जम्मू-कश्मीर की वास्तविक स्थितिः अनुच्छेद 370 की समाप्ति राष्ट्र हित में

Edited By Punjab Kesari,Updated: 15 Sep, 2017 02:50 PM

the real condition of jammu and kashmir article 370 ends in national interest

भारतीय संविधान ने देश में सघात्मक शासन व्यवस्था की स्थापना की है। यद्यपि संविधान में कहीं भी 'संघ' (फेडरल) शब्द का प्रयोग नहीं हुआ है, अपितु इसके स्थान पर अनुच्छेद 1के अनुसार भारत राज्यों का संघ  (यूनियन आफ स्टेट्‌स) होगा, जिसका अभिप्राय यह...

भारतीय संविधान ने देश में सघात्मक शासन व्यवस्था की स्थापना की है। यद्यपि संविधान में कहीं भी  (फेडरल) शब्द का प्रयोग नहीं हुआ है, अपितु इसके स्थान पर अनुच्छेद 1के अनुसार भारत राज्यों का संघ  (यूनियन आफ स्टेट्‌स) होगा, जिसका अभिप्राय यह था कि यह घटक इकाईयों के बीच किसी समझौते की उपज नहीं है, बल्कि उस संविधान सभा की घोषणा है जिसने अपना प्राधिकार भारत के लोगों से प्राप्त किया है। अतः भारतीय संविधान विनाशी राज्यों के अविनाशी संघ की स्थापना करता है। 


इस बात पर लगभग सर्वसम्मति थी कि राज्य व्यवस्था के संघात्मक स्वरूप को दर्शाया जाए, परंतु उसमें राज्यों की स्थिति गौण हो और संघ की सर्वोच्चता के पक्ष में हो। लेकिन जम्मू-कश्मीर राज्य एवं संघ सरकार के आपसी संबंध ठीक इसके विपरित हैं, जहां राज्य की सरकार को इतनी अधिक स्वायत्तता प्राप्त है कि वह राष्ट्रीय एकीकारण का संवेदनशील सवाल बन गया है। 


के.एम.पणिकर जैसे संविधान निर्माताओं का कथन था कि संघ तो सुहावने मौसम का संविधान है। जम्मू-कश्मीर के संदर्भ में संघीय सूची को पर्याप्त रूप से कम किया गया है जिसमें कुछेक सीमित शक्तियां शामिल रखी गई हैं। शेष सभी शक्तियां राज्य सूची में हैं। जम्मू-कश्मीर राज्य के संदर्भ में समवर्ती सूची है ही नहीं। संपूर्ण भारत में अवशिष्ट शक्तियां जम्मू एवं कश्मीर को छोड़कर केन्द्र के पास हैं।

केन्द्र द्वारा बनाए गए कानून स्वतः जम्मू-कश्मीर पर लागू नहीं होते इसके लिए राज्य विधानमंडल की सहमति आवश्यक है। शेष भारत की तुलना में जम्मू एवं कश्मीर राज्य सरकार और राज्य विधानमंडल की शक्ति सर्वोपरि है। भारतीय संविधान का संघीय स्वरूप केन्द्र के पक्ष में रहता है, परंतु जम्मू एवं कश्मीर राज्य के मामले में यह राज्य के पक्ष में रहता है। यह विसंगति अनुच्छेद 370 के कारण पैदा होती है। अनुच्छेद 370 भारतीय संविधान के भाग 21 में निहित है। श्री गोपाल स्वामी अयंगार ने अनुच्छेद 370 को शामिल करने के लिए बिल पेश करते हुए कहा था कि अनुच्छेद 370 एक अंतरिम और ट्रांजिशनल प्रावधान है। 


देशभर में आलोचनाओं का सामना कर रहे पंडित नेहरू ने कहा कि यह घिसते-घिसते घिस जाएगा। अब तक यह प्रावधान समाप्त नहीं हुआ है। कश्मीर में मौजूदा समय में आतंकवाद का जो दौर व्याप्त है, उसका बीज भारत सरकार द्वारा इस राज्य के संदर्भ में अब तक अपनाए गए नर्म रवैये और कठिन सच्चाइयों का सामना करने के बजाय भ्रमों में जीने की उसकी आदत में निहित है। 

यदि सरदार पटेल आज जीवित होते या फिर देश के राजनीतिक क्षितिज में उनके जैसा कोई दूसरा व्यक्ति सामने होता तो क्या बीमार मानसिकता वाले उन बीजों को बोने की अनुमति दी जा सकती थी? मजबूत नींव के निर्माण की जरूरत उनके मस्तिष्क में सर्वोपरि थी। इसका अंदाजा 561 राजसी राज्यों की समस्या से निपटने में उन्हें मिली सफलता से लगाया जा सकता है। 


यदि कश्मीर का मामला सरदार पटेल के हाथों में दिया गया होता तो वैसा ही स्पष्ट और रचनात्मक दृष्टिकोण का परिचय कश्मीर के संदर्भ में दिया गया होता तो हम आज खुद को रक्तपात, आतंकवाद और भय के इस माहौल में घिरा नहीं पाते। कश्मीर मामले को संयुक्त राष्ट्र संघ ले जाने के भारत के प्रयास पर सरदार पटेल अत्यन्त दुःखी थे। सरदार पटेल गोपाल स्वामी आयंगर को संयुक्त राष्ट्र जाने वाले भारतीय प्रतिनिधि मंडल का नेता और शेख अब्दुला को सदस्य बनाए जाने के खिलाफ थे। पटेल सर गिरिजाशंकर को इस प्रतिनिधि मंडल के अध्यक्ष के तौर पर भेजना चाहते थे वहीं शेख अब्दुला का भड़कीला स्वभाव भारत का अहित कर सकता है।

