जानें, हिंदू धर्म में शुभ काम से पहले क्यों निभाई जाती है मंगलाचरण परम्परा

Edited By Punjab Kesari,Updated: 24 Aug, 2017 03:02 PM

mangalacharan parampara in hindu religion

संस्कृत में प्राचीन परम्परा है कि किसी कार्य के प्रारम्भ में शांति पाठ करते हैं। पहले मंगलाचरण करके फिर कार्य का आरंभ करना चाहिए। इसी को शांति पाठ भी बोलते हैं। मंगलाचरण की यह परम्परा ब्रह्मा जी से शुरू हुई है।

संस्कृत में प्राचीन परम्परा है कि किसी कार्य के प्रारम्भ में शांति पाठ करते हैं। पहले मंगलाचरण करके फिर कार्य का आरंभ करना चाहिए। इसी को शांति पाठ भी बोलते हैं। मंगलाचरण की यह परम्परा ब्रह्मा जी से शुरू हुई है। ब्रह्मा जी ने जब सृष्टि का निर्माण किया था तो उन्होंने भी मंगलाचरण किया। हमारे मूल में ही मंगलाचरण शिष्टाचार की परम्परा पड़ी हुई है। इसका सीधा कारण ऐसा दिखाई देता है कि कर्म के आरम्भ में ईश्वर का स्मरण अहंकार की स्मृति की अपेक्षा श्रेष्ठ है। ऋषियों का संकेत यह है कि आपने कर्म के बारे में बुहत सोच लिया, अब प्रारम्भ करने से पहले ईश्वर का स्मरण कर लो, उसकी सम्मति ले लो, उसकी सहायता ले लो, उसका आशीर्वाद ले लो। जो कुछ कमी होगी वह पूरा करेगा। कर्तव्य करो, योजना बनाओ, तत्पर रहो पर हृदय में जिसे रखना है वह तो प्रभु ही हैं।


इसको बोलते हैं मंगलाचरण। ऐसा आचरण जिसमें हमारा, आपका, सबका मंगल हो। भगवान के स्मरण को ही मंगलाचरण कहते हैं। उसमें प्रार्थना भी जोड़ दी जाती है। प्रार्थना का अर्थ होता है भगवान से कुछ चाहना, केवल स्मरण नहीं। स्मृति के साथ इच्छा का संयोग कर देने से स्मृति में गहराई आती है। इच्छा को इतनी बुरी चीज मत समझना। इच्छा न हो तो मोक्ष की इच्छा कौन करेगा। मोक्ष की इच्छा को ही मुमुक्षा बोलते हैं। उपनिषद के ऋषि प्रार्थना करते हैं :
ॐभद्रं कर्णेभि: श्रृणुयाम देवा:। भद्रं पश्येमाक्षभियजत्रा:
स्थिरैरंगैस्तुष्टुवां सस्तनूभि:। व्यशेम देवहितं यदायु:॥ 


चार ही चीजें मांगी हैं। सभी लोग अच्छा सुनें, अच्छा देखें, अच्छा करें और शरीर स्वस्थ रहे। कान से हम जो सुनते हैं उससे हमारा अंत:करण बनता है। हमारा मन दूसरों के बारे में सुन-सुन करके खराब हो जाता है या अच्छा हो जाता है। किसी के बारे में यदि हम बुरा समझते हैं तो उसकी बुराई हमने कितनी देखी है? देखते तो बहुत कम हैं सुनते सबसे ज्यादा हैं। एक मुख से दूसरे, दूसरे से तीसरे। सुन करके हमारा मन बिगड़ जाता है या बन जाता है।


कान पर जरा ध्यान दो। ऐसा उसको एकदम खोलकर न रखो कि चाहे जो कचरा भरना चाहें भर दें। कान तो वेदांत सुनने के लिए हैं, भगवान की कथा सुनने के लिए हैं, महापुरुषों के आचरण सुनने के लिए हैं, हृदय प्रफुल्लित हो जाए, ऐसी बात सुनने के लिए हैं। मन खराब हो जाए ऐसी बात सुनने के लिए नहीं हैं। तो इसका उपयोग ठीक-ठाक हो।


