अजन्मे बच्चे के अधिकार और भारतीय संस्कार

Edited By ,Updated: 25 Mar, 2023 04:34 AM

rights of the unborn child and indian culture

शिशु के गर्भ में रहने अर्थात् उसके जन्म लेने तक उसके अधिकार हैं, यह हमारे देशवासियों के लिए कुछ अटपटा हो सकता है लेकिन असामान्य या बेतुका कतई नहीं है।

शिशु के गर्भ में रहने अर्थात् उसके जन्म लेने तक उसके अधिकार हैं, यह हमारे देशवासियों के लिए कुछ अटपटा हो सकता है लेकिन असामान्य या बेतुका कतई नहीं है। बहुत से देशों में इसके लिए कानून भी हैं। इसके साथ ही उन्हें तरोताजा बनाए रखने के लिए प्रतिवर्ष 25 मार्च को अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर गर्भ में पल रहे शिशु के लिए विशेष दिवस मनाए जाने की परंपरा है।
देखा जाए तो यह केवल अजन्मे बच्चे के अधिकारों की बात नहीं है बल्कि उस मां के अधिकारों का रक्षण है जो उसे 9 महीने तक अपने गर्भ में रखकर उसका पालन-पोषण करती है। 

अजन्मे शिशु के अधिकार : गर्भस्थ शिशु जैसे जैसे अपना आकार प्राप्त करता जाता है, वैसे-वैसे उसकी जरूरतें भी बढ़ती जाती हैं। उसके लिए जरूरी है कि उसकी माता बनने के लिए महिला को अपना खानपान और रहन सहन बदलना है। इसकी जिम्मेदारी पिता बनने जा रहे पुरुष पर भी आती है कि वह वे सब साधन जुटाए और सभी प्रकार की एहतियात बरते जिससे कि अजन्मे शिशु को कोई कष्ट न हो। इस प्रक्रिया में सही समय पर डाक्टरी जांच और टीकाकरण तथा दवाइयों का सेवन आता है। यह बात केवल महिला ही जानती है कि उसके गर्भ में जो जीव पल रहा है, उसकी जरूरतें क्या हैं और उन्हें पूरा कैसे करना है?

अब हम इस बात पर आते हैं कि हमारे देश में कानून तो बहुत हैं लेकिन उनसे अधिक पारिवारिक संस्कारों, सामाजिक परंपराओं और न जाने कब से चली आ रही कुरीतियों को मान्यता देने का रिवाज अधिक है। इस प्रक्रिया में कानून या तो कहीं मुंह छिपाकर बैठ जाता है और अपनी पीठ के पीछे हो रही घटनाओं को अनदेखा करने को ही अपनी जिम्मेदारी निभाना समझ लेता है या फिर अपना डर दिखाकर धौंस जमाते हुए दंड देने लगता है। कानून की नजर में जो अपराधी है, चाहे परिवार और समाज के नजरिए से सही माना जाए, सजा तो पाता ही है। 

इस बात की गंभीरता को समझने के लिए कुछ उदाहरण देने आवश्यक हैं। हम चाहे अपने को कितना ही पढ़ा-लिखा और आधुनिक कहें लेकिन जब यह बात आती है कि कन्या की जगह पुत्र ही होना चाहिए तो यह हमारे लिए बहुत सामान्य-सी इच्छा है। अजन्मे बच्चे के अधिकारों का शोषण यहीं से शुरू हो जाता है। यह पता चलते ही कि गर्भ में कन्या है तो गांव देहात का परिवार हो या शहर कस्बे का, मन में उदासी छा जाती है। इस स्थिति में गर्भावस्था में सही देखभाल करने के स्थान पर भ्रूण हत्या करवाने के बारे में सोचा जाने लगता है। अब यह कानून सम्मत तो है नहीं इसलिए चोरी-छिपे गर्भपात कराने का इंतजाम कर लिया जाता है। 

