देश में तर्क से ज्यादा मजबूत है अंधविश्वास

Edited By Updated: 01 Dec, 2025 05:28 AM

superstition is stronger than logic in this country

ऐसे देश में जहां लोग शनिवार को अपने नाखून नहीं काटते या तीन ज्योतिषियों और पड़ोस की आंटी से पूछे बिना प्रॉपर्टी नहीं खरीदते, यह मानना बिल्कुल नादानी होगी कि भारतीय नेता, क्रिकेटर और फिल्म स्टार सिर्फ लॉजिक से चलते हैं। पावर पॉलिसी से, टैलेंट...

ऐसे देश में जहां लोग शनिवार को अपने नाखून नहीं काटते या तीन ज्योतिषियों और पड़ोस की आंटी से पूछे बिना प्रॉपर्टी नहीं खरीदते, यह मानना बिल्कुल नादानी होगी कि भारतीय नेता, क्रिकेटर और फिल्म स्टार सिर्फ लॉजिक से चलते हैं। पावर पॉलिसी से, टैलेंट ट्रेनिंग से और फेम कड़ी मेहनत से मिल सकती है लेकिन पर्दे के पीछे कहीं,अभी भी एक छोटा नारियल तोड़ा जा रहा है, दरवाजे पर एक नींबू रखा जा रहा है और बस किसी भी स्थिति के लिए प्रार्थना फुसफुसाई जा रही है। चलिए राजनीति से शुरू करते हैं। गंभीर चेहरों, लंबे भाषणों और अजीब समय पर लिए गए फैसलों की दुनिया देखिए। यह कोई सीक्रेट नहीं है कि नरेंद्र मोदी, एक मजबूत और निर्णय लेने वाले नेता के तौर पर देखे जाने के बावजूद, आध्यात्मिक प्रक्रिया में गहराई से जुड़े हुए हैं।  बड़े राजनीतिक मौकों से पहले केदारनाथ, काशी विश्वनाथ और दूसरी पवित्र जगहों पर उनके दौरे दूर-दूर तक जाने जाते हैं। जहां समर्थक आस्था देखते हैं, वहीं आलोचक रणनीति देखते हैं लेकिन किसी भी तरह से, देश ने देखा है कि उनके करियर के अहम दौर अक्सर भगवान को चुपचाप प्रणाम करने से शुरू होते हैं।

इसी तरह, भारत में लंबे समय से सुना जा रहा है कि अलग-अलग पार्टियों के नेता चुनाव से पहले चुपचाप ज्योतिषियों से सलाह लेते हैं। इंदिरा गांधी जैसी पुरानी नेता खुले तौर पर आध्यात्मिक सलाह लेती थीं और यह सब जानते हैं कि ज्योतिषियों ने कभी कांग्रेस की राजनीतिक प्लानिंग में भूमिका निभाई थी। कहा जाता है कि दिल्ली में ऑफिस को वास्तु शास्त्र के हिसाब से एक से ज्यादा बार रीडिजाइन किया गया है। दीवारें बदली गई हैं, शीशे लगाए गए हैं, फव्वारे लगाए गए हैं। यह सब यह पक्का करने के लिए किया गया है कि राजनीतिक एनर्जी उत्तर-पूर्व की ओर बहे और मुसीबत में न पड़े। नेता हर इंटरव्यू में इससे इंकार करेंगे लेकिन फिर भी पार्लियामैंट कॉम्प्लैक्स में धीरे-धीरे और सावधानी से कदम रखते हुए जाएंगे जैसे कि फर्श खुद ही बुरी किस्मत के प्रति सैंसिटिव हो। अगर राजनीति ड्रामा है  तो क्रिकेट भाव है। और अगर कोई ऐसा मैदान है जहां अंधविश्वास सच में स्टेडियम की लाइट से ज्यादा चमकता है तो वह क्रिकेट पिच है। सचिन तेंदुलकर अपना बायां पैड पहले पहनने के लिए मशहूर थे। भगवान या इत्तेफाक, किसी ने भी ऑर्डर बदलने की हिम्मत नहीं की। धोनी जो बाहर से बर्फ  की तरह ठंडे हैं, मिलिट्री डिसिप्लिन के साथ रूटीन पर टिके रहने के लिए भी जाने जाते हैं। एक समय में उनके लंबे बाल सिर्फ  एक स्टाइल नहीं थे। फैंस का मानना था कि यह टीम इंडिया के लिए किसी लक्की चार्म से कम नहीं है।

