श्रीमद्भगवद्गीता- न्याय के लिए किया युद्ध है उचित

Edited By Updated: 17 Jan, 2021 12:47 PM

bhagavad gita

हे पार्थ! जो व्यक्ति यह जानता है कि आत्मा अविनाशी, अजन्मा, शाश्वत तथा

श्लोक
वेदाविनाशिनं नित्यं य एनमजमव्ययम्।
कथं स पुरुष: पार्थ कं घातयति हन्ति कम्।।
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अनुवाद :
हे पार्थ! जो व्यक्ति यह जानता है कि आत्मा अविनाशी, अजन्मा, शाश्वत तथा अव्यय है, वह भला किसी को कैसे मार सकता है या मरवा सकता है?

तात्पर्य : प्रत्येक वस्तु की समुचित उपयोगिता होती है और जो ज्ञानी होता है वह हमेशा यह बात जानता है कि किसी वस्तु का कहां और कैसे प्रयोग किया जाए। इसी प्रकार ङ्क्षहसा की भी अपनी उपयोगिता है और इसका उपयोग इसे जानने वाले पर निर्भर करता है।
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यद्यपि हत्या करने वाले व्यक्ति को न्याय संहिता के अनुसार प्राणदंड दिया जाता है किन्तु न्यायाधीश को दोषी नहीं ठहराया जा सकता क्योंकि वह न्यायसंहिता के अनुसार ही दूसरे व्यक्ति पर हिंसा किए जाने का आदेश देता है। मनुष्यों के विधि ग्रंथ मनुसंहिता में इसका समर्थन किया गया है कि हत्यारे को प्राणदंड देना चाहिए जिससे उसे अगले जीवन में अपना पाप कर्म भोगना न पड़े। अत: राजा द्वारा हत्यारे को फांसी का दंड एक प्रकार से लाभप्रद है।
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इसी प्रकार जब श्री कृष्ण युद्ध करने का आदेश देते हैं तो यह समझना चाहिए कि यह ङ्क्षहसा परम न्याय के लिए है और इस तरह अर्जुन को इस आदेश का पालन यह समझकर करना चाहिए कि श्री कृष्ण के लिए किया गया युद्ध हिंसा नहीं है क्योंकि मनुष्य या दूसरे शब्दों में आत्मा को मारा नहीं जा सकता। अत: न्याय के लिए तथाकथित हिंसा की अनुमति है। शल्य क्रिया का प्रयोजन रोगी को मारना नहीं अपितु उसको स्वस्थ बनाना है। अत: श्री कृष्ण के आदेश पर अर्जुन द्वारा किया जाने वाला युद्ध जानबूझ कर ज्ञान सहित हो रहा है, उससे पाप फल की संभावना नहीं है। (क्रमश:)

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