Baku ka shiv mandir: बाकू का शिव मंदिर जहां हर पत्थर एक कहानी कहता है

Edited By Prachi Sharma,Updated: 21 Dec, 2023 02:02 PM

baku ka shiv mandir

आस्था और श्रद्धा के साथ अकथनीय यात्रा कष्टों को सहन करते हुए भारतीय बाकू में पहुंचे और उन्होंने यहां पर शिव मंदिर की स्थापना की। बाकू के

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Baku ka shiv mandir: आस्था और श्रद्धा के साथ अकथनीय यात्रा कष्टों को सहन करते हुए भारतीय बाकू में पहुंचे और उन्होंने यहां पर शिव मंदिर की स्थापना की। बाकू के शिव मंदिर की चर्चा करते हुए यह लिखना अनिवार्य है कि यहां पर निकलने वाली ज्वाला का पता सबसे पहले पांचवीं सदी के एक जर्मन को लगा परंतु इसका पहला चित्र जो एक जर्मन कलाकार ने बनाया वह 1683 में बना। यहां ज्योति प्रकट होने का समाचार पाने पर श्रद्धालु भारतीय हजारों मील की यात्रा (अनेक कष्टों से परिपूर्ण) करके यहां पहुंचे तो उस समय दो-तीन ईंट ऊंचे कुंए से ज्वाला निकल रही थी।  उस ज्वाला की नियमित रूप से पूजा करना उन्होंने आरंभ कर दिया और मंदिर का रूप इस स्थान को दे दिया गया। 

Model of benar temple बेनार मंदिर का प्रतिरूप
कहा जाता है कि जेहलम की घाटी में बेनार मंदिर है, बाकू का शिव मंदिर उसी का प्रतिरूप है। बेनार मंदिर की एक तस्वीर भी यहां पड़ी है। यहां यह बात भी उल्लेखनीय है कि जो भारतीय यहां पहुंचे उनमें से अधिकांश लाहौर और मुल्तान के ही रहने वाले थे और आते समय बेनार मंदिर की तस्वीर अपने साथ ही वे ले आए थे। यहां यह लिखना भी अनुपयुक्त नहीं होगा कि क्योंकि यह मंदिर रूसी कारीगरों ने तैयार किया था इसलिए बेनार मंदिर का रूप पूरी तरह से इसे नहीं मिल पाया।

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तीर्थ स्थान
बाकू में शिव मंदिर की गरिमा का अनुमान इसी बात से लगाया जा सकता है कि दिल्ली, लाहौर, मुल्तान, कंधार, मैशाहत और तेहरान आदि होते हुए जो भारतीय 5000 किलोमीटर का मार्ग तय करके यहां पहुंचते थे। उनके मन में इस मंदिर के प्रति वही आस्था और श्रद्धाभाव होता था जो हमारे मन में अपने तीर्थों के प्रति है। यह क्रम निरंतर चलता रहा और यहां आने वाले भारतीय घोड़ों पर तथा पैदल ही यहां नहीं पहुंचे बल्कि उनमें से कुछ घुटने के बल उसी तरह सरकते-सरकते यहां पहुंचे जिस तरह ज्वाला देवी के दर्शनों के लिए ‘ज्वाला जी’ तक कई श्रद्धालु पहुंचते हैं। यहां पहुंचने वाले भारतीयों ने बहुत से चित्र भी बनाए जो आज भी इस मंदिर में सुरक्षित हैं।

इस मंदिर को देखने के लिए 1611 में हॉलैंड का एक नाविक आया। उसके बाद कितने ही कवि, लेखक, वैज्ञानिक तथा व्यापारी आदि इस मंदिर को तथा यहां रहने वाले भारतीयों को देखने आए। यहां आने वालों में फ्रांसिसी और रूसी लोग भी शामिल थे। ये लोग बाकू का शिव मंदिर तो देखना ही चाहते थे परंतु इस मंदिर को बनाने वाले और यहां आकर बस जाने वाले भारतीयों की जीवनचर्या भी उनके लिए आकर्षण का केंद्र बनी हुई थी।

