Kaal Bhairav Jayanti : ब्रह्मा का सिर काटने के बाद बाबा काल भैरव बने काशी के कोतवाल, पढ़ें कथा

Edited By Updated: 12 Nov, 2025 06:51 AM

kaal bhairav jayanti katha

Kaal Bhairav Jayanti 2025: भगवान काल भैरव की उत्पत्ति की पौराणिक कथा शिव पुराण, कालभैरव तंत्र और स्कंद पुराण में वर्णित है। यह कथा न केवल रहस्यमयी है, बल्कि समय, शक्ति और न्याय के गहन सिद्धांतों को भी समझाती है। जो व्यक्ति भय, ऋण, अशुभ ग्रहदोष या...

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Kaal Bhairav Jayanti 2025: भगवान काल भैरव की उत्पत्ति की पौराणिक कथा शिव पुराण, कालभैरव तंत्र और स्कंद पुराण में वर्णित है। यह कथा न केवल रहस्यमयी है, बल्कि समय, शक्ति और न्याय के गहन सिद्धांतों को भी समझाती है। जो व्यक्ति भय, ऋण, अशुभ ग्रहदोष या जीवन में बाधाओं से पीड़ित है, यदि वह श्रद्धा से काल भैरव की उपासना करता है, तो उसकी सभी बाधाएं दूर होती हैं। इस मंत्र का जाप कालाष्टमी के दिन अत्यंत फलदायी माना गया है।

बाबा काल भैरव मंत्र: ॐ कालभैरवाय नमः  

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Kaal Bhairav Katha काल भैरव कथा
बहुत समय पहले ब्रह्मा, विष्णु और महादेव के बीच यह चर्चा चल रही थी कि सृष्टि में सबसे श्रेष्ठ कौन है। ब्रह्मा जी ने कहा कि “मैं सृष्टि का रचयिता हूं, अतः मैं ही श्रेष्ठ हूं।”

महादेव ने विनम्रता से कहा, “सृष्टि का पालन विष्णु करते हैं और संहार मैं करता हूं इसलिए श्रेष्ठता किसी एक की नहीं हो सकती।”

लेकिन ब्रह्मा जी के मन में अहंकार आ गया। उन्होंने कहा, “शिव! तुम मेरे ही अंश से उत्पन्न हो। इसलिए तुम्हें मेरा आदर करना चाहिए।”

यह सुनकर समस्त देवता मौन हो गए। ब्रह्मा के अहंकार से त्रस्त होकर शिव जी ने अपने क्रोध रूप से एक अद्भुत, भयानक ऊर्जा प्रकट की। वह रूप था काल भैरव। जो काले वर्ण वाले, त्रिशूल और खड्गधारी, भयानक स्वरूप में थे।

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Brahma's fifth head and the birth of Kala Bhairava ब्रह्मा का पांचवा सिर और काल भैरव का जन्म
ब्रह्मा के पांच सिर थे। जब उन्होंने शिव की निंदा की तो काल भैरव ने अपने त्रिशूल से ब्रह्मा का पांचवां सिर काट दिया। यह कार्य धर्म की दृष्टि से ब्रह्महत्या कहलाया, क्योंकि वह सिर अब काल भैरव के हाथ में चिपक गया।

शिवजी ने तब कहा, “हे भैरव, तुमने ब्रह्मा के अहंकार को नष्ट किया है। अब तुम ही कालनियंता (समय के स्वामी) और काशी के रक्षक कहलाओगे।”

इसके बाद काल भैरव ब्रह्महत्या के पाप से मुक्त होने के लिए भिक्षाटन यात्रा पर निकले। वे एक हाथ में खप्पर (ब्रह्मा का सिर) लिए पृथ्वी के सभी तीर्थों की यात्रा करने लगे। अंत में जब वे काशी (वाराणसी) पहुंचे, तब वहां की भूमि ने उन्हें पापमुक्ति प्रदान की। तभी से उन्हें काशी का कोतवाल कहा जाने लगा।

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