अजन्मे बच्चे का पारिवारिक संपत्ति में जन्मसिद्ध कानूनी अधिकार है इसलिए भी भ्रूण हत्या होती है और यह परिवार की परंपरा है कि केवल लड़कों को ही उत्तराधिकारी माना जाएगा, इसलिए अगर गर्भ में  कन्या है तो उसे जन्म ही क्यों लेने दिया जाए, यह मानसिकता हमारे संस्कार हमें देते हैं। जहां अल्ट्रासाऊंड जैसी तकनीक से यह जाना जा सकता है कि गर्भस्थ जीव में कोई विकृति तो नहीं और यदि है तो गर्भपात का सहारा लेना ठीक भी है और कानून के मुताबिक भी तो फिर इसकी बजाय इस बात को क्यों प्राथमिकता दी जाती है कि कन्या अगर गर्भ में है तो उसे इस प्रावधान का सहारा लेते हुए उसे जन्म न लेने दिया जाए। 

अजन्मे शिशु का एक अधिकार यह भी है कि उसका सही ढंग से विकास होने के लिए गर्भावस्था के दौरान और प्रसव से पूर्व तक वे सब उपचार और सुविधाएं मिलें जो उसे इस संसार में स्वस्थ रूप में आने का रास्ता प्रशस्त कर सकें। इस कड़ी में माता का निरंतर मैडीकल चैकअप, निर्धारित समय पर टीकाकरण और पौष्टिक भोजन और जन्म लेने से पहले एक सुरक्षित वातावरण जिससे न केवल मां उसे जन्म देने के लिए तैयार हो बल्कि शिशु भी हृष्ट-पुष्ट अवस्था में जन्म ले। 

जनसंख्या नियंत्रण : यह परिस्थिति एक और वास्तविकता को भी उजागर करती है और वह यह कि अजन्मे बच्चे के अधिकारों की सुरक्षा के लिए आबादी का बिना किसी हिसाब-किताब के बढ़ते जाना घातक है। इसके लिए जनसंख्या नियंत्रण कानून की जरूरत है और उस पर स्वेच्छा अर्थात् अपनी मर्जी और सहमति से अमल करना आवश्यक है। 

हमारे आर्थिक संसाधन तब ही तक उपयोगी हैं जब तक उन पर बढ़ती आबादी का जरूरत से ज्यादा दबाव नहीं पड़ता। गरीब के यहां ही अधिक संतान जन्म लेती है और पालन-पोषण की सुविधाएं न होने से उसके कुपोषित, अशिक्षित और समाज के लिए अनुपयोगी बने रहने का खतरा सबसे ज्यादा इसी तबके में होता है। यह भी अजन्मे बच्चे के अधिकारों का हनन है क्योंकि जब संतान के पालन-पोषण की व्यवस्था नहीं तो माता-पिता बनने का भी अधिकार नहीं। 

जब हम अपने गली-मोहल्लों, चौराहों और सड़कों पर भीड़ देखते हैं तो यह अनुमान लगाना कठिन नहीं है कि इसमें अधिकतर लोगों के पास कोई काम-धंधा, नौकरी या रोजगार नहीं है और ये सब उसी की तलाश में भटक रहे हैं या कहें कि दर-दर की ठोकरें खा रहे हैं। ये लोग एेसा नहीं है कि पढ़े-लिखे नहीं हैं या मेहनत नहीं करना चाहते। परंतु जब स्थिति एक अनार और सौ बीमार वाली हो तो फिर उसे क्या कहा जाएगा?

यह विषय गंभीर है और इस बात की तरफ इशारा करता है कि संतान को लेकर एक एेसे नजरिए से सोचा जाए जिसमें सांस्कृतिक और पारंपरिक मान्यताओं को तो स्थान मिले लेकिन कुरीतियों का पालन न हो, लिंगभेद के कारण भेदभाव न हो और सभी संसाधनों पर सब का बराबरी का अधिकार हो। इससे गरीब और अमीर के बीच की खाई भी कम करने में मदद मिलेगी, परिवार एक कड़ी के रूप में बढ़ेगा और समाज समान रूप से विकसित हो सकेगा।-पूरन चंद सरीन    
    

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