‘नानक शाह फकीर’ फिल्म पर विवाद क्यों

Edited By Pardeep,Updated: 09 Apr, 2018 03:30 AM

why controversy over nanak shah fakir movie

सिख धर्म के संस्थापक परम पूज्य गुरु नानक देव जी के जीवन व शिक्षाओं पर आधारित फिल्म ‘नानक शाह फकीर’ काफी विवादों में है। सुना है कि शिरोमणि गुरुद्वारा प्रबंधक कमेटी और कुछ सिख नेता इसे रिलीज नहीं होने देना चाहते। उनका कहना है कि गुरु नानक जी पर फिल्म...

सिख धर्म के संस्थापक परम पूज्य गुरु नानक देव जी के जीवन व शिक्षाओं पर आधारित फिल्म ‘नानक शाह फकीर’ काफी विवादों में है। सुना है कि शिरोमणि गुरुद्वारा प्रबंधक कमेटी और कुछ सिख नेता इसे रिलीज नहीं होने देना चाहते। उनका कहना है कि गुरु नानक जी पर फिल्म नहीं बनाई जा सकती क्योंकि उनका किरदार कोई मनुष्य नहीं निभा सकता। उनकी और बाकी गुरुओं की सारी शिक्षा गुरु ग्रंथ साहिब में संग्रहित है। गुरु गोबिंद सिंह जी ने हुक्म दिया था, ‘‘गुरु मान्यो ग्रंथ’’। इसी भाव से हर गुरुद्वारे में ग्रंथ साहिब की सेवा-अर्चना की जाती है। अक्सर ही ऐतिहासिक फिल्मों पर विवाद होते रहते हैं। 

ताजा उदाहरण ‘पद्मावत’ का है। इसमें राजपूतों की प्रतिष्ठा धूमिल करने का आरोप लगाकर राजपूत समाज ने काफी लम्बा विवाद खड़ा किया। राजपूत समाज के हस्तक्षेप के बाद फिल्म के निर्माता संजय लीला भंसाली ने फिल्म के कुछ दृश्यों या कुछ डायलाग्स को व फिल्म का नाम भी बदला। अंत में जब फिल्म सामने आई तो उसमें कहीं भी ऐसा कोई दृश्य नहीं था जिससे राजपूत समाज को ठेस लगती। बाद में कर्णी सेना और अन्य विरोध करने वालों ने भी यही अनुभव किया। यह विवाद दूसरा है कि पद्मावती का चरित्र ऐतिहासिक था या मलिक मोहम्मद जायसी की कल्पना, जो बिना ऐतिहासिक प्रमाणों के सही या गलत नहीं ठहराया जा सकता लेकिन यह सत्य है कि इस कथा को संजय लीला भंसाली ने बहुत प्रभावशाली ढंग से प्रस्तुत किया। 

इससे पहले 80 के दशक में इंगलैंड के फिल्म निर्माता रिचर्ड ऐटन बरो ने महात्मा गांधी पर जब फिल्म बनाई तो गांधीवादियों ने कड़ा विरोध किया था। प्रदर्शन किए, हस्ताक्षर अभियान चलाए व प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी को ज्ञापन दिए। उनका कहना था कि एक अंग्रेज महात्मा गांधी पर फिल्म कैसे बना सकता है जबकि अंग्रेजों के अत्याचारों के विरुद्ध ही तो महात्मा गांधी का राजनीतिक जीवन शुरू हुआ था और अंग्रेजों को जाना पड़ा। 190 साल तक उन्होंने भारत को लूटा और अत्याचार किए इसलिए एक अंग्रेज को यह नैतिक अधिकार कैसे मिल सकता है कि वह महात्मा गांधी पर फिल्म बनाए। इन तमाम विवादों के बावजूद फिल्म बनी। रिचर्ड ऐटन बरो ने एक बेहतरीन फिल्म बनाई, जो पूरे विश्व में सराही गई। सबसे बड़ी बात यह थी कि गांधी को उस वक्त की पीढ़ी लगभग भूल चुकी थी। उनके लिए गांधी एक प्रतीक थे। 2 अक्तूबर  को उनके जन्म और 30 जनवरी को श्रद्धांजलि तक उनकी याद सीमित थी। 

गांधी का जीवन व उनकी सोच क्या थी? किस तरह उन्होंने सीमित संसाधनों में इतने बड़े साम्राज्य को चुनौती दी। इस सबके बारे में  व्यापक स्तर पर भारतीय समाज को कोई समझ नहीं थी। विदेशी समाज को तो बिल्कुल ही नहीं थी। ठीक वैसे ही जैसे आम भारतीयों को माॢटन लूथर किंग के बारे में कितना पता है? पर गांधी फिल्म ने गांधी जी को पूरे विश्व में पुनस्र्थापित किया। न सिर्फ गांधी जी के जीवन के प्रति बल्कि उनकी विचारधारा के प्रति पूरी दुनिया में एक अजीब आकर्षण पैदा हुआ, जिसका परिणाम हुआ कि पूरी दुनिया से जिज्ञासु गांधी को समझने भारत आने लगे। गांधी और उनके विचार पुन: दुनिया के पटल पर चर्चा का विषय बन गए। एक पूरी पीढ़ी ने गांधी के जीवन को समझा। उनके लिखे प्रकाशित ग्रंथों की मांग बढ़ी। इस तरह रिचर्ड ऐटन बरो ने विरोध सहकर भी गांधी जी की महान सेवा की। 

