अपने इस भक्त का साथ पाने के लिए भगवान शिव बने सेवक, पढ़ें कथा

Edited By Updated: 26 Oct, 2021 11:51 AM

maithil kavi kokil

‘मैथिल कवि कोकिल’ के नाम से प्रसिद्ध विद्यापति ने 15वीं सदी में ‘विसपी’ ग्राम में जन्म लिया था। इनके पिता का नाम गणपति ठाकुर था। इनका परिवार बिहार के तत्कालीन शासक ‘हिंदूपति’ महाराज शिव सिंह के पूर्वजों का कृपापात्र था और विद्यापति ने तो

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Story of Poet Vidyapati and Lord Shiva: ‘मैथिल कवि कोकिल’ के नाम से प्रसिद्ध विद्यापति ने 15वीं सदी में ‘विसपी’ ग्राम में जन्म लिया था। इनके पिता का नाम गणपति ठाकुर था। इनका परिवार बिहार के तत्कालीन शासक ‘हिंदूपति’ महाराज शिव सिंह के पूर्वजों का कृपापात्र था और विद्यापति ने तो शिव सिंह और उनकी पटरानी महारानी लक्ष्मी (लखिमा) के आश्रय में मिथिला को अपनी श्रीकृष्ण भक्ति-सुधा से वृंदावन बना दिया। अभिनव कृष्ण महाप्रभु चैतन्य देव और उनकी भक्त मंडली के लिए तो विद्यापति के पद श्री राधा कृष्ण की मधुर भक्ति के उद्दीपन ही बन गए। महाप्रभु उनके विरह और प्रेम संबंधी पदों को सुनते जाते और साथ ही साथ नयनों से अनवरत अश्रु की धारा बहाते थे। कहा जाता है कि विद्यापति की भक्ति से प्रसन्न होकर भगवान भोलेनाथ अपना ‘उगना’ नाम रखकर इनके सेवक बने थे।

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वह प्रसंग इस प्रकार है- एक बार विद्यापति के मन में एक सुयोग्य सेवक की अभिलाषा हुई। बस उसी क्षण एक गौर वर्ण व्यक्ति इनके पास आया और अपने को नौकर रख लेने की प्रार्थना करने लगा। उसके सुंदर स्वरूप और मधुर वचनों ने इनके मन को आकृष्ट कर लिया। अत: इन्होंने सहर्ष स्वीकृति दे दी। उसका नाम उगना था। उगना इनकी समस्त सेवाएं करता।

एक दिन विद्यापति उगना को साथ लिए कहीं जा रहे थे। मार्ग में इन्हें प्यास लगी और उन्होंने उगना को जल लाने को कहा। उगना थोड़ी ही दूर जाकर वृक्षों के झुरमुट में से लोटा भर लाया। इन्होंने जलपान किया तो गंगाजल जैसा स्वाद आया।

विद्यापति चकित हो गए कि यहां गंगाजल कहां ?

पूछा तो उगना ने कहा, ‘‘यहीं पास से ही लाया हूं।’’

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उगना के उत्तर से उन्हें संतोष नहीं हुआ। विद्यापति ने नेत्र बंद करके कुछ ध्यान किया और जब नेत्र खोले तो इन्हें उगना के स्थान पर भगवान शिव के दर्शन हुए। ये भगवान शिव के चरणों में लोट गए। शिवजी की जटाओं से गंगा की धारा बह रही थी। विद्यापति समझ गए कि सचमुच वह जल किसी अन्य कूप-बावली का न होकर साक्षात गंगा जी का ही था।

शिवजी ने कहा, ‘‘विद्यापति! मुझे आपके साथ रहने में बड़ा सुख मिलता है, अत: मैं ही उगना रूप में आपकी सेवा में रह रहा था। अभी भी मैं आपके ही साथ रहना चाहता हूं परन्तु देखना यह रहस्य किसी से प्रकट न करना।’’

इतना कहकर भगवान शिवजी पुन: उगना रूप में हो गए।

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लेकिन अब विद्यापति और उगना में पहले जैसा स्वामी-सेवक का भाव नहीं रहा। अब तो यह निर्णय करना कठिन हो गया कि कौन स्वामी है और कौन सेवक? सेवक के साथ इस प्रकार का बर्ताव विद्यापति की पत्नी को अच्छा नहीं लगा।

अत: वह उगना से चिढऩे लगीं। एक दिन तो किसी कार्य में किंचित देर हो जाने पर वह जलती हुई लकड़ी लेकर उगना को मारने दौड़ीं यह देख कर विद्यापति से रहा नहीं गया और बोल ही पड़े, ‘‘अरे अधमे! तू मेरे इष्ट देव देवाधिदेव महादेव को मारने दौड़ रही है।’’

पत्नी तो जहां की तहां रुक गई लेकिन उगना अंतर्धान हो गया। उगना के वियोग में विद्यापति तड़प उठे। उस समय इन्होंने यह पद गाया-उगना रे मोर कतए गेला।

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