‘अल नीनो’ के कारण समय से पहले बढ़ रहा तापमान

Edited By ,Updated: 11 Mar, 2023 06:36 AM

temperature rising prematurely due to  el nino

देश में 9 साल तक लगातार अच्छा मानसून रहने के बाद अब एक बार फिर से ‘अल नीनो’ की परिस्थितियां निर्मित होती नजर आ रही हैं।

देश में 9 साल तक लगातार अच्छा मानसून रहने के बाद अब एक बार फिर से ‘अल नीनो’ की परिस्थितियां निर्मित होती नजर आ रही हैं। जिसके कारण इस साल देश में गर्मियों का मौसम शुष्क व बेहद गर्म रह सकता है। इसी वजह से इस वर्ष ज्यादा लू चलने की भविष्यवाणी भी की गई है। लेकिन इससे भी बुरी खबर यह हो सकती है कि अल नीनो के प्रभाव की वजह से मानसून खराब हो सकता है। अमरीका की मौसम एजैंसी ‘नैशनल ओशनिक एंड एटमॉस्फेरिक एडमिनिस्ट्रेशन’  (एन.ओ.ए.ए.) के ताजा पूर्वानुमान के अनुसार इस वर्ष मई से जुलाई के बीच अल नीनो की परिस्थितियां छा सकती हैं और इसका असर आगामी मानसून पर भी पड़ सकता है।

दरअसल इस बार की फरवरी में बसंत का एहसास हुए बगैर मौसम में गर्मी दिनों-दिन बढ़ती जा रही है और देश के उत्तर-पश्चिम, मध्य व पश्चिम भारत से लेकर दिल्ली, उत्तर प्रदेश, हरियाणा, पंजाब, राजस्थान, गुजरात, मध्यप्रदेश और महाराष्ट्र जैसे राज्यों में ‘हीट वेव’ जैसे हालात बनते जा रहे हैं। दरअसल मैदानी क्षेत्रों में तापमान 40 डिग्री या  इससे अधिक होने पर जबकि पहाड़ी क्षेत्रों में अधिकतम तापमान 30 डिग्री  सैल्सियस तो वहीं  तटीय क्षेत्रों में तापमान 37 डिग्री सैल्सियस से अधिक होने पर हीट वेव का अलर्ट होता है।

इससे ऐसा लग रहा है कि हमारे यहां साल 1998 की परिस्थितियां बन सकती हैं। दरअसल साल 1998 में भारत में 90.6 फीसदी बारिश हुई थी यानी सामान्य से 9.4 फीसदी कम। सामान्य से 10 फीसदी कम होने पर मौसम विज्ञान की परिभाषा में उसे ‘माइल्ड ड्राऊट’ यानी कि ‘मध्यम सूखा’ वर्ष घोषित किया जाता है। ‘अमरीकन जियोसाइंस इंस्टीच्यूट’ के अनुसार अल नीनो (और इसी तरह ला नीनो भी) का संबंध प्रशांत महासागर की समुद्री सतह के तापमान में समय-समय पर होने वाले बदलावों से है।

अल नीनो एक चक्रीय पर्यावरणीय स्थिति है जो प्रशांत महासागर के भूमध्य क्षेत्र में शुरू होती है। सामान्य शब्दों में कहें तो अल नीनो वह प्राकृतिक  घटना है जिसमें प्रशांत महासागर का गर्म पानी उत्तर और दक्षिण अमरीका की ओर फैलता है और फिर इससे पूरी दुनिया में तापमान बढ़ता है। इस बदलाव के कारण समुद्र की सतह का तापमान सामान्य से अधिक हो जाता है। यह तापमान सामान्य से कई बार 0.5 डिग्री सैल्सियस तक ज्यादा हो सकता है।

ये बदलाव अमूमन 9 से 12 माह तक होते हैं लेकिन कई बार लम्बे भी चलते हैं। अल नीनो की स्थिति हर 4 से 12 साल में आती रही है लेकिन अब इसकी फ्रीक्वैंसी 2 से 7 साल हो गई है। हालांकि कोई भी 2 अल नीनो बिल्कुल एक के बाद एक नहीं आते हैं।अल नीनो का सर्वाधिक प्रत्यक्ष असर बारिश के पैटर्न पर पड़ता है। भारत की मानसूनी बारिश भी इसके असर से बची नहीं रह पाती है और इस वजह से बारिश कम होती है। इसमें सामान्य बारिश की संभावना केवल 10 फीसदी तक होती है।

