तमीज तो संस्कार से आती है

Edited By ,Updated: 04 Aug, 2022 05:21 AM

tameez comes from sanskar

सरकारी तंत्र में शब्दों की गरिमा का ख्याल न रखने की एक बहुत ही सामंतवादी परंपरा है। आप किसी छोटे से काम के लिए किसी भी सरकारी कार्यालय में चले जाइए। आपको तत्काल इसका अनुभव

सरकारी तंत्र में शब्दों की गरिमा का ख्याल न रखने की एक बहुत ही सामंतवादी परंपरा है। आप किसी छोटे से काम के लिए किसी भी सरकारी कार्यालय में चले जाइए। आपको तत्काल इसका अनुभव हो जाएगा। अधिकारी तो छोडि़ए, चपड़ासी तक आपसे तमीज से पेश नहीं आएगा। 

अफसर तो जैसे तू-तड़ाक को ही अपना अधिकार मानता है। 1863 में तत्कालीन अमरीकी राष्ट्रपति अब्राहम लिंकन ने लोकतंत्र को लोगों के लिए, लोगों द्वारा, लोगों की सरकार के रूप में वर्णित किया था, उस समय अमरीका में गृह युद्ध चल रहा था और लिंकन के इस संबोधन को युद्ध में शहीदों की शहादत की महत्ता के लिए जाना जाता है। मगर भारत में स्थिति यह है कि सरकारी तंत्र में आम आदमी और जनता को ही सबसे कम सम्मान दिया जाता है और खास तौर से ‘फार द पीपल’ वाली बात तो लगभग खत्म ही हो गई है। 

और तो छोड़ दीजिए, अस्पतालों में जाने वाले मरीजों को जब अस्पताल में डाक्टर से मशविरा लेना होता है या नर्स से जब इंजैक्शन भी लगवाना पड़ता है तो वह सीधे मुंह बात ही नहीं करते। हाथ उठाइए की जगह हाथ उठाओ, जीभ निकालो ऐसे वाक्यों का इस्तेमाल करते हैं, चाहे मरीज 90 साल का हो और डाक्टर या नर्स 25 की। यह हाल सिर्फ सरकारी अस्पतालों का ही नहीं, गैर-सरकारी का भी है। जबकि डाक्टरों को सिखाया जाता है कि मरीज से बहुत प्यार और आदर से बात करना होता है। तमाम शोध भी बताते हैं कि डाक्टरों की प्यार भरी बोली से मरीज जल्द ही ठीक होते हैं, उन्हें बड़ी से बड़ी बीमारी में भी कम तकलीफ होती है। 

सरकारी दफ्तरों, स्थानीय निकायों में काम के लिए जाने वाले, जन्म-मृत्यु प्रमाणपत्र या ड्राइविंग लाइसैंस और वोटर आई.डी. जैसे काम के लिए सरकारी संस्थानों और अदालतों में जाने वाले लोग रोज इस अनुभव से दो चार होते हैं और अपमान का कड़वा घूंट पीकर रह जाते हैं। यही हाल सरकारी बैंकों का भी है, जहां आप कुछ लेने नहीं, बल्कि अपनी कमाई से थोड़ा-थोड़ा बचाकर देने जाते हैं। अपनी पाई-पाई उनके भरोसे जमा करते हैं, मगर वहां भी आपको सम्मान नहीं मिलता। बैंक कैशियर, मदद खिड़की पर बैठा बाबू और यहां तक कि चपरासी भी आप से तमीज से बात नहीं करता। ग्राहक जिसे भगवान कहते हैं, सरकारी बैंकों और प्रतिष्ठानों में उसके लिए भी तू-तड़ाक की भाषा का इस्तेमाल किया जाता है। 