जिन्ना द्वारा शेख अब्दुला का विरोध करने से शेख अब्दुला ने अपना राजनैतिक भविष्य सुरक्षित रखने की दृष्टि से कश्मीर को भारत में रखना उनकी राजनैतिक मजबूरियां थी। पटेल शेख अब्दुल्ला पर समय पर लगाम कस सकते थे, जिसमें वह महाराजा हरि सिंह को अपमानित न कर पाते। यदि कश्मीर का मामला पटेल के हाथों में दिया जाता तो वह भारत संघ और राज्य की जरूरतों के बीच एक समुचित संतुलन स्थापित कर देते और एक आदर्श धर्मनिरपेक्ष और लोकतांत्रिक ताने बाने में शेख अब्दुला, महाराजा हरि सिंह और तीन मुख्‍य क्षेत्रों जम्मू, कश्मीर व लद्दाख के लोगों की आकांक्षाओं की पूर्ति भी कर देते।


पंडित नेहरू की शह पर शेख अब्दुला को 4 मार्च, 1948 को प्रधानमंत्री बनाते ही तानाशाह की तरह कार्य करना प्रारंभ कर दिया, जिससे विवश होकर महाराजा हरि सिंह को 20 जुलाई, 1949 को गद्दी त्यागनी पड़ी। शेख जनमत संग्रह के नाम पर भारत को ब्लैकमेलिंग करता रहा। शेख अब्दुला ने जो कुछ भी किया तार्किक या अतार्किक उसे पंडित नेहरू का हमेशा समर्थन मिला।


स्वतंत्रता के बाद से ही राज्य का प्रशासन प्रमुख रूप से कश्मीर घाटी से निर्वाचित प्रतिनिधियों के हाथों में रहा, जबकि जम्मू और लद्दाख क्षेत्रों के प्रशासन में निरंतर भेदभाव चलता रहा है। 1999 में आबादी का राष्ट्रीय औसत 26 प्रतिशत गरीबी की रेखा से नीचे रहा था। जम्मू एवं कश्मीर में यह आंकड़ा मात्र 3.6 प्रतिशत था। कश्मीर में प्रति व्यक्ति केन्द्रीय सहायता प्रति वर्ष 3,000 रूपये बनती है, जबकि बिहार जैसे राज्यों में कुछ वर्ष पहले 300 रूपये थी।


कश्मीर की आबादी जम्मू से मामूली ज्यादा है। सरकारी नौकरियों में बड़े पैमाने पर भेदभाव बना रहता है। राज्य में सरकारी और अर्ध-सरकारी कर्मचारियों की कुल संखया 4.5 लाख में से 3.3 लाख कर्मचारी कश्मीर घाटी से है। जम्मू और लद्दाख क्षेत्र से कर्मचारियों की संख्‍या बहुत कम है। सिविल सचिवालय में लद्दाख का प्रतिनिधित्व मात्र 0.68 प्रतिशत है। विधानसभा में कश्मीर क्षेत्र के प्रतिनिधियों की संख्‍या 46, जम्मू से 37 व लद्दाख से मात्र 4 सदस्य हैं। जबकि हम देखते हैं कि जम्मू क्षेत्र के पंजीकृत मतदाताओं की संख्‍या 30,59,986 व कश्मीर की 28,85,555 से कहीं अधिक है।


विकास कार्यों पर खर्च के मामलो में भी जम्मू एवं लद्दाख के साथ भेदभाव साफ नजर आता है। जम्मू-कश्मीर सरकार एवं संघ सरकार के आपसी संबंधों का संचालन संविधान के अनुच्छेद 370 के द्वारा होता है। ब्रिटीश शासन में जम्मू-कश्मीर भारत की सबसे बड़ी रियासत थी जिस पर आनुवंशिक महाराजा का शासन था। वर्ष 1925 से जम्मू-कश्मीर में महाराजा हरिसिंह का शासन था।


भारतीय स्वतंत्रता अधिनियम 1947 द्वारा ब्रिटिश भारत की रियासतें अंग्रेजी शासन की प्रभुसत्ता से स्वतंत्र हो गई और इसके साथ ही रियासतों की सुरक्षा की अंग्रेजों की जिम्मेदारी भी स्वतः समाप्त हो गई। स्वतंत्रता अधिनियम के अनुसार देशी
रियासतों के भारत या पाकिस्तान में विलय का अधिकार रियासतों के राजाओं को दिया गया।


26 अक्तूबर, 1947 को महाराजा हरिसिंह ने जम्मू-कश्मीर का भारत में विलय उसी वैधानिक विलय पत्र के आधार पर किया, जिसके आधार पर शेष सभी रियासतों का भारत में विलय हुआ था। महाराजा हरिसिंह द्वारा हस्ताक्षरित विलय पत्र जम्मू-कश्मीर के भारत में विलय को पूर्ण और अंतिम दर्शाता है जो इस प्रकार है।

 
मैं एतद्‌ द्वारा घोषणा करता हूं कि मैं भारतवर्ष में इस उद्देश्य से शामिल होता हूं कि भारत में गवर्नर जनरल, अधिराज्य का विधानमंडल, संघीय न्यायालय तथा अधिराज्य के उद्देश्यों से स्थापित अन्य कोई भी अधिकार मेरे विलय पत्र के आधार पर किंतु हमेशा इसमें विद्यमान अनुबंधों के अनुसार केवल अधिराज्य के प्रयोजनों से ही कार्यों का निष्पादन करेंगे।