ऐसा काम अपने प्रयास से पूरा नहीं होता, भगवान से सहायता मांगते हैं। ऐसे गलत लोगों को हमारे पास मत भेजो। अगर आ जाए तो ऐसी बुद्धि जागृत कर दो कि इनको नहीं सुनना है। दूसरों की निंदा सुनने में अच्छा लगता है तो इसे बोलते हैं निन्दारस। जहां दो लोग बैठे तीसरे की, अनुपस्थि की निंदा शुरू कर दी। आनंद-मंगल से एक दो घंटे बीत गए। निंदारस के कारण ही हम, नहीं चाहते हुए भी सुनते हैं। अत: देवताओं से प्रार्थना यह है कि महाराज कृपा करो कि हमें इसमें रस न आए।


आंखों से अच्छा देखें ऐसी कुछ हमारी सहायता करो। देखने का भी मन पर बहुत गहरा प्रभाव पड़ता है। शुभ-शुभ देखना चाहते हो तो आसपास का वातावरण अच्छा रखोगे तभी तो देखोगे। अपने आसपास गंदगी रखो और चाहो कि बढिय़ा दिखाई दे, कैसे होगा। अपने आसपास की प्रकृति का आह्वान करो, पौधे लगाओ, फल लगाओ, स्वच्छ रहो। तभी तो शुभ दिखाई देगा।


दूसरे से अच्छा बोलोगे तभी तो अच्छा सुनाई देगा। यह ध्यान रखना है कि जब हम अच्छा सुनने की इच्छा रखते हैं तो आवश्यकता है यह कि हम आसपास की प्रकृति का शृंगार करें। शौचप्रिय हों, स्वच्छ रहें। यदि समाज में कामना आ जाए स्वच्छ रहने की तो समाज सुंदर हो जाएगा।


हमारे अंग बलिष्ठ हों, पुष्ट हों ऐसी हमारी इच्छा है।  रोगी शरीर साधना करने में सबसे बड़ा बाधक होता है। साधना में आत्मा की स्मृति रखनी है, शरीर को भूलना है। रोगी शरीर को भूल नहीं सकते। स्वस्थ शरीर की पहचान यही है कि वह याद नहीं आता है। सिर कब याद आता है जब सिर में दर्द होता है। पेट कब याद आता है जब हमने भोजन के समय उसके साथ दुर्व्यवहार किया होता है।


‘व्यशेम देवहितं यदायु:’ ऋषि आयु की कामना नहीं करता। सत्कर्म की कामना करता है। आयु का महत्व तो है पर ज्यादा महत्व तो कर्म का है। जो कुछ आयु हमारे पास है उसकी हमें कोई चिंता नहीं। एक श्वास भी ज्यादा नहीं मांगता हूं परन्तु हमारे हाथ से काम अच्छा हो जाए बस इतना ही। ऐसा मांगना हो तो अवश्य मांगना चाहिए।
उसके बाद सूर्य, बृहस्पति, इंद्र, गरुड़, सबसे प्रार्थना की गई। एक ही मांग ‘स्वस्ति न: स्वस्ति न: स्वस्ति न:।’ हमारा कल्याण हो।


एक तो होता है प्रेय और एक होता है श्रेय, कल्याण। गोस्वामी तुलसीदास जी ने कल्याण का अर्थ ऐसे किया है : 
‘सुयश, सुमति, सुख-सम्पति नाना, जो आपनि चाहसी कल्याणना।’


सुयश, सुंदर मति, सुख सम्पत्ति ये तीनों मिलें तब कल्याण है। इनमें से एक भी नहीं हों तो उसको कल्याण नहीं कहते। प्रभु! हमारा कल्याण हो, सबका कल्याण हो, सबकी मति सुंदर हो, सब यशस्वी बनें, सब लोग सुख-सम्पन्न हों। प्रार्थना सबके लिए है निजी स्वार्थ नहीं है।


अब तीन बार शांति, शांति कहते हैं। इसका अर्थ यह है कि अशांति केवल तीन जगह से ही आती है। चौथा कोई स्रोत नहीं है। ऋषियों का दर्शन-चिंतन तो देखो। दुख असंख्य हैं, अशांति, विघ्न अनेक हैं परन्तु ऋषियों की विश्लेषण तथा वर्गीकरण की क्षमता अद्भुत थी। मन के दुखों की गणना तो संभव नहीं है फिर उनकी दृष्टि दुखों के स्रोतों पर चली गई। तीन ही उद्भव स्थल हैं। आधिदैविक, आधिभौतिक और आध्यात्मिक। ऋषियों की प्रार्थना है कि आप तीनों को शांत करें।

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