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भारतीय: कब और कितने
आंकड़ों के अनुसार 1683 में 2 भारतीय यहां रहते थे और 1803 में उनकी अधिकतम संख्या 63 थी। 1883 में केवल एक भारतीय यहां बचा। कुछ समय बाद वह भी यहां से चला गया और फिर कोई भारतीय यहां नहीं आया। अत्यंत आश्चर्य की बात है कि जो भारतीय समय-समय पर यहां आए और रहे, वे सब पुरुष ही थे, उनमें स्त्री कोई नहीं थी।

बाकू मंदिर में गुरमुखी शिलालेख शिव मंदिर बाकू से 25 मील की दूरी पर स्थित है। अजरबैजान में सातवीं शताब्दी में इस्लाम का प्रवेश हुआ। उससे पहले जो लोग यहां रहते थे वे अग्नि के पुजारी थे। यहां के रहने वालों ने अनेक छोटे-छोटे मंदिर बना रखे थे परंतु इस्लाम के यहां पहुंचने पर मुसलमानों ने उन्हें धराध्वस्त कर दिया।

हिन्दू 200 वर्ष पहले आए
जो जानकारी मुझे इतिहास व गाइड इजाबेल से मिल सकी उसके अनुसार हिन्दू यहां 200 वर्ष पहले आए और यह मंदिर उन्होंने ही बनाया। यहां के कुछ व्यापारी मित्रों से जब भारतीय व्यापारियों को यह पता चला कि बाकू में भी हिमाचल की ‘ज्वाला जी’ जैसी ज्वाला प्रकट होती है तो उनके हर्ष की सीमा न रही। मार्ग की अनेक कठिनाइयां झेलते हुए वे यहां पहुंचे, जमीन खरीद कर यहां मंदिर का निर्माण कर दिया। इस मंदिर में उन्होंने 26 कमरे बनाए ताकि वे यहां रह भी सकें और पूजा-पाठ आदि भी निर्विघ्न रूप से कर सकें। कहते हैं कि कुछ भारतीय उसी तरह घुटनों के बल रेंगते हुए यहां पहुंचते जैसे ‘ज्वाला जी’ के श्रद्धालु पहुंचते हैं। कुछ लोग मार्ग में ही दम भी तोड़ गए परंतु उन्होंने भी यही इच्छा व्यक्त की कि उनका अंतिम संस्कार बाकू के शिव मंदिर में ही किया जाए। अत: उनके शव यहां लाए गए और मंदिर के बीच ही बने हुए एक स्थान पर उनका अंतिम संस्कार कर दिया गया।

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अगाध आस्था धर्म में
भारत से यहां आने वाले लोग गंगा जल लेकर आते थे और उसी को पीते। इसके अतिरिक्त उनका जीवन बड़ा ही सात्विक और साधनाशील होता था। ये लोग तिलक लगाते और अत्यंत कड़ी साधना तथा तप करते। शिव मंदिर के ये कमरे एकदम भारतीय ढंग के हैं क्योंकि उनकी मेहराब सर्वथा वैसी ही हैं जैसी भारतीय मंदिरों के कमरों में होती हैं। अलग-अलग कमरों पर जो पत्थर लगे हुए हैं उनमें इनके बनाने वालों के नाम तो अंकित हैं ही साथ ही यह भी लिखा है कि वे कब यहां आए कितना पैसा निर्माण में लगाया। ये पत्थर संस्कृत और गुरमुखी भाषा में लिख कर लगाए गए हैं।

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अन्य निर्माण: मंदिर का
मंदिर की दीवारें सफेद हैं। पहले उन पर चूने की पुताई थी परंतु अब पेंट कर दिया गया है। आयताकार कमरों के मध्य की जगह पर फर्श नहीं केवल मिट्टी जमी हुई है परंतु जो अस्तबल (अश्वशाला) यहां बनाया हुआ है उसके फर्श को पक्का कर दिया गया है क्योंकि एक-दो बार ज्वाला वहां फूट पड़ी थी। मंदिर के मुख्य द्वार पर ही एक अतिथिशाला है जहां महत्वपूर्ण व्यक्ति आकर ठहरते थे। एक कमरे में मंदिर है जहां पूजा की व्यवस्था है।

बाकू के शिव मंदिरों की एक-एक ईंट और एक-एक पत्थर भारतीय संस्कृति के इतिहास के अनुपम पृष्ठों को खोलता हुआ प्रतीत होता है।
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