भारतीय स्वाधीनता अधिनियम, 1947 के अनुसार शासक द्वारा विलय पत्र पर हस्ताक्षर करने के उपरांत आपत्ति करने का अधिकार स्वयं हस्ताक्षरकर्त्ता सहित किसी को नहीं था। इस प्रकार जम्मू-कश्मीर राज्य का भारत में विलय हुआ तथा वर्ष 1950 में भारत के संविधान की पहली अनुसूची में भाग राज्य में शामिल किया गया किंतु भारतीय संविधान के सभी उपबंध जम्मू-कश्मीर राज्य पर विस्तारित नहीं किए गए।

 

26 जनवरी, 1957 को जम्मू-कश्मीर राज्य का संविधान लागू हुआ, जिसकी धारा 3 के अनुसार जम्मू-कश्मीर राज्य का अभिन्न अंग है और रहेगा तथा यह धारा असंशोधनीय होगी। संयुक्त राष्ट्र संघ के निर्णायक हाल में कश्मीर समस्या का प्रवेश एक ऐसी भूल है जिसे माफ नहीं किया जा सकता है। यह कार्य तत्कालीन राजनेताओं पर एक कलंक के समान है और वह उनकी अन्तर्राष्ट्रीय राजनीति एवं कूटनीति की नासमझी को व्यक्त करता है। 


कश्मीर समस्या का समाधान उसी समय हो सकता था लेकिन हमने हल हेतु योग्य संस्था को नहीं चुना बाद में भी कई अवसर हमारे अनुकूल रहे लेकिन हम लाभ उठाने में असफल साबित हुए जैसे कि 1965 व 1971 और 1999 के युद्ध में भारत के साथ पारंपरिक युद्ध में परास्त किया गया और 1971 में अपनी ही डिवीजन गंवाकर उसे भारी कीमत चुकानी पड़ी। सीधे पारंपरिक युद्ध में लगातार हारों के बाद 1980 के दशक में जम्मू एवं कश्मीर राज्य में सीमा पार आतंकवाद में गैर परंपरागत युद्ध का षड़यंत्र रचा, जो अभी तक लगातार जारी है।


पाकिस्तानी सरकार, उसकी खुफिया एजेंसी आई.एस.आई. और अन्य अनेक ग्रुप पाकिस्तान की धरती से जम्मू एवं कश्मीर तथा भारत के अन्य भागों में अशान्ति फैला रहे हैं। आतंकवाद से लड़ने में भारत को बड़ी भारी कीमत चुकानी पड़ रही है। हमें अनेक निर्दोष लोगों और सुरक्षाकर्मियों से हाथ धोना पड़ रहा है। हमारे बजट का एक बहुत बड़ा भाग हमें आतंकवाद के खिलाफ आंतरिक सुरक्षा कायम रखने पर खर्च करना पड़ रहा है।

 

17 अक्तूबर, 1947 को कश्मीर मामलों को देख रहे मंत्री गोपाल स्वामी अयंगर ने भारत की संविधान सभा में अनुच्छेद 306 (ए) को प्रस्तुत किया, जो वर्तमान में अनुच्छेद 370 है। अम्बेडकर की अध्यक्षता वाली प्रारूप समिति द्वारा प्रस्तुत मूल ड्राफ्ट में यह अनुच्छेद शामिल नहीं था। जब पंडित नेहरू ने शेख अब्दुला को इस विषय पर बात करने के लिए डॉ. अम्बेडकर के पास भेजा तो अम्बेडकर ने स्पष्ट कहा कि तुम यह चाहते हो कि भारत कश्मीर की रक्षा करे, कश्मीरियों को पूरे भारत में समान अधिकार हो पर भारत और भारतीयों को तुम कश्मीर में कोई अधिकार नहीं देना चाहते। 


मैं भारत का कानून मंत्री हूं और मैं अपने देश के साथ इस प्रकार की धोखाधड़ी में शामिल नहीं हो सकता। अन्ततः काफी जहोजेहाद के बाद अनुच्छेद 370 को संविधान के 21वें अध्याय में 'अस्थाई, विशेष एवं संक्रमणकालीन शीर्षक के अंतर्गत शामिल किया गया। संविधान के अनुच्छेद 370 के अंतर्गत राष्ट्रपति को यह अधिकार दिया गया है कि जम्मू-कश्मीर वैदेशिक, संचार आदि व्यवस्था के संबंध में मिले अधिकारों के आधार पर जम्मू एवं कश्मीर के बारे में आदेश जारी करके उसकी संवैधानिक स्थिति में परिवर्तन कर दें।

 

अन्य मामलों के लिए जब सीमा पर भारतीय सेना लड़ रही थी तो सेना को दिल्ली के बजाय शेख अब्दुला से निदेश लेने को कहा गया और शेख अब्दुला ने भारतीय सेना को कभी भी अधिकृत सीमाओं ;जो उनके कब्जे में चली गई थीद्ध में घुसने के लिए नहीं कहा (संभवतः हिंदू बाहुल्य क्षेत्र होने के कारण और पाकिस्तान को खुश करने के लिए)। संभवतः पाकिस्तान को कश्मीर का मुआवजा देने के लिए शेख अब्दुला की शह पर सारा हिंदू क्षेत्र पाकिस्तान को जाने दिया गया।

ये सब एक सोची-समझी रणनीति के तहत था जो पंडित नेहरू व शेख अब्दुला के बीच बनी थी। असल में पंडित नेहरू शुरू से ही जम्मू-कश्मीर के विभाजन के पक्ष में थे। कश्मीर मुस्लिम बाहुल्य क्षेत्र पाकिस्तान को और जम्मू, हिंदू बाहुल्य क्षेत्र भारत को। 1 जनवरी, 1949 को जब हमारी सेनाएं आगे बढ़ रही थी तब उन्होंने पी.ओ.के. को वापस छिन लिया होता, लेकिन पंडित नेहरू ने एक तरफा युद्ध विराम की घोषणा करके इस पर पानी फेर दिया। पाकिस्तान के आक्रमण के लोगों को जनमत का भरोसा भी दिया था। नतीजा क्या हुआ? 


