राजनीति में मौके बार-बार नहीं मिलते

Edited By ,Updated: 27 Mar, 2016 02:19 AM

politics do not get repeated chances

आखिर महबूबा मुफ्ती की चालाकी पकड़ी ही गई। एक हद तक तो भाजपा उनके नखरे बर्दाश्त करती रही लेकिन जब उन्होंने गठबंधन जारी रखने के लिए असंभव शर्तें थोपनी शुरू कर दीं

(वीरेन्द्र कपूर): आखिर महबूबा मुफ्ती की चालाकी पकड़ी ही गई। एक हद तक तो भाजपा उनके नखरे बर्दाश्त करती रही लेकिन जब उन्होंने गठबंधन जारी रखने के लिए असंभव शर्तें थोपनी शुरू कर दीं तो भाजपा ने उन्हें टके सा जवाब देते हुए वार्तालाप आगे जारी रखने से इन्कार कर दिया। और ऐन उसी क्षण महबूबा को महसूस हो गया कि ‘नौ नकद न तेरह उधार’। यानी कि जो चीज वर्तमान में पास है, उसे भविष्य की अनिश्चित अटकलों की भेंट क्यों चढ़ाया जाए। यदि केन्द्र में सत्तासीन पार्टी के साथ वह अपना सम्बन्ध विच्छेद करतीं तो प्रदेश में नए सिरे से चुनाव होना अटल था।

 
इस चुनाव में न तो पी.डी.पी. और न ही भाजपा को अपनी सीट संख्या बहाल रहने की उम्मीद थी, इसमें सुधार करने की तो बात ही दूर। जिस प्रकार की कारगुजारी इस चुनाव में कश्मीर घाटी में पी.डी.पी. की होनी थी, जम्मू क्षेत्र में भाजपा की कारगुजारी उससे कुछ बेहतर ही रहनी थी। क्योंकि कश्मीर घाटी के मतदाता पी.डी.पी. के राष्ट्रवादी पार्टी के साथ हाथ मिलाने के फैसले से काफी नाराज हैं। 
 
महबूबा अब वहीं से अपना कार्य शुरू करने की पूरी तैयारी में हैं, जहां जनवरी के प्रारंभ में उनके पिता मुफ्ती मोहम्मद सईद अपनी मृत्यु के समय छोड़कर गए थे। यह तो वही बता सकती हैं कि लगभग 3 माह तक उन्होंने जिस प्रकार का राजनीतिक कौशल दिखाया है, उससे उन्हें कोई लाभ हुआ है या नहीं। भाजपा ने मुफ्ती के साथ जो भी वायदे किए थे, महबूबा को उससे कुछ भी अधिक पेश नहीं किया। इसे मात्र संयोग ही कहा जा सकता है कि जैसे ही राजनीतिक हलकों में इस अफवाह ने चक्र काटने शुरू किए हैं कि भाजपा जम्मू-कश्मीर में एक प्रमुख पी.डी.पी. नेता के सक्रिय सहयोग से शीघ्र ही एक नए गठबंधन को सत्तासीन करेगी, महबूबा ने अक्ल का दामन थामने में ही भलाई समझी। 
 
स्पष्ट है कि पी.डी.पी. के एक वरिष्ठ नेता को मुख्यमंत्री पद का वायदा करके सांठने की योजना थी और इस नेता ने  इस उपकार के एवज में पी.डी.पी. के काफी सारे विधायकों का समर्थन जुटाना था। इसके साथ-साथ भाजपा ने अब्दुल्ला परिवार के साथ नई सौदेबाजी करने के भी दरवाजे खोल दिए। इस प्रकार की लेशमात्र संभावना होने पर भी महबूबा ने स्वयं मुख्यमंत्री बनने का मौका हथियाने की पहल की। राजनीति में मौके बार-बार नहीं मिलते। जब आप बहुत महत्वपूर्ण अवसर गंवा देते हैं तो फिर शेष जीवन आपको राजनीतिक वीरानी में भटकना पड़ता है। 
 
1977 में आपातकाल के बाद जनता पार्टी ने बंगाल में माकपा को आधी हिस्सेदारी की पेशकश की थी लेकिन माकपा दो-तिहाई सीटों पर अड़ी रही। पुराने जमाने की कांग्रेस (ओ) ही वास्तव में पश्चिम बंगाल में नई जनता पार्टी के रूप में पुनर्जीवित हुई थी लेकिन 1977 के चुनाव में उस प्रदेश में इसका पूरी तरह सफाया हो गया। दो-तिहाई सीटों के साथ माकपा नीत वाम मोर्चे ने लगभग सभी विरोधियों को बुरी तरह चित्त कर दिया था। जनता पार्टी पश्चिम बंगाल में इस सदमे से कभी भी उबर नहीं पाई। 
 
इसके बाद 1996 में भी इसी प्रकार की स्थिति पैदा हुई जब सिद्धांतवादी माक्र्सवादी नेता प्रकाश कारत ने ज्योति बसु को प्रधानमंत्री बनने की अनुमति नहीं दी। इस ‘ऐतिहासिक गलती’ से ज्योति बसु को तो नुक्सान होना ही था, माकपा भी इससे कभी उबर नहीं पाई। उस गलती के दिन से ही माक्र्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी लगातार पतन की ओर जा रही है। इसकी स्थिति इतनी दयनीय हो गई कि व्यवहारवादी सीताराम येचुरी के नेतृत्व में पश्चिम बंगाल में आगामी चुनाव के लिए यह उसी छुटभैया पूंजीवाद (क्रोनी कैपिटलिज्म) के ध्वजवाहकों के साथ गलबहियां ले रही है, जिनका विरोध करना ही इसके अस्तित्व का एकमात्र आधार था। 
 
