उपनिषदों से जानें, सोलह कलाओं का रहस्य

Edited By Updated: 19 Dec, 2019 08:50 AM

learn from the upanishads the secret of solah kala

प्रभु श्रीराम 12 कलाओं के ज्ञाता थे तो भगवान श्रीकृष्ण सभी 16 कलाओं के ज्ञाता हैं। चंद्रमा की सोलह कलाएं होती हैं। सोलह शृंगार के बारे में भी आपने सुना होगा। आखिर ये 16 कलाएं क्या हैं?

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प्रभु श्रीराम 12 कलाओं के ज्ञाता थे तो भगवान श्रीकृष्ण सभी 16 कलाओं के ज्ञाता हैं। चंद्रमा की सोलह कलाएं होती हैं। सोलह शृंगार के बारे में भी आपने सुना होगा। आखिर ये 16 कलाएं क्या हैं? उपनिषदों के अनुसार 16 कलाओं से युक्त व्यक्ति ईश्वर तुल्य होता है। जो व्यक्ति मन और मस्तिष्क से अलग रह कर बोध करने लगता है वही 16 कलाओं में गति कर सकता है। चंद्रमा की सोलह कलाएं-अमृत, मनदा, पुष्प, पुष्टि, तुष्टि, ध्रुति, शाशनी, चंद्रिका, कांति, ज्योत्सना, श्री प्रीति, अंगदा, पूर्ण और पूर्णामृत हैं।

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इसी को प्रतिपदा, दूज, एकादशी, पूर्णिमा आदि भी कहा जाता है। जैसे चंद्रमा के प्रकाश की 16 अवस्थाएं हैं उसी तरह मनुष्य के मन में भी एक प्रकाश है। मन को चंद्रमा के समान ही माना गया है जिसकी अवस्था घटती और बढ़ती रहती है। चंद्र की इन सोलह अवस्थाओं से 16 कलाओं का चलन हुआ। व्यक्ति का देह को छोड़ कर पूर्ण प्रकाश हो जाना ही प्रथम मोक्ष है।

मनुष्य (मन) की तीन अवस्थाएं: प्रत्येक व्यक्ति को अपनी तीन अवस्थाओं का ही बोध होता है- जागृत, स्वप्न और सुषुप्ति। क्या आप इन तीन अवस्थाओं के अलावा कोई चौथी अवस्था जानते हैं?

जगत तीन स्तरों वाला है:  एक स्थूल जगत, जिसकी अनुभूति जागृत अवस्था में होती है। दूसरा सूक्ष्म जगत, जिसका स्वप्न में अनुभव करते हैं और तीसरा कारण जगत, जिसकी अनुभूति सुषुप्ति में होती है।

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तीन अवस्थाओं से आगे सोलह कलाओं का अर्थ सम्पूर्ण बोधपूर्ण ज्ञान से है। मनुष्य ने स्वयं को तीन अवस्थाओं से आगे कुछ नहीं जाना और न समझा। प्रत्येक मनुष्य में ये 16 कलाएं सुप्तावस्था में होती हैैं। अर्थात इसका संबंध अनुभूत यथार्थ ज्ञान की सोलह अवस्थाओं से है। इन सोलह कलाओं के नाम अलग-अलग ग्रंथों में अलग-अलग मिलते हैं- 1. अन्नमया, 2. प्राणमया, 3 मनोमया, 4. विज्ञानमया, 5. आनंदमया, 6 अतिशयिनी, 7. विपरिनाभिनी, 8. संक्रमिनी, 9 प्रभविनी, 10. कुंथिनी, 11. विकासिनी, 12. मर्यदिनी, 13. सन्हालादिनी, 14. आह्लादिनी, 15. परिपूर्ण और 16. स्वरूपवस्थित।

अन्यत्र : 1. श्री, 2. भू, 3. र्कीत, 4. इला, 5. लीला, 6. कांति, 7. विद्या, 8. विमला, 9. उत्कर्शनी, 10. ज्ञान, 11. क्रिया, 12. योग, 13. प्रहवि, 14. सत्य, 15. इसना और 16 अनुग्रह।

कहीं पर 1. प्राण, 2. श्रद्धा, 3. आकाश, 4. वायु, 5. तेज, 6 जल, 7. पृथ्वी, 8. इन्द्रिय, 9. मन, 10. अन्न, 11. वीर्य, 12. तप, 13. मंत्र, 14. कर्म, 15. लोक और 16. नाम।

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16 कलाएं दरअसल बोध प्राप्त योगी की भिन्न-भिन्न स्थितियां हैं। बोध की अवस्था के आधार पर आत्मा के लिए प्रतिपदा से लेकर पूर्णिमा तक चंद्रमा के प्रकाश की 15 अवस्थाएं ली गई हैं। अमावस्या अज्ञान का प्रतीक है तो पूर्णिमा पूर्ण ज्ञान का।