पाकिस्तान के पास आज भी हमारे कश्मीर का लगभग 1/3 हिस्सा अधिकृत कश्मीर (पी.ओ.के.) के रूप में है। पी.ओ.के. के अंतर्गत मीरपुर, पुंछ, कोटली, झांगर, नौशेरा और लगभग बारामूला तक का भाग आता है। बारामूला को अंतिम समय में बचा लिया गया था। यदि हमने एक सच्चा युद्ध लड़ा होता तो, सिवाय उन हत्याओं के जो भारतीय सेना के युद्ध क्षेत्र में पहुंचने से पहले की गई थी (21 अक्तूबर से 27 अक्तूबर 1947 के मध्य) तो आज पी.ओ.के. होता ही नहीं। 


वहां हिंदुओं का बड़े पैमाने पर कत्लेआम किया गया, सिखों और ईसाइयों को तो पूरी तरह नष्ट कर दिया गया, कन्याओं, महिलाओं के साथ हुई ज्यादतियों को बयां नहीं किया जा सकता, उनमें से बहुत सी औरतों ने झेलम व किशनगंगा में डूबकर आत्महत्या कर ली। पाकिस्तान की मीरपुर, कोटली, भीमवेर, मुज्जफराबाद क्षेत्र में, गिलगिट और बालटिस्तान शहरों में हुई ज्यादतियां और क्रूरता इतिहास में काली स्वतंत्रता के नाम से हमेशा याद रखी जाएगी और उसका दोष इस गलत और भयावह बंटवारे को जाएगा जो कि पंडित नेहरू की वजह से हुआ था। ये भयावह कहानियां हमारे रोंगटे खड़े करने व सिर शर्म और अपमान से नीचा करने के लिए काफी है।


भारतीय संविधान द्वारा जम्मू-कश्मीर को दिए गए विशेषाधिकारों के मद्देनजर यहां उसके अपने संविधान पर भी गौर कर लेना अप्रासंगिक नहीं होगा, क्योंकि उसकी संविधान सभा द्वारा उक्त विलय की पुष्टि हो चुकी है, जिसका निर्वाचन भी वहां की जनता ने किया था। जम्मू एवं कश्मीर की सरकार से ही परामर्श करके केन्द्र सरकार ने संविधान आदेश निकाला था। सन्‌ 1954 में इसे रद्द करके पुनः निकाला गया। फिर सन्‌ 1955, 1956, 1963 और 1965 में इसमें संशोधन किए गए। 


इनके आधार पर जम्मू-कश्मीर को भारत के अधिक निकट लाने का प्रयास किया गया। 1994 में भारत की संसद में पारित सर्वसम्मत प्रस्ताव में निहित है कि पाकिस्तान अधिकृत कश्मीर भारत का अभिन्न अंग है। भारत इस बात के लिए प्रतिबद्ध है कि जम्मू-कश्मीर का वह हिस्सा भारत में बहाल किया जाए। जम्मू-कश्मीर को पंथ निरपेक्षता, साम्प्रदायिक सद्‌भाव, समरसता और राष्ट्रीय एकता का प्रतीक ही नहीं, एकात्मकता की आधारभूमि अवश्य बना था किंतु इस्लामी आक्रमण के सांसारिक एवं सामाजिक एकरसता से इसका कोई लेना-देना नहीं है। 


यदि वहां साम्प्रदायिक अर्थात्‌ हिंदू द्वेष नहीं होता तो हिंन्दुओं की रक्षा करने के लिए नवें गुरू तेग बहादुर को अपना शीश न काटना पड़ता। 1947 में भारत विभाजन के समय पाकिस्तान के पंजाब प्रांत एवं अन्य स्थानों से हजारों की संख्‍या में भारत आ रहे हिंदुओं को शेख अब्दुला ने विशेष आग्रह के साथ जम्मू एवं सीमा पर खाली पड़े क्षेत्र में बसाया और पट्‌टे पर जमीन भी दी, लेकिन अनुच्छेद 370 लागू होने  के बाद से जम्मू-कश्मीर में बसाए गए इन हिंदू शरणार्थियों की नागरिकता के साथ-साथ सभी मौलिक एवं मानवीय अधिकार समाप्त हो गए। ये लोग वहां जमीन नहीं खरीद सकते, घर नहीं बना सकते। लोकसभा चुनाव में मतदान कर सकते हैं। यानि भारत के नागरिक हैं किंतु जम्मू-कश्मीर विधानसभा का वोट नहीं डाल सकते जिससे राज्य का नागरिक होने का अधिकार एवं अन्य सभी सुविधाओं से ये लोग अभी भी वंचित हैं। इन हिंदू शरणार्थियों के बच्चे शासकीय विद्यालयों, महाविद्यालयों, विश्वविद्यालयों एवं चिकित्सा-इंजीनियरिंग कालेजों में अध्ययन नहीं कर सकते। राज्य की शासकीय सेवा में भी इन्हें नहीं लिया जाता।

 

