यह मंजर भी गुजर जाएगा, पर हम सीखेंगे कब

Edited By ,Updated: 21 Apr, 2021 04:42 AM

this scene will also pass but we will learn when

पिछले कुछ दिनों से जब किसी जानने वाले का फोन आता है तो डर लगने लगता है। न जाने कौन-सी मनहूस खबर आ जाए। इतना डर, इतना खौफ पहले कभी नहीं देखा । हर तरफ मायूसी और उदासी। बेबसी और विविशता का आलम यह है कि न किसी से कुछ कहते बनता...

पिछले कुछ दिनों से जब किसी जानने वाले का फोन आता है तो डर लगने लगता है। न जाने कौन-सी मनहूस खबर आ जाए। इतना डर, इतना खौफ पहले कभी नहीं देखा । हर तरफ मायूसी और उदासी। बेबसी और विविशता का आलम यह है कि न किसी से कुछ कहते बनता है और न ही यह यकीन होता है कि कुछ कहने से कुछ हो पाएगा। 

ये हालात बने क्यों? पिछले साल जब जनवरी-फरवरी में कोरोना फैला था, तभी से विशेषज्ञ कह रहे थे कि कोरोना की दूसरी लहर आएगी। दूसरी लहर पहले से अधिक खतरनाक होगी। दूसरी के बाद तीसरी और चौथी लहर भी आएगी। जब 24 मार्च को रात 8 बजे लाकडाऊन का ऐलान प्रधानमंत्री ने किया था तब भी डर और दहशत का ऐसा ही मंजर था। लोग घरों में दुबके थे। एक पूरी पीढ़ी पहली बार महामारी को देख रही थी। पूरी दुनिया ही इस हादसे से दो-चार हो रही थी। इटली हो या स्पेन या फिर जर्मनी और अमरीका, हालात हर जगह खराब थे। भारत तो एक पिछड़ा हुआ मुल्क था, स्वास्थ्य व्यवस्था की हालत बहुत खऱाब थी, ऐसे में लाकडाऊन एक मात्र सहारा था। 

लाकडाऊन समस्या का समाधान नहीं है, ये हमें तब भी विशेषज्ञों ने बताया था। बस कोरोना को रोकने का एक अंकुश है, लाकडाऊन के बहाने स्वास्थ्य तंत्र को चुस्त करने का। पहले से बहुत बेहतर करने का। पर हुआ क्या?  पिछले एक साल में जिन सरकारों पर जि़म्मेदारी थी उन्होंने किया क्या? क्या मार्च 2020 से अब तक अस्पतालों की संख्या बढ़ी, अस्पतालों में कोरोना बैड बढ़े, डाक्टर-नर्स बढ़े, ऑक्सीजन की सप्लाई बढ़ाई गई, आई.सी.यू. के इंतजाम हुए कि किसी आपातकाल से निपटा जाए, वैंटीलेटर खरीदे गए, एम्बुलैंस की रफ्तार बढ़ी, कोरोना की दवाओं की आमद में इजाफा हुआ, और वैक्सीन लगाने में तेजी दिखाई गई? इन सबका जवाब एक ही है। नहीं। 

सितंबर के बाद से कोरोना की संख्या में जैसे-जैसे कमी आती गई, यह मान लिया गया कि कोरोना खत्म हो गया। जिंदगी पुराने ढर्रे पर चलने लगी। लोगों ने मास्क लगाना बंद कर दिया। सड़कों, बाजारों, हाट, मॉल्स में भीड़ बढऩे लगी। सोशल डिस्टैंसिंग को धत्ता बता दिया गया। लोग लापरवाह हो गए क्योंकि जिन्हें सबको टाइट करना था वो खुद चुनाव जीतने में लग गए। लोग मरें तो मरें, उनकी बला से। चुनाव करवाना, रैली करना, रोड शो करना जरूरी हो गया। 

एकाध नेता को छोड़ दें तो किसी ने कोरोना प्रोटोकॉल का पालन नहीं किया। यहां तक कि देश के प्रधानमंत्री और गृहमंत्री तक ने यह जहमत नहीं उठाई कि चुनावी सभाओं में शिरकत करते समय मास्क लगाएं, रैलियों में सोशल डिस्टैंसिग का पालन करवाएं। रोड शो और रैलियों में भीड़ इकट्ठा करना सबसे जरूरी काम हो गया। लोग बिना मास्क लगाए, एक-दूसरे से सटे बैठे और चलते दिखाई दिए। किसी नेता ने नहीं कहा कि नियमों का पालन हो। और जब देश के गृहमंत्री से सवाल पूछा गया कि रैलियों से कोरोना नहीं बढ़ेगा तो अमित शाह ने जवाब दिया यह आरोप गलत है। महाराष्ट्र में सबसे ज्यादा कोरोना फैला, वहां तो कोई चुनाव नहीं था। इस तर्क का कोई जवाब नहीं हो सकता। क्या अमित शाह को यह नहीं पता है कि कोरोना प्रोटोकॉल के तहत मास्क लगाना, सोशल डिस्टैंसिंग करना अनिवार्य है? लेकिन अपनी गलती वो क्यों मानें? 

