देश हित में नहीं सरकार और न्यायपालिका का सार्वजनिक विवाद

Edited By ,Updated: 26 Jan, 2023 04:59 AM

public dispute between govt and the judiciary is not in the interest of country

जजों की नियुक्ति को लेकर न्यायपालिका और कार्यपालिका के बीच बढ़ता गतिरोध गंभीर चिंता का विषय है। ऐसा प्रतीत होता है कि केंद्रीय कानून मंत्री किरण रिजिजू के प्रतिनिधित्व वाली सरकार जजों की नियुक्ति के लिए सुप्रीमकोर्ट की शक्तियों को कम करने पर तुली...

जजों की नियुक्ति को लेकर न्यायपालिका और कार्यपालिका के बीच बढ़ता गतिरोध गंभीर चिंता का विषय है। ऐसा प्रतीत होता है कि केंद्रीय कानून मंत्री किरण रिजिजू के प्रतिनिधित्व वाली सरकार जजों की नियुक्ति के लिए सुप्रीमकोर्ट की शक्तियों को कम करने पर तुली हुई है। सरकार और न्यायपालिका के बीच सार्वजनिक विवाद देश के दो सबसे महत्वपूर्ण संस्थानों में जनता के विश्वास को खत्म कर रहा है। 

यह कोई रहस्य नहीं है कि भाजपा के नेतृत्व वाली केंद्र सरकार संवैधानिक पदों पर नियुक्तियों और यहां तक कि प्रमुख नियुक्तियों सहित विभिन्न संस्थानों को नियंत्रित करने की एक मुहिम चला रही है। वाद-विवाद और विधायी मामलों की चर्चाओं के लिए संसद ने स्वयं अपनी भूमिका खो दी है। मीडिया के एक बड़े वर्ग ने भी धमकियों के आगे घुटने टेके हैं। 

सर्वोच्च न्यायालय और उच्च न्यायालय के न्यायाधीशों को नियुक्त करने की उसकी शक्तियों पर ठोस हमले ने इस आशंका को जन्म दिया है कि सरकार एक विशेष विचारधारा से जुड़े लोगों की नियुक्तियों पर जोर देने का प्रयास कर रही है। यह वास्तव में एक दुखद दिन होगा यदि सरकार अपने तरीके से चलने में सक्षम होती है। असल में सरकार सुप्रीमकोर्ट द्वारा अनुशंसित नियुक्तियों में पहले से ही देरी कर रही है। कुछ मामलों में अत्यधिक देरी के परिणामस्वरूप न्यायाधीशों की नियुक्ति के लिए सिफारिश सेवानिवृत्ति की आयु प्राप्त करने या नियुक्ति के लिए अयोग्य हो जाने के कारण हुई है। 

सरकार स्पष्ट रूप से नियुक्तियों को रोकने की अपनी शक्ति से संतुष्ट नहीं है और तथ्य यह है कि यह शक्ति भारत के मुख्य न्यायाधीश और आम जनता की आलोचना के अधीन आ रही थी जिसके कारण नियुक्तियों में अधिक कहने की मांग की जा रही थी। केंद्रीय कानून मंत्री ने यहां तक सिफारिश की है कि जजों की नियुक्ति के लिए सरकार द्वारा नामित व्यक्ति को चयन समिति का सदस्य बनाया जाना चाहिए। मुख्य न्यायाधीश द्वारा इस विचार को खारिज कर दिया गया है और लगभग सभी न्यायविदों और विशेषकों ने इसकी कड़ी आलोचना की है। 

न्यायपालिका द्वारा नवीनतम धक्का-मुक्की में उसने 3 नियुक्तियों पर सरकार द्वारा की गई आपत्तियों को सार्वजनिक कर दिया है। इनमें खुले तौर पर घोषित समलैंगिक जज की नियुक्ति पर सरकार की आपत्ति भी शामिल थी। इस कदम ने सरकार द्वारा नियुक्तियों को ठप्प करने के साथ न्यायपालिका के धैर्य को कम करने को दर्शाया। हालांकि यह चयनात्मक था और ऐसे सभी मामलों में सरकार द्वारा सार्वजनिक आपत्तियां दर्ज करने से परहेज किया जाता था जो लम्बे समय से निर्णय लेने के लिए लंबित है। 

