यादें 15 अगस्त की: आज भी कौंध रहा आंखों में वह भयानक दृश्य

Edited By Niyati Bhandari,Updated: 15 Aug, 2023 08:23 AM

happy independence day

बात 75-76 वर्ष पुरानी है। कई सौ वर्षों के मुगल और ब्रिटिश शासन से हमारे देश भारतवर्ष की स्वतंत्रता का पहला दिन। राजधानी दिल्ली का एक क्षेत्र दरियागंज। वहां

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Independence Day 2023: बात 75-76 वर्ष पुरानी है। कई सौ वर्षों के मुगल और ब्रिटिश शासन से हमारे देश भारतवर्ष की स्वतंत्रता का पहला दिन। राजधानी दिल्ली का एक क्षेत्र दरियागंज। वहां मेन रोड के साइड वाली लेन का नाम फैज बाजार। उसमें एक जूतों की दुकान, ऊपर 4 नम्बर का मकान जिसमें जयपुर की एक सम्मानित कासलीवाल फैमिली के एक बेटे तोष कासलीवाल सपरिवार रहते थे, जो मेरे जीजा जी थे। वह सदा शुद्ध खादी पहनने वाले कांग्रेसी थे।

उस समय मेरी आयु लगभग 13 वर्ष थी। साथ में छोटा भाई, जिसकी आयु साढ़े 9 वर्ष थी। हमारा घर दक्ष प्रजापति की नगरी कनखल (हरिद्वार) में था। हम दोनों बहन जी के पास 4-5 दिन रहने के लिए आए थे। कनखल लौटना था लेकिन हमें तो अनिश्चित काल के लिए वहीं रुकना पड़ गया क्योंकि स्वतंत्रता मिलने के साथ-साथ राजनीतिक और सामाजिक उथल-पुथल ऐसी हुई कि कहीं भी आना-जाना संभव नहीं रहा। ऐसे में हम दोनों बच्चे क्या करते। 

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बार-बार रोना आ रहा था। मैं अपने छोटे भाई को तरह-तरह की बातों से बहलाती रहती और कह कर समझाती रहती कि 2-3 दिन में बसें चलनी शुरू हो जाएंगी, तब मां के पास चलेंगे। सड़क की तरफ दो बरामदे थे, जिनसे नीचे की सड़क पर आते-जाते लोग और गाड़ियां आदि दिखती रहती थीं। हम दोनों बार-बार वहीं आकर खड़े हो जाते और सड़क की तरफ देख कर मन बहला लेते थे। 

तभी अचानक सड़क पर सन्नाटा-सा होने लगा। साइकिल, रिक्शा, पैदल, गाड़ियां आदि सब बन्द होने लगे। समझ नहीं आया कि क्या हुआ। धीरे-धीरे नीचे का दृश्य बदलने लगा। कुछ पुलिस की गाड़ियां घूम रहीं थीं, कुछ ट्रक निकल रहे थे। हमने तो अब तक ट्रकों में गेहूं, चावल, चीनी आदि के बोरे ही देखे थे क्योंकि आढ़ती लोग यही काम करते थे परंतु यहां तो ट्रकों में कुछ और ही डरावना दृश्य था। 

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एक गाड़ी खराब हो गई तो नीचे खड़ी हो गई। हम दोनों बार-बार आकर देखते कि इसमें क्या है। देखकर आंखें बंद कर लेते, फिर खोलते। कोई तमाशा तो नहीं था, फिर भी देख रहे थे। सब कुछ डरावना और दर्दनाक सा था। कभी ऐसा सोचा भी न होगा। ट्रक में आड़ी-तिरछी एक के ऊपर एक लाशें पड़ी हुई थीं। स्त्री, पुरुष, बच्चों का कुछ पता नहीं था, कोई कपड़े पहने, कोई अर्धनग्न, किसी का हाथ कटा तो किसी का पैर। रक्त की लाली आंखों में खटक रही थी। शायद सब लोग मरे हुए थे या किसी में सांस भी चल रही हो। कई महिलाएं ऐसी भी दिखाई दीं जिनके समूचे शरीर पर कोई वस्त्र नहीं था। वर्षों पहले की वह तस्वीर आज भी मेरी आंखों के सामने ज्यों की त्यों घूम रही है। 

पाकिस्तान का स्वतंत्रता दिवस 14 अगस्त, 1947 को था। सुना था कि वहां उसी समय नरसंहार शुरू हो गया था। वहां से हिन्दुओं ने भागना आरम्भ किया इसलिए बुरी तरह ट्रेनों में अपनों को ठूंस-ठूंस कर लोग भारत की सीमा में पहुंचे। आते-आते भी काफी समय लग गया। सुन्दर लड़कियों और स्त्रियों को लाना कठिन हो गया था। जो स्त्रियां वहां मुसलमानों के घरों में रह गईं, वे फिर उनकी पत्नी बनकर रहती रहीं और अपना जीवन बिता दिया। जो जिसके भाग्य में था उसने वही झेला। कोई नारी गर्भवती, किसी का 2 दिन का बच्चा, कोई बीमार आदि। विकट परिस्थिति हो गई थी। सब लोग अपनी दुकान, मकान, सामान कुछ भी नहीं ला पाए। बस घर में रखा रुपया और सोना ही आ सका।

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शाम के समय गोलियां चलने की आवाजें आने लगीं। हमारे घर के एक तरफ खाली जगह थी, हम सुरक्षित नहीं थे। थोड़ी देर में ही जीजा जी, उनके मित्र और हम सब सामने की बिल्डिंग में एक परिवार के पास पहुंच गए। उनके साथ खाना खाया और रात बिताई। घर के बड़े लोग तो कांग्रेस, गांधी, नेहरू, पटेल, आजादी, सुभाष बोस, मंगल पांडे आदि की ही बातें करते रहे। बच्चे यह सब समझ नहीं पा रहे थे। बस रात हो गई, सबने सोने का प्रयास किया। इस प्रकार मेरी वह शाम बीती। अब तो यही कामना है कि पुरानी बातों की पुनरावृत्ति न हो।      

 —ऊषा गुप्ता

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