चुनाव आयोग की यह जिम्मेदारी है कि वह नेताओं, पार्टियों से कोरोना प्रोटोकॉल को लागू करवाए, लेकिन क्या आपने देखा कि उसने कोई कदम उठाया? वह हाथ पर हाथ धरे बैठा रहा। प्रतिदिन दो लाख कोरोना केस आने लगे, फिर भी वह चुप तमाशा देखता रहा। कोलकाता हाईकोर्ट को दखल देना पड़ा। तब भी सिर्फ सर्वदलीय बैठक हुई। आयोग की जिम्मेदारी थी कोरोना प्रोटोकॉल को लागू करवाना। 

चुनाव आयोग को यह नहीं पता था कि जितना लंबा चुनाव खिंचेगा, उतना ही कोरोना का ख़तरा बढ़ेगा? तमिलनाडु, केरल, पुडुचेरी के साथ और असम-बंगाल के एक-एक चरण के चुनाव हो सकते हैं पर बंगाल के चुनाव को आठ चरणों में करवाया जाता है। असम में 126 सीटें हैं पर तीन चरणों में मतदान हुआ। बिना किसी कारण के। किसके इशारे पर? इन दोनों राज्यों में बीजेपी की किस्मत दांव पर लगी है। 

ऐसे में ये सवाल क्यों न उठे कि बीजेपी को लाभ पहुंचाने के लिए उसने एक दिन की जगह चरणों में चुनाव करवाए। सवाल यह उठता है कि आम आदमी की जान बड़ी है या चुनाव? क्या ये चुनाव टाले नहीं जा सकते थे? और अगर संवैधानिक रूप से करवाना जरूरी था तो वर्चुअल रैलियां करवाई जातीं? अगर प्रचार का तरीका सभी दलों और उम्मीदवारों के लिए एक समान होता यानी लैवल-प्लेइंग-फील्ड सबके लिए समान होता तो किसी को आपत्ति क्यों होती। शायद यह देश अभिशप्त है। जिन पर कोरोना फैलाने के लिए आपराधिक मुकद्दमा दर्ज होना चाहिए, हम भारतीय उनपर फूल बरसाते हैं। 

हम यह सवाल नहीं पूछते कि पिछले एक साल में कोरोना से निपटने के लिए क्या कदम उठाए गए? हम यह नहीं पूछते कि जब 162 ऑक्सीजन के प्लांट लगाना तय हो गया तो फिर आठ महीने तक सरकार ने आर्डर क्यों नहीं दिया? यह किस मंत्री और अफसर की गलती है? अभी तक बस 32 ऑक्सीजन प्लांट ही बन पाए हैं। 47 मई के अंत तक बन जाएंगे, ऐसा सरकार का दावा है। बाकी के कब तक बनेंगे किसी को नहीं मालूम है। कोरोना की दूसरी लहर में ज्यादातर लोगों की मौत ऑक्सीजन की कमी से हो रही है। अगर 162 ऑक्सीजन प्लांट बन गए होते तो ये मौतें नहीं होतीं। क्यों न उन मंत्रियों और अफसरों के खिलाफ हत्या का मुकद्दमा दर्ज हो जिनकी वजह से अब तक प्लांट नहीं बने? 

क्या ये सवाल नहीं पूछेंगे कि जिस देश की आबादी 135 करोड़ है, हर शख्स को वैक्सीन देनी है, तो 6 करोड़ वैक्सीन निर्यात क्यों किए गए? दो हफ्ते पहले तक रेमेडिसिविर दवा का एक्सपोर्ट क्यों होता रहा ? और आज जब देश में वैक्सीन की कमी है, रेमेडिसिविर की कालाबाज़ारी हो रही है तो कौन जिम्मेदार है? ये वही लोग हैं जो पिछले साल 26 मार्च तक वैंटीलेटर के पुर्जों का निर्यात होने दे रहे थे। तब तक देश में लाकडाऊन लग चुका था और लोग शहरों को छोड़ पलायन करने लगे थे। 

आज भी वही वी के पाल कोरोना टास्क फोर्स के चेयरमैन हैं जिन्होंने 22 अप्रैल 2020 को प्रैस कांफ्रैंस कर कहा था कि 16 मई से देश में कोरोना का एक भी नया केस नहीं आएगा और अजीब इत्तेफाक देखिए कि 16 मई से ही कोरोना के मामलों में उछाल दिखा जो सितंबर महीने में 97 हजार तक जा पंहुचा। आज यह आंकड़ा पौने तीन लाख के आसपास है। क्या पाल को अपने पद पर बने रहने का हक़ है ? प्रधानमंत्री तो तब बनारस में कह रहे थे कि महाभारत जीतने में 18 दिन लगे थे, हमें 21 दिन दे दो । कोई उनसे पूछेगा और कितने 21 दिन चाहिएं? 

शायद इस देश की जनता को ऐसे ही शासक चाहिएं। जो जाति के नाम पर, धर्म के नाम पर बरगलाते रहें और अपना उल्लू सीधा करते रहें। जो जनता यह सवाल नहीं पूछती कि पिछले पांच सालों में कितने रोजगार दिए गए, कितनों की गरीबी दूर हुई, कितने नए स्कूल खोले गए, कितने अस्पताल बने, सड़कें  बनीं, तरक्की के नए अवसर पैदा हुए, गरीबों को रहने के मकान बने, तन पर नए कपड़े आए या नहीं, जो लाकडाऊन के बाद सैंकड़ों किलोमीटर पैदल चलने के बाद भी उन्हीं को वोट देती है, जिनकी वजह से वो उजड़े तो फिर उम्मीद कहां दिखती है। हमें पूरा यक़ीन है कि ये मंजर भी गुजर जाएगा। कुछ दिन रो धो कर फिर जिंदगी ढर्रे पर चलने लगेगी। कोरोना को भूलकर जाति और धर्म के बुनियादी सवालों पर हम फिर लौट आएंगे। धर्म के आधार पर एक दूसरे से फिर नफरत करने लगेंगे। पर कुछ सीखेंगे भी या नहीं।-आशुतोष
 

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