हां, यह अवश्य कहा जाना चाहिए कि स्वयं उच्च न्यायपालिका और विशेष रूप से न्यायाधीशों का चयन करने वाली और नियुक्तियों के लिए नामों की सिफारिश करने वाली कॉलेजियम को भी कुछ न्यायाधीशों के दावों को खारिज करने के कारणों को रिकार्ड करना चाहिए और समाज की विभिन्न श्रेणियों को प्रतिनिधित्व देने में निष्पक्ष होना चाहिए। कानून और न्याय पर संसदीय स्थायी समिति के साथ सांझा की गई आधिकारिक जानकारी के अनुसार पिछले 5 वर्षों के दौरान नियुक्त किए गए उच्च न्यायालय के नए न्यायाधीशों में से 79 प्रतिशत उच्च जातियों के थे जबकि अनुसूचित जातियों और अल्पसंख्यकों का प्रतिनिधित्व मात्र 2 प्रतिशत था। 

मंत्रालय कुछ न्यायाधीशों की सामाजिक पृष्ठभूमि का पता लगाने में सक्षम नहीं था। इसी प्रकार न्यायपालिका के विभिन्न स्तरों पर महिलाओं का प्रतिनिधित्व अपर्याप्त है। उच्च न्यायपालिका में नियुक्ति में किसी प्रकार के आरक्षण के लिए मेरा मामला नहीं है लेकिन यह इंगित करना है कि सभी वर्गों को पर्याप्त प्रतिनिधित्व देने की आवश्यकता है। विवाद का एक अन्य बिंदू जैसा कि एक सेवानिवृत्त उच्च न्यायालय के न्यायाधीश न्यायमूर्ति आर.एस. सोढी ने भी बताया, यह है कि सुप्रीमकोर्ट मनमाने ढंग से विभिन्न उच्च न्यायालयों के कॉलेजियम द्वारा भेजी गई सिफारिशों को खारिज कर देता है। यह तर्क दिया जाता है कि उच्च न्यायालय के कॉलेजियम द्वारा भी सिफारिशें उचित विचार-विमर्श के बाद की गई थीं और फिर भी बड़ी संख्या में ऐसी सिफारिशों को बिना कोई स्पष्टीकरण दिए खारिज कर दिया गया था। 

इस प्रकार स्पष्ट रूप से कॉलेजियम प्रणाली के साथ सब कुछ ठीक नहीं है लेकिन सभी नियुक्तियों में सीधे तौर पर शामिल होने वाली सरकार की तुलना में यह अभी भी बेहतर है। इससे लचीले न्यायाधीशों की नियुक्ति की एक बहुत गंभीर प्रवृत्ति हो सकती है जो सरकार के प्रति कृतज्ञ महसूस करेंगे। नि:संदेह यह एक पेचीदा स्थिति है और शीर्ष न्यायपालिका को आगे का रास्ता खोजना होगा। शायद भारत के पूर्व न्यायाधीशों और शीर्ष कानूनी विशेषज्ञों की एक समिति एक सम्मानजनक समाधान के साथ सामने आ सकती है। 

एक विकल्प यह हो सकता है कि नए न्यायाधीशों के चयन के लिए एक पैनल में सेवानिवृत्त मुख्य न्यायाधीशों को शामिल किया जाए। वैकल्पिक रूप से भारत के मुख्य न्यायाधीश, कानून मंत्री और विपक्ष के नेता की एक समिति कॉलेजियम  की सिफारिशों पर अंतिम विचार कर सकती है और किसी विशेष सिफारिश के संबंध में आपत्तियों पर भी चर्चा कर सकती है। एक और संभावित रास्ता वह है जिसे वाजपेयी सरकार ने प्रस्तावित किया था लेकिन जो 2004 के चुनावों में अपनी हार के बाद ठप्प हो गया। उनकी सरकार एक विधेयक लाने के कगार पर थी जिसके तहत न्यायाधीशों की नियुक्ति के लिए एक पैनल का गठन किया जाना था। 

सर्वोच्च न्यायालय के 3 वरिष्ठतम न्यायाधीशों, सरकार के एक प्रतिनिधि और विपक्ष के नेता को शामिल करना था। न्यायपालिका की स्वतंत्रता पर समझौता किए बिना विवाद में न्यायधीशों के लिए न्याय सुनिश्चित करने के लिए कानूनी दिग्गजों को एक प्रणाली के साथ आने दें। जनता में मतभेदों को हवा देने की बजाय आपसी विचार-विमर्श से ही गतिरोध का समाधान संभव है।-विपिन पब्बी     
    

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