19 अवस्थाएं : भगवद्गीता में भगवान श्रीकृष्ण ने आत्म तत्व प्राप्त योगी के बोध की उन्नीस स्थितियों को प्रकाश की विभिन्न मात्रा से बताया है। इसमें अग्निज्र्योतिरह: बोध की 3 प्रारम्भिक स्थिति है और शुक्ल: षणमासा उत्तरायणम की 15 कला शुक्ल पक्ष की 01 है। इनमें से आत्मा की 16 कलाएं हैं।

आत्मा की सबसे पहली कला ही विलक्षण है। इस पहली अवस्था या उससे पहले की तीन स्थिति होने पर भी योगी अपने जन्म और मृत्यु का द्रष्टा और मृत्यु भय से मुक्त हो जाता है।
अग्निज्र्योतिरह: शुक्ल: षणमासा उत्तरायणम्। तत्र प्रयाता गच्छन्ति ब्रह्म ब्रह्मविदो जना:॥

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अर्थात जिस मार्ग में ज्योतिर्मय अग्नि-अभिमानी देवता है, दिन का अभिमानी देवता है, शुक्ल पक्ष का अभिमानी देवता है और उत्तरायण के छ: महीनों का अभिमानी देवता है उस मार्ग में मर कर गए हुए ब्रह्मवेत्ता, योगीजन उपर्युक्त देवताओं द्वारा क्रम से ले जाए जाकर ब्रह्म को प्राप्त होते हैं। (8/24)

भावार्थ : श्रीकृष्ण कहते हैं जो योगी अग्नि, ज्योति, दिन, शुक्लपक्ष, उत्तरायण के छ: माह में देह त्यागते हैं अर्थात जिन पुरुषों और योगियों में आत्मज्ञान का प्रकाश हो जाता है, वह ज्ञान के प्रकाश से अग्निमय, ज्योतिर्मय, दिन के समान शुक्ल पक्ष की चांदनी के समान प्रकाशमय और उत्तरायण के छ: माह के समान परम प्रकाशमय हो जाते हैं अर्थात जिन्हें आत्मज्ञान हो जाता है। आत्मज्ञान का अर्थ है स्वयं को जानना या देह से अलग स्वयं की स्थिति को पहचानना।

विस्तार से : 1. अग्रि- बुद्धि सतोगुणी हो जाती है। दृष्टा एवं साक्षी स्वभाव विकसित होने लगता है। 2. ज्योति : ज्योति के समान आत्म साक्षात्कार की प्रबल इच्छा बनी रहती है। दृष्टा एवं साक्षी स्वभाव ज्योति के समान गहरा हो जाता है। 3. अह : दृष्टा एवं साक्षी स्वभाव दिन के प्रकाश की तरह स्थित हो जाता है। 16 कला- 15 कला शुक्ल पक्ष+ 1 उत्तरायण कला=16।

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1. बुद्धि का निश्चयात्मक हो जाना, 2. अनेक जन्मों की सुधि आने लगती है। 3. चित्रवृत्ति नष्ट हो जाती है। 4. अहंकार नष्ट हो जाता है। 5. संकल्प विकल्प समाप्त हो जाते हैं एवं स्वयं के स्वरूप का बोध होने लगता है। 6. आकाश तत्व में पूर्ण नियंत्रण हो जाता है। कहा हुआ प्रत्येक शब्द सत्य होता है। 7. वायु तत्व में पूर्ण नियंत्रण हो जाता है। स्पर्श मात्र से रोग मुक्त कर देता है। 8. अग्रि तत्व में पूर्ण नियंत्रण हो जाता है। दृष्टिमात्र से कल्याण करने की शक्ति आ जाती है। 9. जल तत्व में पूर्ण नियंत्रण हो जाता है। जल स्थान दे देता है। नदी, समुद्र आदि कोई बाधा नहीं रहती। 10. पृथ्वी तत्व में पूर्ण नियंत्रण हो जाता है। हर समय देह से सुगंध आने लगती है। नींद, भूख-प्यास नहीं लगती। 11. जन्म-मृत्यु स्थिति अपने अधीन हो जाती है। 12. समस्त भूतों से एकरूपता हो जाती है और सब पर नियंत्रण हो जाता है। जड़ चेतन इच्छानुसार कार्य करने लगते हैं। 13. समय पर नियंत्रण हो जाता है। देह वृद्धि रुक जाती है अथवा अपनी इच्छा से होती है। 14. सर्वव्यापी हो जाता है। एक साथ अनेक रूपों में प्रकट हो सकता है। पूर्णता अनुभव करता है। लोक कल्याण के लिए संकल्प धारण कर सकता है। 15. कारण का भी कारण हो जाता है। यह अव्यक्त अवस्था है। 16. उत्तरायण कला- अपनी इच्छानुसार समस्त दिव्यता के साथ अवतार रूप में जन्म लेता है। जैसे-राम, कृष्ण। यहां उत्तरायण के प्रकाश की तरह उसकी दिव्यता फैलती है। 16वीं कला पहले और 15वीं को बाद में स्थान दिया है। इससे निर्गुण, सगुण, स्थिति भी सुस्पष्ट हो जाती है। 16 कलायुक्त पुरुष में व्यक्त-अव्यक्त की सभी कलाएं होती हैं, यही दिव्यता है।

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