सत्ता जब ऐन आपके हाथ में आने वाली हो, उस समय इससे इन्कार करना निश्चय ही बहुत महंगा पड़ता है। यहां तक कि दिल्ली में 49 दिन की सरकार चलाने के बाद इस्तीफा देने की हेकड़ी दिखाने वाले अरविन्द केजरीवाल को दूसरी बार हुए चुनाव में मतदाताओं के आगे गिड़गिड़ाना पड़ा।
 
लेकिन महबूबा जम्मू-कश्मीर में वैसा जलवा नहीं दिखा सकतीं, जैसा कि केजरीवाल ने दिल्ली में दिखाया था क्योंकि जम्मू-कश्मीर के मतदाताओं का अब भरोसा वह काफी हद तक खो चुकी हैं। राजनीतिक बदशगुनी से भरी संभावनाओं के मद्देनजर वह भाजपा से सम्बन्ध विच्छेद करने और मुख्यमंत्री बनने का मौका सदा के लिए गंवाने का जोखिम गवारा नहीं कर सकतीं। 
 
फिर भी यह उम्मीद की जानी चाहिए कि केन्द्र सरकार इस राज्य के प्रति कुछ अधिक उदारता दिखाएगी। लेकिन कुछ भी हो, केन्द्र सरकार न तो रक्षा बल विशेषाधिकार (अफस्पा) को पूरी तरह वापस लेने को तैयार होगी और न ही राज्य में चल रही सभी की सभी केन्द्रीय परियोजनाओं को प्रदेश सरकार के हवाले करेगी। यदि खुद को ‘सैकुलर व उदारवादी’ होने की शाबाशी देने वाली यू.पी.ए. सरकार ने ये मांगें नहीं मानी थीं तो यह सवाल ही पैदा नहीं होता कि कड़ी सुरक्षा नीति की पक्षधर और राष्ट्रवादी सरकार ऐसा कदम उठाएगी। 
 
क्षेत्रीय राजनीतिज्ञों की अपनी मजबूरियां होती हैं, खास तौर पर जम्मू-कश्मीर जैसे राज्य में। लेकिन केन्द्र सरकार सुरक्षा से संबंधित संवेदनशील मुद्दों पर कोई समझौता नहीं कर सकती।  दूसरी ओर यह भी उम्मीद है कि लम्बे समय तक अस्थिरता और बेचैनी के शिकार रहे प्रदेश में शायद वह स्थिरता और अमन-कानून की सरकार का आभास पैदा कर सके। 
 
जम्मू-कश्मीर की समस्या नि:संदेह बहुत जटिल है। लेकिन मूल रूप में इसको दो भागों में बांटा जा सकता है-एक है राजनीतिक, जिसे सक्रिय केन्द्रीय समर्थन के बूते श्रीनगर में सत्तासीन गठबंधन सरकार हैंडल कर सकती है। दूसरा कठिन भाग सुरक्षा स्थिति से संबंधित है। सीमा पार से लगातार शरारतें जारी हैं और सीमा के इस पार भी दुश्मनों से हाथ मिलाने वाले घर के भेदियों की अच्छी-खासी संख्या है। यही वह वर्ग है, जिसके साथ कड़ाई से निपटा जाना चाहिए और इसी काम के लिए सुरक्षा बलों को उससे कहीं अधिक अधिकार प्रदान किए जाने चाहिएं जितने कि श्रीनगर के राजनीतिज्ञ देना चाहते हैं। एक बार इस समस्या का निपटारा हो जाए तो पी.डी.पी. भाजपा गठबंधन की नैय्या बहुत मजे से अठखेलियां लेगी।
 
नया भगत सिंह और नया गांधी?
यदि कन्हैया कुमार नए ‘भगत सिंह’ हो सकते हैं तो शशि थरूर को नया ‘गांधी’ कहना होगा। ये दोनों तो निश्चय ही ‘एक-दूजे के लिए’ बने होने का आभास देते हैं। जहां इस ‘नए भगत सिंह’ को महिलाओं से छेडख़ानी के मामले में 3000 रुपए जुर्माना अदा करना पड़ा था, वहीं ‘नए गांधी’ भी ‘महिलाओं के साथ प्रयोग’ के मामले में कोई पीछे नहीं हैं। 
 
अतीत में उनके ‘प्रयोग’ का शिकार हुई औरतें तो बिना कोई सबूत छोड़े गायब हो गईं।  लेकिन ‘भारत माता की जय’ को धार्मिक नारा बताने वाले थरूर के ‘प्रयोग’ अभी भी जारी हैं। यह कहना कि मुस्लिमों और ईसाइयों को ‘भारत माता की जय’ बोलने पर ऐतराज है, क्योंकि उनके पवित्रतम तीर्थ स्थल भारत से बाहर हैं, सीधे-सीधे सैकुलरवाद की चर्चा में मजहब को घुसेडऩे के तुल्य है। ऊपर से थरूर महोदय भाजपा को साम्प्रदायिक कहने की हिमाकत कर रहे हैं। उनके लिए बेहतर होगा कि मजहब और देशभक्ति को गडमड न करें।   

Trending Topics

IPL
Chennai Super Kings

176/4

18.4

Royal Challengers Bangalore

173/6

20.0

Chennai Super Kings win by 6 wickets

RR 9.57
img title
img title

Be on the top of everything happening around the world.

Try Premium Service.

Subscribe Now!