इन्हें सरकार की योजनाओं का लाभ उपलब्ध कराना तो दूर, शरणार्थी सहायता भी नहीं दी जाती है। परिणामस्वरूप इन हिंदू शरणार्थियों को देशभक्त एवं हिंदू होने की कीमत उपेक्षित, दयनीय और नारकीय जीवन जीकर चुकानी पड़ रही है। पंडित नेहरू की मुस्लिम तुष्टिकरण की नीति के कारण जम्मू-कश्मीर को भारत से सदा अलग रखने का जो अपराध संविधान में व्यवस्था बनाकर किया गया उसके जहरीले फल अब प्राप्त हो रहे हैं।


भारतीय नागरिकों को जम्मू-कश्मीर में जमीन-जायजाद खरीदने, घर बनाने से वंचित रखने और वहां 70 वर्षों से रह रहे हिंदू शरणार्थियों को कोई भी अधिकार, सुविधाएं न दिए जाने का असंवैधानिक कार्य क्यों किया जा रहा है? एक ही देश में दो संविधान क्यों लागू है? क्या ये राष्ट्रीय एकता एकात्मकता किसी संप्रदाय विशेष की इच्छा अनिच्छा या पसंद-नापसंद पर टिकी होती है? यदि कश्मीर घाटी और उस राज्य के समस्त निवासी मन तथा प्राण से भारत राष्ट्र के प्रति समर्पित है तो संविधान में अनुच्छेद 370 क्यों जोड़ना पड़ा? शेष देश के निवासियों का पेट काटकर उन्हें सस्ता राशन और विशेष केन्द्रीय सहायता क्यों दी जाती है? यदि वहां देवबंद, बरेलवी एवं देश के अन्य क्षेत्रों के मुल्ला-मौलवी मदरसा और मस्जिद बना सकते हैं, वहां घर बनाकर स्थाई रूप से रह सकते हैं और वहां की नागरिकता एवं अन्य सभी अधिकार मिल जाते हैं तो भारतीय नागरिकों तथा हिंदू शरणार्थियों को क्यों नहीं? देश के प्रथम नागरिक महामहिम राष्ट्रपति को भी वहां भूमि प्राप्त करने और स्थाई रूप से बसने का अधिकार नहीं है।


कश्मीर का कोई भी व्यक्ति भारतीय संसद का सदस्य और केन्द्र सरकार में मंत्री बन सकता है किंतु कश्मीर के बाहर का कोई भी देशवासी न वहां चुनाव लड़ सकता और न ही उसे विधायक और मंत्री बनने का अधिकार है। कश्मीर विधानसभा की स्वीकृति के बिना संसद द्वारा पारित कोई विधेयक या कानून जम्मू-कश्मीर पर लागू नहीं हो सकता। कश्मीर का अपना अलग संविधान क्यों है? एक ही देश में दो प्रकार के नागरिक अधिकारों का होना राष्ट्रीय एकता एवं अखंडता के लिए शुभ संकेत नहीं है। एक विशेष षड़यंत्र के तहत योजनाबद्ध ढंग से कश्मीर घाटी में हजारों वर्षों से रह रहे लाखों हिंदुओं को वहां से भागने के लिए मजबूर किया गया, संपत्ति लूटकर उनकी जमीन जायदाद पर कब्जा कर लिया गया।

 

जम्मू-कश्मीर में देश भक्ति गुनाह है। मानवाधिकारवादियों को अपने ही देश में विस्थापित बना दिए गए लाखों कश्मीरी पंडितों और हिंदू शरणार्थियों की दुर्दशा दिखाई नहीं देती जिनका सब कुछ छीन लिया गया। हाल ही में कश्मीर में आतंकवादी बुरहान वानि की सुरक्षा बलों के साथ मुठभेड़ में मृत्यु के बाद कश्मीर में पत्थरबाजों की भीड़ द्वारा लगातार आतंकवादियों को संरक्षण तथा सुरक्षाबलों पर हमला किया जाने के कारण लंबे समय से कर्फ्यू लागू होने से रोजमर्रा का जन-जीवन ठप्प है। कश्मीर के पूर्व मुखयमंत्री फारूख अब्दुला एवं पी.डी.पी. के कई नेता खुले तौर पर पत्थरबाजों को राष्ट्रभक्त बताकर इनके समर्थन में खड़े हैं। 


जम्मू- कश्मीर में सत्तारूढ़ भाजपा एवं पी.डी.पी. गठबंधन भी विस्थापित कश्मीरी पंडितों की पुनः घर वापसी के लिए प्रयासरत होने के 3 वर्ष बाद भी उनकी वापसी संभव नहीं हो सकी है तो कहीं न कहीं उनकी नीयत पर शक अवश्य पैदा होता है। कश्मीर में आई बाढ़ से प्रभावित जन- जीवन को वापस पटरी पर लाने के लिए प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने दिल खोलकर बाढ़ प्रभावित क्षेत्रों में राहत पहुंचाने के लिए बड़ा आर्थिक पैकेज भी दिया और देश के सुरक्षाबलों ने अपनी जान जोखिम में डालकर प्रभावित लोगों को बचाने के लिए जो प्रयास किए जो वाकई सराहनीय है। लेकिन यह सब वहां के अलगाववादी नेताओं और क्षेत्रीय दलों को मंजूर नहीं है। वे अपने निजी स्वार्थों की पूर्ति के लिए वहां के स्थानीय लोगों को सुरक्षाबलों के खिलाफ भड़काते रहते हैं। वे जानते हैं कि कश्मीर की जनता सुरक्षाबलों एवं भारत सरकार के सराहनीय कार्यों से यदि अवगत हो गई तो पाकिस्तान समर्थित आतंकवादी संगठनों और पाकिस्तानी सरकार के मंसूबों पर पानी फिर जाएगा और कश्मीर में अमन-चैन का फूल खिलने लगेगा। अब वो दिन दूर भी नहीं है।

