एकनाथ षष्ठी: भगवान ने कुछ इस तरह की थी इन संत पर कृपा, जानकर रह जाएंगे ढंग

Edited By ,Updated: 17 Mar, 2017 12:08 PM

eknath shishthi god had some kind of kindness on this saint

कल 18 मार्च को एकनाथ षष्ठी है, जिसे सद्गुणों के भंडार संत एकनाथ जी की स्मृति में हर्षोल्लास के साथ मनाया जाता है। इस पावन अवसर पर डालें उनके जीवन चरित्र पर एक नजर। संत एकनाथ जी का जन्म विक्रमी

कल 18 मार्च को एकनाथ षष्ठी है, जिसे सद्गुणों के भंडार संत एकनाथ जी की स्मृति में हर्षोल्लास के साथ मनाया जाता है। इस पावन अवसर पर डालें उनके जीवन चरित्र पर एक नजर। संत एकनाथ जी का जन्म विक्रमी संवत् 1590 के लगभग पैठण में हुआ था। इनके पिता का नाम श्री सूर्यनारायण तथा माता का नाम रुक्मिणी था। जन्म लेते ही इनके पिता का देहावसान हो गया तथा कुछ समय के बाद इनकी माता जी भी चल बसीं इसलिए इनके पितामह चक्रपाणि के द्वारा इनका लालन-पालन हुआ। एकनाथ जी बचपन से ही बड़े बुद्धिमान थे। रामायण, पुराण, महाभारत आदि का ज्ञान इन्होंने अल्पकाल में ही प्राप्त कर लिया। इनके गुरु का नाम श्री जनार्दन स्वामी था। गुरु कृपा से थोड़ी ही साधना से इन्हें दत्तात्रेय भगवान का दर्शन हुआ। एकनाथ जी ने देखा श्री गुरु ही दत्तात्रेय हैं और श्री दत्तात्रेय ही गुरु हैं। 


उसके बाद इनके गुरुदेव ने इन्हें श्रीकृष्णोपासना की दीक्षा देकर शूलभञ्जन पर्वत पर रह कर तप करने की आज्ञा दी। कठोर तपस्या पूरी करके ये गुरु आश्रम पर लौट आए। तदनन्तर गुरु की आज्ञा से तीर्थयात्रा के लिए निकल पड़े। तीर्थयात्रा पूरी करके श्री एकनाथ जी अपनी जन्मभूमि पैठण लौट आए और दादा-दादी तथा गुरु के आदेश से विधिवत् गृहस्थाश्रम में प्रवेश किया। इनकी धर्मपत्नी का नाम गिरिजा बाई था। वह बड़ी पतिपरायणा और आदर्श गृहिणी थीं।


श्री एकनाथ जी का गृहस्थ जीवन  अत्यंत संयमित था। नित्य कथा-कीर्तन चलता रहता था। कथा-कीर्तन के बाद सभी लोग इन्हीं के यहां भोजन करते थे। अन्न दान और ज्ञान-दान दोनों इनके यहां निरंतर चलता रहता था। इनके परिवार पर भगवत्कृपा की सदैव वर्षा होती रहती थी इसलिए अभाव नामक की कोई चीज नहीं थी।
श्री एकनाथ जी महाराज में अनेक सद्गुण भरे हुए थे। उनकी क्षमा भावना तो अद्भुत थी। वह नित्य गोदावरी स्नान के लिए जाया करते थे। रास्ते में एक सराय थी, वहां एक विधर्मी रहता था। एकनाथ जी जब स्नान करके लौटते तो वह इन पर कुल्ला कर दिया करता। इस कारण इन्हें नित्य चार-पांच बार स्नान करना पड़ता था। एक दिन तो उसने दुष्टता की हद कर दी। उसने एकनाथ जी पर एक सौ आठ बार कुल्ला किया और एकनाथ जी को एक सौ आठ बार स्नान करना पड़ा, पर एकनाथ जी की शांति ज्यों की त्यों बनी रही। 


अंत में उसे अपने कुकृत्य पर पश्चाताप हुआ और वह श्री एकनाथ जी का भक्त बन गया। श्री एकनाथ जी की भूतदया भी अद्भुत थी। एक बार वह प्रयाग से गंगाजल कांवड़ में भर कर श्रीरामेश्वर जा रहे थे। रास्ते में प्यास से छटपटाता हुआ एक गधा मिला, श्री एकनाथ जी ने कांवड़ का सारा गंगाजल गधे को पिला दिया। साथियों के आपत्ति करने पर इन्होंने कहा-‘‘भगवान रामेश्वर कण-कण में निवास करते हैं। उन्होंने गधे के रूप में मुझसे जल मांगा इसलिए मैंने सारा जल रामेश्वर जी को ही चढ़ाया है। गधे के द्वारा पिया हुआ सारा जल सीधे रामेश्वर जी पर चढ़ गया।’’ 


इस प्रकार की अनेक घटनाएं श्री एकनाथ जी के जीवन में हुईं जिससे इनके दिव्य-जीवन की झलकियां मिलती हैं। अपने आदर्श गृहस्थ-जीवन और उपदेशों के द्वारा लोगों को आत्मकल्याण पथ का अनुगामी बनाकर विक्रमी संवत् 1656 की चैत्र कृष्ण षष्ठी को श्री एकनाथ जी ने अपनी देह-लीला का संवरण किया। इनकी रचनाओं में श्रीमद्भागवत एकादश स्कंध की मराठी-टीका, रुक्मिणी-स्वयंवर, भावार्थ-रामायण आदि प्रमुख हैं।

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