ऐसा ही असर इंडोनेशिया, मलेशिया, फिलीपींस और आसपास के क्षेत्रों में भी हो सकता है। भारत जैसे विकासशील देशों में भी लगभग पूरी खेती बारिश पर ही निर्भर होती है। बारिश कम होने से और फसल का उत्पादन कम होने की वजह से एक बड़े वर्ग के सामने समस्या उत्पन्न हो सकती है। अफ्रीका महाद्वीप के गरीब देशों में तो हालात और भी ज्यादा खराब हो सकते हैं। समुद्र की सतह का तापमान बढऩे का सबसे ज्यादा असर समुद्री जीव जंतुओं पर भी पड़ता है।

‘ओशनिक रिसर्च सैंटर’ की एक स्टडी के अनुसार ‘अल नीनो इम्पैक्ट’ के कारण कम से कम 135 तरह की मछलियों व अन्य समुद्री जंतुओं की प्रजातियों का अस्तित्व ही खत्म हो गया है। अल नीनो को सबसे महत्वपूर्ण ‘जलवायु निर्माता फिनोमिना’ भी कहा जाता है। इसे ‘मास्टर वैदर मेकर’ की संज्ञा भी दी जा सकती है। दरअसल अल नीनो पूरी दुनिया के जलवायु पैटर्न को बदलकर रख देता है। इस बदलाव से अमरीका महाद्वीप के पश्चिमी तटों वाले क्षेत्रों जैसे पेरू, चिली, मैक्सिको व दक्षिण-पश्चिमी अमरीका के सूखे और मरुस्थलीय इलाकों में भी भारी बारिश तथा बर्फबारी हो सकती है।

जबकि ब्राजील, इंडोनेशिया ऑस्ट्रेलिया, उत्तर-पूर्वी अमरीका व भारतीय उपमहाद्वीप के क्षेत्रों में सूखा पड़ सकता है। अल नीनो की पहली रिकार्डेड घटना साल 1525 में उस समय देखने को मिली थी जब स्पेनिश विजेता फेंसिको पिजारो पेरू पहुंचे थे। उस समय वहां के रेगिस्तान में पहली बार बारिश हुई थी। इतिहासकारों का मानना है कि अगर उस समय रेगिस्तान में बारिश नहीं हुई होती तो उन्हें प्रभावशाली ‘इंका साम्राज्य’ पर कब्जा करने में सफलता शायद नहीं मिल पाती और पश्चिम जगत का इतिहास कुछ और होता।

वैश्विक तौर पर देखें तो वैज्ञानिक अल नीनो के कुछ फायदे भी गिनाते हैं जिसमें पहला है कि इसकी वजह से नार्थ अटलांटिक क्षेत्र में समुद्र और चक्रवाती तूफान अपेक्षाकृत कम आते हैं। हालांकि तूफानों की तीव्रता में कमी नहीं आती है तो वहीं दूसरा दक्षिण कनाडा और उत्तरी अमरीका के वे क्षेत्र जहां हाड़ कंपाती सर्दी पड़ती है अल नीनो की वजह से ठंड में राहत मिलती है। इसके साथ ही दुनिया के कुछ हिस्से जैसे कि दक्षिणी पूर्वोत्तर अफ्रीका में शुष्क मौसम की वजह से मलेरिया जैसी बीमारियां भी कम हो जाती हैं। हालांकि अल नीनो से यह सिद्ध नहीं होता है कि सूखा पड़ेगा ही क्योंकि 40 प्रतिशत अल नीनो में सूखे की स्थिति नहीं आई।

भारत में वर्ष 1951 के बाद से 10 बार ऐसे मौके आए हैं जब अल नीनो की वजह से सूखे की स्थिति उत्पन्न हुई। हालांकि कई अल नीनो ऐसे भी रहे जब सूखा नहीं पड़ा। कई बार ऐसे सूखे की स्थिति भी निर्मित हुई जिसकी वजह अल नीनो नहीं थी। सामान्य से 10 प्रतिशत कम बारिश होने पर माइल्ड ड्राऊट, 15 से 20 प्रतिशत  कम होने पर मॉडरेट और 20 प्रतिशत से कम बारिश होने पर सीवियर ड्राऊट की स्थिति होती है। भारत में सबसे बुरा अल नीनो साल 1972 का रहा है जब सामान्य से 24 फीसदी कम बारिश हुई थी। इसके बाद 2009 में जब 22 फीसदी कम बारिश हुई। -ऋषभ मिश्रा

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