मौजूदा संदर्भ में यही बात ‘नानक शाह फकीर’ के बारे में भी कही जा सकती है। इसको बनाने का जुनून हरिंद्र सिक्का नाम के उस व्यक्ति का है, जो पेशे से फिल्मकार नहीं हैं बल्कि पीरामल समूह के कम्युनिकेशन डायरैक्टर हैं। जाहिरन इस फिल्म से उनका उद्देश्य पैसा कमाना नहीं बल्कि सिख पंथ की सेवा करना है। इस फिल्म को बनाने की सिक्का को बहुत दिनों से लगन थी। फिल्म को बने हुए भी काफी समय हो गया है। मैंने अभी फिल्म देखी नहीं है। जिन्होंने देखी होगी वे ही इस पर प्रकाश डाल सकते हैं, पर इतना मैं जरूर कहूंगा कि अगर कोई सिख धर्म का अनुयायी अपनी श्रद्धा के पात्र गुरु नानक देव जी के जीवन पर फिल्म बनाने का जुनून लेकर बैठा हो, तो उससे यह अपेक्षा करना कि वह उनके चरित्र को आहत कर देगा या उनके बारे में कुछ ऐसा दिखा देगा जिससे सिख धर्म की भावनाओं को ठेस पहुंचे, यह संभव नहीं है। 

गलती हर इंसान से हो सकती है, समझ की कमी हो सकती है और फिल्म बनाने के अनुभव में भी कमी हो सकती है, पर सिक्का की भावनाओं पर संशय नहीं किया जा सकता। जब अंदर से कोई दैवीय प्रेरणा होती है, तभी व्यक्ति ऐसे कार्यों में आगे बढ़ता है। हो सकता है कि ‘नानक शाह फकीर’ इतनी खराब बनी हो कि दर्शक फिल्म को पसंद ही न करें। तब जैसे सैंकड़ों फिल्में डिब्बे में बंद हो जाती हैं यह फिल्म भी हो जाएगी। पर यह भी हो सकता है कि यह फिल्म गुरु नानक देव की शिक्षा और जीवन पर प्रकाश डालने वाली हो। वही फिल्मकार की सफलता का मापदंड माना जाएगा। वही उसके कठिन प्रयास का पारितोषक होगा। अगर ऐसा हुआ तो न सिर्फ  सिख युवा पीढ़ी को गुरु नानक देव का परिचय भली-भांति मिलेगा, बल्कि भारत में जो सिख धर्म के अनुयायी नहीं हैं, चाहे वे हिन्दू हों, मुसलमान हों, ईसाई हों, नास्तिक हों या फिर दूसरे देशों के रहने वाले लोग हों, उन सबको गुरु नानक जी के चरित्र और शिक्षाओं के बारे में जानने का मौका मिलेगा। 

मैं मानता हूं कि अगर गुरुद्वारा प्रबंधक कमेटी ने इस फिल्म को जारी होने का सहयोग प्रमाण पत्र दे दिया है, तो उत्सुकता से इस फिल्म का इंतजार किया जाना चाहिए और अगर इसमें कोई अवरोध आ रहा है, तो उसे इसी पवित्र भावना से दूर करना चाहिए क्योंकि फिल्में 21वीं सदी में संचार का सबसे सशक्त माध्यम हैं। फिल्मों के जरिए जो बात कही जाती है, तो वह समाज में बहुत व्यापक स्तर तक पहुंचती है। सिख धर्म को मानने वाले बहुत समर्पण के साथ अपने धर्म का प्रचार-प्रसार और सेवा करते हैं लेकिन क्या हम यह दावे से कह सकते हैं कि जो बहुत बड़ी तादाद सिख धर्म के न मानने वालों की है उनको गुरु नानक देव के बारे में पूरी जानकारी है। 

ठीक वैसे ही जैसे सिख धर्म के मानने वालों को ईसा मसीह में कितनी रुचि है या इस्लाम मानने वालों को राम और कृष्ण के जीवन में कितनी रुचि है। तो बड़ा समाज जो फिल्म को केवल मनोरंजन के उद्देश्य से देखता है, उसे मनोरंजन के साथ अगर शिक्षा भी मिल जाए तो वह ‘एंटरटेनमैंट’ न होकर ‘इंफोटेनमैंट’ हो जाता है। आदमी जाता तो है सिनेमा मनोरंजन के लिए देखने लेकिन लौटता है ज्ञानी बनकर। महाभारत, रामायण व चाणक्य सीरियल से भारतीय संस्कृति और इन महापुराणों के बारे में पूरी दुनिया में उत्सुकता बढ़ी। नई पीढ़ी को इनके बारे में जानकारी हुई और घर-घर पिताश्री, माताश्री, भ्राताश्री जैसे शब्दों का लोग इस्तेमाल करने लगे। जो कम पढ़े.लिखे लोग थे, उनको भी इन पुराणों की बारीकियों का पता चला। इससे जातीय द्वेष करने वाले गोरों को सिखों और तालिबानों के बीच भेद पता चलेगा। 

अभी लंदन की संसद में पहले सिख सांसद तनमनजीत को कहना पड़ा कि वहां लोग सिखों को तालिबान समझकर उन पर हमला कर रहे हैं। मैं समझता हूं कि हरिन्द्र सिक्का की इस मेहनत को दर्शकों तक जाने देना चाहिए। जो सिख समाज के धार्मिक नेता हैं उनको फिल्म देखकर यदि कोई कमी हो, सुधार कर  इसे मान्यता दे देनी चाहिए ताकि व्यापक विश्व समाज गुरु नानक देव जी के जीवन के बारे में जान सके।-विनीत नारायण

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