फिर विराट कोहली हैं, जिन्हें बड़े टूर्नामैंट से पहले मंदिरों में जाते, पवित्र धागे बांधते और यह पक्का करते देखा गया है कि कुछ आध्यात्मिक आदतें उनकी जिंदगी का हिस्सा बनी रहें। और कौन भूल सकता है कि कैसे पूरा देश अचानक अच्छी वाइब्स में विश्वास करने लगा जब अनुष्का शर्मा को टैंशन वाले मैचों के दौरान स्टैंड्स में मैडिटेशन करते देखा गया। अगर इंडिया जीता तो लोग मजाक में कहते थे कि ऐसा इसलिए हुआ क्योंकि बॉलर तक ‘पॉजिटिव योग एनर्जी’ पहुंच गई थी। सबसे निडर बॉलर और हिटर के दिमाग में भी अनदेखी लिस्ट होती है। वही मोजे, वही ग्लव्स, वही वार्म अप प्लेलिस्ट, पिच तक जाने का वही रास्ता तय होता है। रास्ता बदलो और अचानक विकेट गिर जाता है। साइंस भले ही हंसे लेकिन क्रिकेट फैंस इस पर आपसे लड़ेंगे। और अब हम बॉलीवुड पर आते हैं। एक ऐसी दुनिया जो डायरैक्टर नहीं बल्कि स्टार चलाते हैं। स्क्रीन पर भी और आसमान में भी। अजय देवगन लंबे समय से नंबर 9 से जुड़े रहे हैं, उन्होंने अपनी कई फिल्में इसी तारीख को रिलीज की हैं क्योंकि न्यूमरोलॉजी इसे पसंद करती है। एकता कपूर ने अपने शो ‘क्योंकि सास भी कभी बहू थी’ के टाइटल में एक्स्ट्रा अक्षर इसलिए जोड़े क्योंकि उनके न्यूमरोलॉजिस्ट ने सलाह दी थी कि ऐसा सफलता के लिए एक बूस्टर शॉट है। और उस फार्मूले से कौन बहस कर सकता है जिसने सालों तक इंडियन टैलीविजन पर राज किया।

शाहरुख खान अपनी गहरी आस्था के लिए जाने जाते हैं और अक्सर बड़ी रिलीज से पहले धार्मिक जगहों पर जाते हैं। सलमान खान, जिनके करियर ने बहुत उतार-चढ़ाव देखे हैं, वे भी प्रोटैक्टिव चार्म रखने के लिए जाने जाते हैं। डिसिप्लिन और इटैंलिजैंस के सिंबल अमिताभ बच्चन के बारे में कहा जाता है कि वे रैगुलर एस्ट्रोलॉजर से सलाह लेते हैं और कुछ खास रत्नों में उनकी गहरी आस्था है। हाइटैक कैमरों और इंटरनैशनल क्रूर वाले मॉडर्न सैट पर भी ‘मुहूर्त’ शब्द आज भी मौजूद है। फिल्म के पहले शॉट को आशीर्वाद दिया जाता है, क्लैपबोर्ड को एक पवित्र चीज की तरह माना जाता है और एक प्रोड्यूसर नहीं, पुजारी प्रोजैक्ट शुरू करता है। इसके बिना, सबसे एडवांस्ड कैमरा भी पलक झपकाने से मना कर देता है।

इस सब की कॉमेडी यह है कि अंधविश्वास अब लगभग फैशन बन गया है। फिल्मों के टाइटल नंबरों की वजह से बदलते हैं, घर दिशाओं की वजह से चुने जाते हैं, कारें कलर कॉम्बिनेशन की वजह से खरीदी जाती हैं और मोबाइल नंबर नैटवर्क के लिए नहीं बल्कि  ‘शुभ योग’  के लिए चुने जाते हैं। डिजाइनर सनग्लास और सिक्योरिटी गार्ड के पीछे, पावर और पैसे के पीछे, आज भी एक आम इंसान है जो इस अनप्रिडिक्टेबल दुनिया में तसल्ली ढूंढ रहा है।
क्या अंधविश्वास बेवकूफी है? शायद।
क्या यह सुकून देने वाला है? बिल्कुल।
जब लाखों लोग आपके फैसलों पर निर्भर हों, जब कैमरे आपको कभी न छोड़ें, जब एक छोटी सी गलती कल की हैडलाइन बन जाए तो थोड़ी ज्यादा सुरक्षा की चाहत रखना इंसानी फितरत है,भले ही वह कलाई पर बंधे लाल धागे के रूप में हो। आखिर में,अंधविश्वास जादू के बारे में नहीं है। यह कंट्रोल के बारे में है। मन और दुनिया के बीच एक चुपचाप किया गया समझौता है कि  ‘तुम मेरी मदद करो और मैं तुम पर विश्वास करूंगा।’ और भारत जैसे देश में, जहां विश्वास तर्क से ज्यादा मजबूत है और उम्मीद डर से ज्यादा मजबूत है, शायद अंधविश्वास कोई कमजोरी ही नहीं है।-देवी एम. चेरियन
 

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