गहरे भावनात्मक मुद्दों पर न्याय की उलझन

Edited By Updated: 29 May, 2022 04:16 AM

the confusion of justice on deep emotional issues

आजादी से पहले भारतीय समाज ने कई सदियों तक तत्कालीन राज शक्तियों के अत्याचार झेले। बाहरी आक्रांता शासक रहे हों या अंग्रेज हुकूमत, धर्म का आधार लेकर ये सभी हर जुल्म करते रहे। यह एक ऐतिहासिक सत्य है। इन जुल्मों के अवशेष

आजादी से पहले भारतीय समाज ने कई सदियों तक तत्कालीन राज शक्तियों के अत्याचार झेले। बाहरी आक्रांता शासक रहे हों या अंग्रेज हुकूमत, धर्म का आधार लेकर ये सभी हर जुल्म करते रहे। यह एक ऐतिहासिक सत्य है। इन जुल्मों के अवशेष आज भी जर्जर ढांचों में या उन इमारतों में मिलेंगे, जहां मंदिर तोड़ कर मस्जिद बनाई गई और समाज के एक बड़े तबके को धर्म-परिवर्तन के लिए मजबूर किया गया। लेकिन यह सब कई सौ वर्ष पहले हुआ था। 

यह सच है कि ऐतिहासिक गलतियों को समय के साथ दुरुस्त करना एक ताॢकक और सबके द्वारा मानी जाने वाली प्रक्रिया है, लेकिन इतिहास के किस काल तक की गलतियों को किस तरीके से सही किया जाए और ऐसा करने से वर्तमान और भावी पीढिय़ों पर कितना गहरा और व्यापक प्रभाव पड़ेगा, इसे नहीं भूलना चाहिए। अपराध न्याय-शास्त्र का मूल सिद्धांत है ‘अपराध करना व्यक्तिगत होता है’, यानी बाप के जुर्म की सजा बेटे को नहीं दी जा सकती। लेकिन दीवानी के मामलों में हुई ऐतिहासिक गलतियों की स्थिति दूसरी है। इसमें एक भवन गैर-कानूनी रूप से बनाना या तोडऩा, पवित्र-स्थल का चरित्र बदलना या अपवित्र करना दुरुस्त किया जाता है। लेकिन इसमें देखा जाता है कितने पीछे तक की गलतियों को लिया जाए। 

प्रैजैंटिज्म बनाम हिस्टोरिसिज्म 
एक तर्क-शास्त्रीय दोष होता है वर्तमान वैल्यू-सिस्टम, जिसे समाजशास्त्रीय भाषा में ‘प्रैजैंटिज्म’ कहा जाता है, को ऐतिहासिक घटनाओं पर चस्पा कर उनका औचित्य तय करना, जिसे हिस्टोरिसिज्म कहते हैं। एक पागल बादशाह ने जो किया उसका प्रतिकार अगर 500 साल बाद किया जाए तो फिर 1000 साल पहले की घटनाओं पर क्यों नहीं, या 2000 साल पहले के धार्मिक पंथों के खूनी संघर्षों का अब क्या होगा? लेकिन राम, शिव और कृष्ण एक बड़े वर्ग के आराध्य देव हैं, लिहाजा भावना की गहराई को क्या समय सीमा में बांधा जा सकता है? 

जजों की उलझन : वाराणसी की ज्ञानवापी मस्जिद के मुद्दे पर बहस के दौरान सुप्रीम कोर्ट की बैंच के एक बेहद ताॢकक न्यायाधीश जस्टिस चंद्रचूड़ ने कहा कि पूजा-स्थल (विशेष प्रावधान) एक्ट, 1991 किसी धार्मिक स्थल का चरित्र सुनिश्चित करना बाधित नहीं करता। हालांकि यह उनकी मौखिक टिप्पणी थी जिसका उस दिन के आदेश में कोई जिक्र नहीं था, लेकिन इसने पूरे देश में और खासकर नीचे की अदालतों की सोच पर जरूर असर डाला होगा। उन्होंने यह भी कहा कि समाज में संतुलन बनाना भी कोर्ट का दायित्व है। 

कानून और पूर्व के फैसले क्या कहते हैं : दुनिया का कोई भी कानून केवल शब्दों की सीमा में नहीं समझा जा सकता। अमरीकी संविधान बनने के 4 साल में ही 10 महत्वपूर्ण संशोधन हुए। भारत के संविधान में तो मात्र डेढ़ साल में ही अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता पर 3 और ‘तर्कपूर्ण प्रतिबंध’ लगाए गए। पूजा-स्थल कानून भारत की संसद ने 1991 में जिन हालात में बनाया वह सर्वविदित है। 