पहले यह माना जाता था कि राजनीति सीधे जनसंपर्क से चलती है। इसलिए नेता भी जनता से बड़े तमीज से पेश आते थे। धीरे-धीरे पैसा, शराब, जाति और धर्म राजनीति को चलाने लगे। नेता जनता पर एहसान करने लगे। उनकी तमीज भी जाती रही। हालत यह है कि अब नेता संसद में एक-दूसरे से अपमानजनक भाषा में बात करते नजर आते हैं। कांग्रेस नेता अधीर रंजन ने देश के सबसे सम्मानित पद की गरिमा तक का ध्यान नहीं रखा। भला विपक्ष के नेता की ऐसे कैसे जुबान फिसल जाती है। 

अधीर रंजन को राष्ट्रपति द्रौपदी मुर्मू से लिखित में माफी मांगनी पड़ी है। कांग्रेस नेता मणिशंकर अय्यर तो प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के बारे में कई बार विवादित बयान दे चुके हैं। इसके लिए एक बार पार्टी उन पर कार्रवाई भी कर चुकी है। इसी तरह बिहार विधानसभा के 2015 के चुनाव प्रचार के दौरान अमित शाह को पागल, नरभक्षी तथा प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को ब्रह्मपिशाच कहने पर चुनाव आयोग ने राजद प्रमुख लालू प्रसाद यादव पर मामला दर्ज करने के निर्देश दिए थे। सपा नेता आजम खान, ए.आई.एम. आई.एम. प्रमुख असदुद्दीन ओवैसी, सपा प्रमुख मुलायम सिंह यादव मर्यादा के विपरीत बोल बोलने के बाद जुबान फिसलने की आड़ लेते रहे हैं। 

ऐसा नहीं है कि सिर्फ विपक्ष के नेताओं की ही जुबान फिसलती है। सत्ता में बैठे लोगों को भी महिला सांसदों के लिए ताड़का जैसी हंसी, सौ करोड़ की गर्लफ्रैंड जैसे शब्द इस्तेमाल करते हुए सदन में सुना गया है। अब बिल्कुल ताजा मामला महाराष्ट्र के राज्यपाल भगत सिंह कोश्यारी और शिवसेना प्रमुख उद्धव ठाकरे का है। कोश्यारी के इस बयान पर शिवसेना तुरंत हमलावर हो गई। तमाम नेताओं के अलावा महाराष्ट्र के पूर्व मुख्यमंत्री उद्धव ठाकरे तो मर्यादा ही लांघ गए। शिवसेना प्रमुख ने कहा कि राज्यपाल कोश्यारी ने हद पार कर दी है। उनके इस बयान के बाद तो यह तय किया जाना चाहिए कि उन्हें यहां से वापस भेजना है या जेल भेजना है। उद्धव यहीं नहीं रुके। उन्होंने कहा कि महाराष्ट्र के राज्यपाल के रूप में उन्होंने अढ़ाई साल से महाराष्ट्र की हर चीज का आनंद लिया है। व्यंजनों का आनंद लिया, अब समय आ गया है कि वह कोल्हापुरी चप्पल भी देखें। 

इससे अंदाजा लगाया जा सकता है कि भाषा और संस्कार के नाम पर देश किस दिशा में बढ़ रहा है। यह हाल तब है जब सदन के लिए प्रतिबंधित शब्दों की सूची को मानसून सत्र से ठीक पहले और बड़ा किया गया है। मगर प्रतिबंध लगाने से कुछ नहीं होता। भाषा संस्कार से आती है। आखिर इसका इलाज क्या है। सरकारी और गैर-सरकारी कर्मचारी कम से कम तमीज से बात करें, यह बहुत जरूरी है। 

डॉक्टर-नर्स भी यह ध्यान रखें कि किस उम्र के लोगों से वे बात कर रहे हैं और इसकी सिर्फ एक ही वैक्सीन है कि हर सरकारी कार्यालय में कर्मचारियों को आमजन से बात करने की तमीज सिखाई जाए। आचरण के लिए बाकायदा हफ्ते-दस दिन में क्लास ली जाए। तू-तड़ाक के सभी शब्दों को वर्जित किया जाए और यह सब उनके के.आर.ए.की रिजल्ट एरिया में शामिल हो।-अकु श्रीवास्तव

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