Edited By Prachi Sharma,Updated: 21 Oct, 2025 02:01 PM

Inspirational Context: संत राबिया एक धार्मिक पुस्तक पढ़ रही थीं। पुस्तक में एक जगह लिखा था, “बुरे लोगों से घृणा करो, प्रेम नहीं।”
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Inspirational Context: संत राबिया एक धार्मिक पुस्तक पढ़ रही थीं। पुस्तक में एक जगह लिखा था, “बुरे लोगों से घृणा करो, प्रेम नहीं।”
राबिया ने उस वाक्य को काट दिया। कुछ दिन बाद उनसे मिलने एक संत आए। वह उस पुस्तक को पढ़ने लगे। उन्होंने कटा हुआ वाक्य देखकर सोचा कि किसी नासमझ ने उसे काटा होगा। उसे धर्म का ज्ञान नहीं होगा। उन्होंने राबिया को वह पंक्ति दिखाकर कहा कि जिसने भी यह पंक्ति काटी है वह जरूर नास्तिक होगा।
राबिया ने कहा, “इसे तो मैंने ही काटा है।”
संत ने कहा, “तुम इतनी महान संत होकर यह कैसे कह सकती हो कि बुरे आदमी से घृणा मत करो जबकि बुरा आदमी तो इंसान का दुश्मन होता है।” इस पर राबिया ने कहा, “पहले मैं भी यही सोचती थी कि बुरे आदमी से नफरत करो। लेकिन उस समय मैं प्रेम को समझ नहीं सकी थी। लेकिन जब से मैं प्रेम को समझी, तब से बड़ी मुश्किल में पड़ गई हूं कि घृणा किससे करूं। मेरी नजर में घृणा लायक कोई नहीं है।”
संत ने पूछा, “क्या तुम यह कहना चाहती हो कि जो हमसे घृणा करते हैं, हम उनसे प्रेम करें।”
राबिया बोलीं, “प्रेम किया नहीं जाता, यह तो मन के भीतर अपने आप अंकुरित होने वाली भावना है। प्रेम के अंकुरित होने पर मन के अंदर घृणा के लिए कोई स्थान नहीं होगा।
हम सोचते हैं कि हमसे कोई प्रेम नहीं करता परन्तु, यह कोई नहीं सोचता कि प्रेम दूसरों से लेने की चीज नहीं है, यह देने की चीज है। यदि बुरे आदमी से प्रेम करोगे तो वह भी प्रेम का हाथ बढ़ाएगा।”
संत ने कहा, “अब समझा, राबिया। तुमने उस पंक्ति को काट कर ठीक ही किया है। दरअसल हमारे ही मन के अंदर प्रेम करने का अहंकार भरा है। इसलिए हम प्रेम नहीं करते, प्रेम करने का नाटक करते हैं।”