पादकों को  यह लाभ होता है कि उनकी बिक्री बढ़ जाती है। 

फलस्वरूप नई क्षमताएं और नए रोजगार पैदा होते हैं। मैंने गत सप्ताह (29 जनवरी, 2017) भी अपने स्तंभ में ‘सरकार को ये कदम उठाने चाहिएं’ के संबंध में यही परामर्श दिया था। मुझे तब बहुत निराशा हुई जब बजट में इस विकल्प को ठुकरा दिया गया और उस विकल्प को चुना गया जिसे मैंने ‘सरकार को ये कदम नहीं उठाने चाहिएं’ , में शामिल किया था। यानी कि सरकार ने प्रत्यक्ष करों में कटौती कर दी।

2. एम.एस.एम.ई. (सूक्ष्म, लघु और मझौले उद्यमों) की ओर सहायता का हाथ बढ़ाया जाए जोकि बहुत कम लागत पर उत्पादन करते हैं तथा रोजगार सृजन भी करते हैं। तैयार माल की मांग घटने से वे बुरी तरह से आहत हुए हैं। नोटबंदी ने लगभग 80 प्रतिशत एम.एस.एम.ई. को काम बंद करने पर मजबूर कर दिया है। अधिकतर एम.एस.एम.ई. कम्पनियां नहीं हैं, बल्कि स्वयं का स्वामित्व अथवा भागीदारियां हैं। 

देश में 5,97,000 से लेकर 6,94,000 कम्पनियां आयकर के रिटर्न दायर करती हैं और उनमें से केवल 2,85,000 ही लाभ अर्जित करती हैं। वित्त मंत्री के बजट भाषण के अनुसार इनमें से 96 प्रतिशत कम्पनियां एम.एस.एम.ई. की श्रेणी में शामिल किए जाने की पात्रता रखती हैं। इसलिए एम.एस.एम.ई. पर लगने वाले कार्पोरेट टैक्स को 30 प्रतिशत से घटाकर 25 प्रतिशत करने से केवल लगभग 2,70,000 कम्पनियां ही लाभान्वित होंगी। 

यदि कर योग्य आय ही मामूली-सी है तो लाभ भी मामूली-सा ही होगा और इतने कम लाभ से न तो बिक्री में बढ़ौतरी होगी और न ही नए रोजगारों का सृजन होगा। दूसरी ओर यदि एक्साइज ड्यूटी तथा सेवाकर में कटौती की गई होती तो इससे मांग में बढ़ौतरी होती जिसकी बदौलत काम बंद कर चुके कई एम.एस.एम.ई. फिर से चालू हो जाते। इस प्रकार सरकार ने एक बहुत ही शानदार अवसर भाड़ में गंवा दिया।

3. प्रोजैक्ट मोनिटरिंग ग्रुप (पी.एम.जी.) को ऊर्जावान बनाएं। प्रत्येक कारोबारी घराने और हर बड़े उद्यमी का कम से कम एक ऐसा प्रोजैक्ट है जो या तो चालू ही नहीं हो पाया या अधर में लटका हुआ है। यदि किसी कारोबारी व्यक्ति का एक प्रोजैक्ट रुका पड़ा है तो वह नया निवेश करने में रुचि नहीं लेगा। हमने काफी समय से पी.एम.जी. से कुछ देखा-सुना नहीं है।
अनचाही बाधाएं

4. सरकार यह स्वीकार करे कि नोटबंदी एक बहुत ही विघटनकारी कदम था। इससे सबसे बुरी तरह किसान, कृषि मजदूर, शारीरिक काम करने वाले, स्वरोजगारित लोग, कारीगर तथा एम.एस.एम.ई. प्रभावित हुए हैं। मजदूरी, आमदन, परिचालन हानियों तथा पूंजीगत हानियों के रूप में करोड़ों रुपए का नुक्सान हुआ। बजट में इन प्रभावित लोगों के लिए किसी न किसी रूप में भरपाई का प्रावधान होना चाहिए था। 

किसानों को ऊंचे न्यूनतम समर्थन मूल्यों के रूप में भरपाई की जानी चाहिए थी। अप्रत्यक्ष करों (अर्थात सीमित अवधि के लिए बिजली के बिल) में कटौती से सभी को तत्काल राहत मिलती। दूसरा विकल्प था सभी क्षेत्रों में न्यूनतम मजदूरी में वृद्धि करना। कितने खेद की बात है कि इनमें से किसी भी विकल्प को तलाशा नहीं गया।

5.अधिक ऋण दिया जाए। बैंकों के बढ़ते एन.पी.ए. की बदौलत न तो निवेशक ऋण लेने की रुचि दिखा रहे हैं और न ही बैंक ऋण दे पा रहे हैं। फलस्वरूप सभी उद्योगों द्वारा ऋण का उठान ऐतिहासिक न्यूनतम स्तर को छू गया है और अक्तूबर 2016 में तो यह आंकड़ा नकारात्मक हो गया था। सार्वजनिक क्षेत्र के बैंकों के एन.पी.ए. की स्थिति में जरा दृष्टिपात करें : 
तिथि         सकल एन.पी.ए. अनुपात
        (सकल ऋण उठान का प्रतिशत)
31.3.2014           4.5
31.3.2015          4.6
31.3.2016          7.8
31.12.2016    9.1
31.3.2014 के अनुसार जो ऋण खाते अच्छी कारगुजारी दिखा रहे थे वे बदतर हो रही आॢथक स्थिति के कारण राजग सरकार में फिसड्डी बन गए हैं। सरकार अब कितनी देर तक ऐसी बातों को ‘पूर्व सरकार की विरासत’ कहकर दरकिनार कर सकती है? समस्याओं को और भी बिगाड़ते हुए बजट में  सार्वजनिक क्षेत्रों के बैंकों का पुन: पूंजीकरण करने हेतु मात्र 10 हजार करोड़ रुपए का ही प्रबंध किया गया है यानी कि बैंकों को एक प्रकार से उनके भाग्य के सहारे छोड़ दिया गया है। जब तक सरकार हल तलाश नहीं करती, बैंकों और उद्योग के लिए नई तकलीफें पैदा होती रहेंगी जबकि ऋण वृद्धि में भी खास तेजी नहीं आ पाएगी।

2017-18 के बजट को इसलिए याद किया जाएगा कि इसमें कोई भी दिलेरी भरा कदम नहीं उठाया गया और इसने अर्थव्यवस्था को कोई भारी नुक्सान नहीं पहुंचाया। इस प्रकार भारत को टूटी उम्मीदों और अधूरी आकांक्षाओं के एक और वर्ष की दलदल में से गुजरना पड़ेगा।

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