 

जम्मू-कश्मीर को अनुच्छेद 370 के तहत प्रदत्त विशेष दर्जे के कारण भारतीय संविधान के 130 अनुच्छेद वहां लागू नहीं होते तथा 100 अन्य अनुच्छेद कई महत्वपूर्ण परिवर्तनों के बाद लागू होते हैं। उद्देशिका के समाजवादी, पंथनिरपेक्ष और अखंडता शब्द जम्मू-कश्मीर पर लागू नहीं होते हैं। अनुच्छेद 3 का कोई भी विधेयक जम्मू-कश्मीर राज्य के विधानमंडल की सहमति के बिना संसद में स्थापित नहीं किया जा सकता। संपत्ति का अधिकार जम्मू-कश्मीर में अब भी लागू है। संविधान का भाग 4, 4क, 6, 8 और भाग 10 जो अनुसूचित जाति और जनजाति के लिए है, जम्मू-कश्मीर पर लागू नहीं है। जम्मू-कश्मीर के लिए अवशिष्ट शक्तियां संसद की बजाय राज्य विधानमंडल को प्राप्त है। अनुच्छेद 356 के तहत आपात की स्थिति में पहले राज्यपाल शासन और बाद में राष्ट्रपति शासन का प्रावधान है। अनुच्छेद 360 के तहत वित्तीय आपात का प्रावधान भी जम्मू-कश्मीर पर प्रभावी नहीं है। अनुच्छेद 368 के तहत कोई संशोधन जम्मू-कश्मीर में तभी प्रभावी होगा जब वह राष्ट्रपति के आदेश द्वारा लागू हो। 73वें एवं 74वें संविधान संशोधनों को अभी तक जम्मू-कश्मीर में लागू नहीं किया गया।

 


भारत की कुल राजस्व आय में इस राज्य का योगदान एक प्रतिशत से भी कम है जबकि जम्मू-कश्मीर के कुल खर्चे का 73 प्रतिशत अनुदान भारत सरकार से मिलता है। केन्द्र सरकार राज्यों को जो अनुदान देती है उनका 12 प्रतिशत जम्मू-कश्मीर को जाता है जो विवाद का कारण बना हुआ है। शेख अब्दुला ने अनुच्छेद 370 को ढाल बनाकर अपनी महत्वाकांक्षा को पूरा करने के लिए हमारे देश के साथ विश्वासघात किया और आतंकवादी गतिविधियों को इस क्षेत्र में बढ़ावा दिया। उन्होंने इस बात की भी चिंता नहीं की कि जम्मू व लद्दाख के लोगों का क्या होगा? उनकी रूचि पूरी तरह से सिर्फ कश्मीर पर अपनी सत्ता जमाने और कश्मीर घाटी से हिंदुओं व पंडितों को बाहर खदेड़ने की थी। अनुच्छेद 370 के तहत कश्मीर को देश के शेष राज्यों की तुलना में विशेष स्तर, अवसर और अधिकार प्रदान करके शेष भारत से उसे अलग-थलग रखना क्या एक राष्ट्र और एक राष्ट्रीयता की संकल्पना के अनुरूप है?

 

आज हम अपनी स्वतंत्रता के 71वें वर्ष में प्रवेश कर रहे हैं और भारतीय संविधान अपनाने और कार्यान्वित करने के बाद का यह 68वां वर्ष है। भारतीय संविधान में अनुच्छेद 370 को शामिल किया जाना नेहरू काल का हादसा था। जम्मू-कश्मीर सहित भारत के लोगों को शांतचित होकर सोचना होगा और यथार्थ में निर्णय करना होगा कि क्या अनुच्छेद 370 से राष्ट्र या राज्य के लोगों का कोई हित हुआ है या क्या इससे राष्ट्रीय एकता को जरा भी मजबूती मिली है? क्या अलग राज्य की स्थिति और पहचान से संबंधित राज्य की समस्याओं का समाधान हो सका है? पिछले 67 वर्षों के अनुभव से पता चलता है कि अनुच्छेद 370 की वजह से आज तक अलग राज्य की स्थिति की मांग ने अलगाववाद को जन्म दिया है।

 

जम्मू-कश्मीर को भारत से अलग रखने के लिए शेख अब्दुला ने धारा 370 को वहां पर लागू करवाया और उन्हें जो पैसा वहां के विकास व लोगों की भलाई के लिए केन्द्र सरकार द्वारा भेजा गया, उन्होंने उसका दुरूपयोग किया। ये पैसा अधिकतर भारत विरोधी प्रचार में इस्तेमाल किया गया और हमारी सरकार दिल्ली में बैठी चुपचाप असहाय होकर ये सब देखती रही। जम्मू-कश्मीर की सभी समस्याओं की जड़ वहां का कुशासन और शेख के अपने लोगों व प्रशासन के लोगों द्वारा जनता से की गई ज्यादतियां।