कानून की प्रस्तावना, उसके सैक्शन 3 और 4(1) को अगर मिला कर पढ़ा जाए तो उसका स्पष्ट मकसद था बाबरी मस्जिद पर चल रहा संपत्ति विवाद छोड़ कर अन्य सभी धर्मस्थलों के लिए विवाद हमेशा के लिए खत्म किया जाना और इसके अलावा अन्य सभी पूजा स्थलों के लिए एक निश्चित तिथि (15 अगस्त,1947) को जो चरित्र उस स्थल/भवन का रहा था, उसे ही मूल स्थिति माना जाना और इसके तत्कालीन चरित्र को किसी भी अन्य पंथ या धर्म के पूजा स्थल के चरित्र में बदलना बाधित किया जाना। ज्ञानवापी हो या मथुरा की कृष्ण-जन्मभूमि, इनके भवन के चरित्र निर्धारण के लिए एक व्यापक कई तरह की शोध और उत्खनन की जरूरत होगी। और जब यह सब होगा तो उसके नतीजे भी सार्वजनिक होंगे। क्या 300-400 साल पहले किए गए किसी कृत्य या कुकृत्य को अब पता करना, जिसका अंत एक समुदाय के आक्रोश में हो, उचित होगा? क्या यह कोर्ट के बैलैंसिंग के दायित्व पर खरा उतरेगा? 

दूसरा प्रश्न उठेगा : माननीय जज चंद्रचूड़ उस 5 सदस्यीय बैंच में भी थे, जिसने 2019 में राम मंदिर पर सर्वसम्मति से फैसला देते हुए कहा था ‘सन 1991 का यह कानून एक ऐसा दस्तावेज है जो देश के धर्म-निरपेक्ष पहलू को सुरक्षित करने के लिए बनाया गया है... उस धर्म-निरपेक्षता को जो कि संविधान का आधारभूत ढांचा है।‘ इसी फैसले में आगे कहा गया है, ‘यह कानून पीछे के इतिहास में न जाने के सिद्धांत को भी संरक्षित करता है, लिहाजा यह भी संवैधानिक ढांचे का ही अंग है।’ रामजन्म भूमि पर हुए फैसले के बाद स्वयं राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के शीर्ष नेतृत्व ने भी कई साक्षात्कार में कहा था ‘यह अंतिम है और अब अन्य किसी मंदिर को लेकर कोई विवाद नहीं होगा’। 

क्यों इतिहास नहीं खंगाल सकते  : समाजशास्त्र के एक सिद्धांत, जिसका न्याय शास्त्र में भी प्रयोग होता है, ‘सापेक्ष उपयोग’ में किसी विवादास्पद जमीन या भवन को लेकर यह देखा जाता है कि यह किस व्यक्ति या समुदाय के उपयोग में कितने दिन से और किस किस्म के प्रयोग में है। इसी से उद्भव हुआ दीवानी का सिद्धांत ‘प्रतिकूल कब्जा’। राम-मंदिर के फैसले में कोर्ट ने इस बात का भी संज्ञान लिया कि कौन-सी सापेक्ष भावना की प्रगाढ़ता है। इसके लिए उसने इसी कोर्ट के संविधान पीठ के उस फैसले को भी देखा जिसमें नमाज को इस्लाम का अनिवार्य अंश नहीं माना गया था। 

कोर्ट इस बात से बाखबर थी कि सापेक्ष भावना में एक ओर हिन्दुओं के सर्वमान्य आराध्य-देव राम की जन्म-स्थली का सवाल था, जबकि मुसलमानों के लिए वह तमाम मस्जिदों में से एक थी, जिसे निर्विवाद रूप से किसी मुगल शासक ने मंदिर गिरा कर तामीर किया था। अन्य दो इमारतों (वाराणसी और मथुरा) में भी यही हुआ था। लेकिन फिर क्या कुतुबमीनार, ताजमहल तो छोडि़ए, दक्षिण भारत की टीपू सुल्तान के समय की तमाम इमारतें, महाराष्ट्र में परिवर्तित गणपति मंदिर या ‘हाल ही में’ अजमेर शरीफ  इस जद में नहीं आने लगेंगे? हम ऐसे पूजा स्थलों का चरित्र निर्धारण करने की प्रक्रिया को कानून-सम्मत बना कर कहीं सांप्रदायिक तनाव का पिटारा तो नहीं खोल रहे?-एन.के. सिंह
 

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