देश का लोकतंत्र एक नए दौर से गुजर रहा है। लोगों की भागीदारिता और जवाबदेही प्रशासन की चर्चा होती है लेकिन जम्मू-कश्मीर में सूचना का अधिकार आज तक लागू नहीं है। राष्ट्रपति द्वारा 1954 में अनुच्छेद 370 की क्लॉज 1 के सब सेक्शन 1 की शक्ति से  भारतीय संविधान में अनुच्छेद 35 (ए) जोड़ दिया, जो जम्मू-कश्मीर की विधानसभा को स्थाई नागरिकता की परिभाषा निर्धारित करने का अधिकार देता है। जब अनुच्छेद 370 के तहत राष्ट्रपति को कोई विधायी शक्ति प्राप्त नहीं है तो क्या बिना संसदीय प्रक्रिया के और बिना अनुच्छेद 368 की प्रक्रिया के संविधान में कोई नई धारा जोड़ी जा सकती है यह सरासर संसद की विधायी शक्ति का अतिक्रमण है। इस अनुच्छेद 35(ए) के तहत जम्मू-कश्मीर की संविधान सभा ने वर्ष 1954 में स्थाई नागरिकता का कानून बनाया, जिसके अनुसार वर्ष 1944 से पूर्व जो जम्मू-कश्मीर के निवासी हैं, उन्हें ही स्थाई नागरिकता का अधिकार होगा।


इसके कारण शेष भारत के लोग स्थाई रूप से वहां निवास नहीं कर सकते, संपत्ति नहीं खरीद सकते, रोजगार नहीं कर सकते। कोई व्यक्ति 35-40 साल तक जम्मू-कश्मीर की सुरक्षा में तो तैनात रह सकता है लेकिन सेवानिवृत्ति के बाद वह वहां पर रह नहीं सकता। यह दुर्भाग्यपूर्ण है कि विभाजन के समय पंजाब के सियालकोट से जो लोग जम्मू-कश्मीर में आए थे, उन्हें वहां कोई अधिकार नहीं। आज ये शरणार्थी संसदीय चुनावों में तो वोट दे सकते हैं लेकिन जम्मू-कश्मीर विधानसभा में वोट का अधिकार नहीं है। यह गंभीर मंथन की बात है कि जहां कोई व्यक्ति देश का नागरिक तो है लेकिन जिस राज्य में 60 साल से रहता है, वहां का स्थाई निवासी नहीं है। स्थाई नागरिकता में यह भी प्रावधान था कि राज्य की किसी लड़की की शादी राज्य से बाहर हो जाए तो उसका राज्य संबंधी अधिकार समाप्त हो जाएगा।


उच्च न्यायालय ने एक याचिका पर लड़की के अधिकार तो सुरक्षित कर लिए, लेकिन उस लड़की के बच्चों को वहां कोई अधिकार नहीं। यदि उस लड़की के पास कोई जायदाद है तो उसकी मृत्यु के बाद वह जायदाद राज्य की हो जाएगी। अगर कोई पुरूष राज्य से बाहर की लड़की से शादी करता है तो वह लड़की भी राज्य की स्थाई निवासी बन जाएगी। आज यासीन मलिक की पत्नी को जो पाकिस्तान की है वह राज्य की स्थाई निवासी है। 

 

फारूख अब्दुला ने ब्रिटिश लड़की से शादी की, वह भी राज्य की स्थाई निवासी बन गई। उमर अब्दुला की पत्नी भी राज्य में स्थाई निवास की हकदार हो गई लेकिन उमर अब्दुला की बहन सारा पायलट ने राज्य से बाहर राजस्थान के सचिन पायलट से शादी के कारण सारा पायलट और उनके बच्चों को राज्य में कोई अधिकार नहीं है। यह देन है अनुच्छेद 370 की। अनुच्छेद 370 एक ऐसी मानसिकता को जन्म देता है कि जम्मू एवं कश्मीर का भारत के साथ 'एक अलग विशेष संबंध' है और वह पूरी तरह से भारत का हिस्सा नहीं है। इससे आतंकवादियों और पाकिस्तान दोनों को संकेत पहुंचाता है कि राज्य के पूर्ण विलय को रोका जा सकता है।

 

अलग स्थिति की मानसिकता आतंकवादियों की करतूत है, जिससे वे कुछ गुमराही लोगों को 'स्वतंत्र राज्य' की मांग करने के लिए उकसाते हैं। संविधान की धारा 370 द्वारा जम्मू- कश्मीर को दिए गए विशेष अधिकार अन्य राज्यों की जनता की आंखों की किरकिरी बने हुए हैं, जिसके कारण इसकी काफी आलोचना भी होती रहती है। देश की एकता एवं अखंडता के संदर्भ में भी यह अनुच्छेद व्याघातक है। जब जम्मू-कश्मीर का विलय अन्य रियासतों की तरह भारत में हो चुका था, तब किसी विशेषाधिकार का क्या औचित्य है? इस प्रकार क्या अन्य राज्यों को भी विशेषाधिकार नहीं दिए जाने चाहिए। 


धारा 370 आज भी निर्विवाद रूप से मौजूद है और किसी में भी इतनी हिम्मत नहीं है कि वो उसे खत्म कर सके, जिसने राज्य की तरक्की, समृद्धि और विकास को रोका हुआ है। बल्कि यह पूरे विश्व को ये संकेत भी देती है मानो कि जम्मू-कश्मीर अभी भी हमारे देश का अभिन्न अंग नहीं है। कहने को ही जम्मू-कश्मीर भारत का अंग है लेकिन वास्तविक धरातल पर उसे एक अलग देश बना दिया। वास्तविक रूप से जम्मू-कश्मीर के भारत में विलय एवं अनुच्छेद 370 का कोई संबंध नहीं है।

 

बल्कि सच्चाई यह है कि यह अनुच्छेद जम्मू-कश्मीर के 120 लाख लोगों में से बहुत छोटे वर्ग के विशेषाधिकारों को सुरक्षित रखने का साधन है। लद्दाख के बौद्ध, जम्मू के हिंदू, शिया मुस्लिम, गुज्जर मुस्लिम आदि कोई भी न तो इसका समर्थन कर रहे हैं और नही उन्हें इससे कोई फायदा हुआ है। केवल कश्मीर घाटी के सुन्नी मुस्लिम जो राज्य की जनसंख्‍या का 12 प्रतिशत है, वे ही इसके पक्ष में हैं।


इस अस्थाई और संक्रमणकालीन प्रावधान को राष्ट्र हित में समाप्त करने के लिए संसद में कई बार बहस हुई, लेकिन चंद राजनैतिक दलों के नेताओं ने अपने निजी स्वार्थ की पूर्ति के लिए इसे आज तक समाप्त नहीं होने दिया। आज फिर इस बात पर बहस की आवश्यकता है कि एक पूर्णतया अस्थाई प्रावधान को राष्ट्र हित में समाप्त करना ही यथोचित होगा। वास्तव में अनुच्छेद 370 अलगाववाद का वाहक है अब इस पर पुनर्विचार करने का सही समय है।


अनुच्छेद 370 के खंड (3) में यह उपबंध है कि इस अनुच्छेद के पूर्वगामी उपबंधों में किसी बात के होते हुए भी राष्ट्रपति लोक अधिसूचना द्वारा घोषणा कर सकेगा, कि यह अनुच्छेद  प्रवर्तन में नहीं रहेगा। परंतु राष्ट्रपति द्वारा ऐसी अधिसूचना जारी करने से पहले खंड (2) में निर्दिष्ट उस राज्य की संविधान सभा की सिफारिश आवश्यक होगी। अब संविधान सभा नहीं होने की स्थिति में राष्ट्रपति की शक्ति पर प्रतिबंध नहीं है। वास्तव में 20 पंक्तियों के अनुच्छेद 370 ने देश में न केवल अत्यधिक राजनीतिक विवाद को जन्म दिया, अपितु यह राष्ट्रीय एकीकरण का भी संवेदनशील मुद्दा बन गया है।


आज आवश्यकता है जम्मू-कश्मीर के तथ्यों और सत्यों को सामने लाने की, हमारे पूर्वाग्रहों को दूर करने की और हमें खुले मन से जम्मू-कश्मीर की स्थिति और अनुच्छेद 370 के प्रभावों- परिणामों पर व्यापक बहस को प्रारंभ करनी चाहिए और देश की भाग्य निर्माता भावी पीढ़ी को यह निश्चित करना होगा कि जम्मू-कश्मीर के संबंध में पंडित नेहरू का दृष्टिकोण सही था या डॉ. श्यामा प्रसाद मुखर्जी का दृष्टिकोण। जम्मू-कश्मीर में पिछले दो दशक से अधिक समय से चला आ रहा आतंकवाद खत्म होने का नाम ही नहीं ले रहा है। 


पाकिस्तान वहां सक्रिय आतंकवादियों को न केवल समर्थन दे रहा है बल्कि उन्हें हथियार और आश्रय दोनों उपलब्ध करवा रहा है। कश्मीर में मासूमों का कत्ल कर रहे आतंकवादी, पाकिस्तान में खुले आम भारत विरोधी नारे लगाते रहते हैं और पाकिस्तानी हुकूमत उन्हें मौलवी और धार्मिक नेता करार देकर कश्मीर में बवाल फैलाने के लिए उकसाते रहते हैं। ये सभी भारत के खिलाफ चल रही पाकिस्तान की व्यापक मुहिम का हिस्सा हैं। फिलहाल सही होगा कि इस समस्या से निपटने के रास्तों पर विचार किया जाए और कश्मीर में शांति बहाली एवं पाकिस्तानी मंसूबों पर पानी फेरने के लिए केन्द्र सरकार को सुरक्षाबलों के साथ मिलकर एक सशक्त कार्य योजना बनाकर उसे कार्यान्वित किया जाए।


पाक अधिकृत कश्मीर में चल रहे आतंकी प्रशिक्षण शिविरों को ध्वस्त करने के लिए कई बार सर्जिकल स्ट्राइक करने की जरूरत है। ताकि उन आतंकी शिविरों को ध्वस्त करके उनमें एक खौफ का माहौल पैदा किया जाए। निष्कर्ष रूप से यह कहा जा सकता है कि जम्मू एवं कश्मीर से संबंधित समस्याओं का समाधान विशेष उपबंध अनुच्छेद 370 के तहत विशेष प्रावधान से नहीं हो सकता है बल्कि इनका समाधान तभी हो सकता है, जब यहां शांति और अमन हो, आतंकवाद समाप्त हो, क्षेत्रीय विषमता का अंत हो, शरणार्थियों को नागरिक अधिकार प्राप्त हो, विस्थापित कश्मीरी पंडितों का घाटी में पुनर्वास हो और ऐसी फिजा तैयार हो जिसमें स्थानीय और बाहरि दोनों हों तथा विदेशी निवेशकों को सुख-चैन का आभास हो कि जम्मू-कश्मीर निवेश तथा आर्थिक विकास के लिए स्वर्ग है।
 

मेरा मानना है कि अनुच्छेद 370 को राष्ट्र हित में समाप्त किया जाए। पूरे देश के लोगों को राष्ट्रीय अखंडता में रूचि का अधिकार है, वे स्थाई रूप से कहीं भी निवास कर सकते हैं और भारत के किसी भी क्षेत्र में समान अधिकार प्राप्त कर सकते हैं। एक स्वतंत्र सेक्युलर लोकतंत्र में धारा 370 का कोई स्थान नहीं होना चाहिए। यह अस्थाई व्यवस्था थी। भारतीय खासकर हिंदू ज्यादा ही सहिष्णु हैं। हमारी सहिष्णुता को कायरता नहीं समझा जाना चाहिए।

(डॉ. लाखा राम)
 

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