बैसाखी: सिख इतिहास के आकर्षण का केंन्द्र श्री आनंदपुर साहिब

Edited By Updated: 14 Apr, 2018 08:54 AM

shri anandpur sahib is center of attraction of sikh history

श्री आनंदपुर साहिब सिखों की धार्मिक, राजनीतिक और सामरिक राजधानी रहा है। इसे पांच गुरु साहिबान- श्री गुरु हरिगोबिंद साहिब, श्री गुरु हरिराय जी, श्री गुरु हरिकिशन जी, श्री गुरु तेग बहादुर जी और श्री गुरु गोबिंद सिंह जी ने अपनी चरण रज से पवित्र किया...

श्री आनंदपुर साहिब सिखों की धार्मिक, राजनीतिक और सामरिक राजधानी रहा है। इसे पांच गुरु साहिबान- श्री गुरु हरिगोबिंद साहिब, श्री गुरु हरिराय जी, श्री गुरु हरिकिशन जी, श्री गुरु तेग बहादुर जी और श्री गुरु गोबिंद सिंह जी ने अपनी चरण रज से पवित्र किया है। यहां का जर्रा-जर्रा जालिमों के खिलाफ जूझ कर शहादत पाने वाले शहीदों के आत्म बलिदान की अजीम यादगार है। पग-पग पर सिख इतिहास के अविस्मरणीय क्षणों को साकार करती श्री आनंदपुर साहिब की यह पावन भूमि सदैव आकर्षण का केंन्द्र रही है। श्री आनंदपुर सहिब का सबसे महत्वपूर्ण स्थान है- तख्त श्री केसगढ़ साहिब। सन् 1699 ई. में बैसाखी के दिन श्री गुरु गोबिंद सिंह जी ने यहीं खालसा पंथ की सृजना की थी। 


गुरुद्वारा ‘थड़ा साहिब’ में प्रवेश करते हुए अब भी यही प्रतीत होता है कि जैसे पंडित किरपा राम अपने साथी ब्राह्मणों के साथ नवम पातशाह श्री गुरु तेग बहादुर जी से गुहार कर रहे हैं कि हे पातशाह! हम आपकी हजूरी में आए हैं, जालिम औरंगजेब से हिन्दू धर्म की रक्षा करो, हम मजलूमों को सिर्फ श्री गुरु नानक देव जी के घर से ही मदद की उम्मीद है। गुरु नवम पातशाह ने शरणागत की लाज रखी और कश्मीरी पंडितों के मानवाधिकारों की रक्षा के लिए दिल्ली के चांदनी चौक में पावन बलिदान दिया। 
तिलक जंझू राखा प्रभ ता का।
कीनो बडू कलू महि साका।।
धरम हेत साका जिनि कीआ
सीसु दीआ पर सिररु न दीआ। 
(बचित्र नाटक)

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किला आनंदगढ़ जैसे आज भी ‘रणजीत नगाड़े’ की ध्वनि से गूंज रहा है। यहां सहसा याद आ जाती है दिसम्बर सन 1704 ई. की वह भयानक सर्द रात जब श्री गुरु गोबिंद सिंह, माता गुजरी जी, साहिबजादे और कुछ सिंह किला आनंदगढ़ से बाहर निकलते हैं कि शत्रु सेना झूठे वादे एवं कसमें भुलाकर टूट पड़ती है। जूझते-जूझते जैसे-जैसे सरसा नदी पार होती है। गुरु परिवार पर कहर बरसाने वाली यह रात चमकौर की जंग में बड़े साहिबजादों की शहादत, छोटे साहिबजादों की सरहिन्द में नीवों में चिनवाकर और माता गुजरी का बलिदान लेकर शांत होती है।

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गुरु साहिबान मनुष्य के आध्यात्मिक विकास के साथ-साथ उसके आर्थिक-सामाजिक विकास को भी अत्यंत महत्वपूर्ण मानते थे इसलिए उन्होंने नए-नए नगर बसाने में विशेष रुचि ली। जिस प्रकार श्री गुरु नानक देव जी ने श्री करतारपुर साहिब (पाकिस्तान), श्री गुरु अमरदास जी ने गोइंदवाल साहिब, श्री गुरु रामदास जी ने श्री अमृतसर साहिब, श्री गुरु अर्जुन देव जी ने तरनतारन साहिब और श्री गुरु हरिगोबिंद साहिब ने कीरतपुर साहिब आदि नगरों को बसाया, उसी प्रकार श्री गुरु तेग बहादुर साहिब जी ने 1665 ई. में कीरतपुर साहिब के पास ‘चक्च नानकी’ बसाया। बाद में श्री गुरु गोबिंद सिंह जी ने 1689 ई. में एक नए नगर की नींव रखी। भाई चउपत ने ‘श्री आनंदसाहिब’ का पाठ किया। गुरु जी ने नए नगर का नाम रखा ‘आनंदपुर’, कालांतर में ‘आनंदपुर’ और ‘चक्क नानकी’ दोनों को मिलाकर ‘श्री आनंदपुर साहिब’ कहा जाने लगा।


श्री गुरु गोबिंद सिंह जी ने यहां पांच किले भी बनवाए। धीरे-धीरे श्री आनंदपुर साहिब सिखों की राजनीतिक एवं सामरिक राजधानी बन गया। फिर यहां और इसके आसपास अनेक जंगें लड़ी गईं जिनमें हर बार सिखों की फतेह हुई। श्री आनंदपुर साहिब की उन्नति और खालसे की बढ़ती जा रही शक्ति ने मुगलों और पहाड़ी राजाओं की नींद उड़ा दी। फिर ‘खालसे’ को परास्त करने के लिए एक बड़ा गठबंधन बना जिसने मार्च 1704 ई. में श्री आनंदपुर साहिब को आ घेरा। सिख संघर्ष करते रहे। धीरे-धीरे घेरा आठ महीने तक खिंच गया। अंतत: सिखों के आग्रह पर गुरु जी ने सपरिवार श्री आनंदपुर साहिब छोड़ दिया। 

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1947 के बाद स्वतंत्र भारत में श्री आनंदपुर साहिब का विकास अत्यंत तेज गति से हुआ है। पांच पवित्र तख्तों में से एक तख्त श्री केसगढ़ साहिब, अनेक ऐतिहासिक गुरुद्वारे और दशमेश पिता द्वारा स्थापित पांच किले अब यहां सुशोभित हैं। गुरु जी के शस्त्र, वस्त्र समेत अनेक ऐतिहासिक महत्व की वस्तुएं यहां सुरक्षित रूप से संरक्षित की गई हैं। चौड़ी स्वच्छ सड़कें, शिवालिक की हरी-भरी पहाडिय़ों की गोद में सुशोभित सुंदर धवल गुरुद्वारा दूर से ही मन को मोहना शुरू कर देते हैं। आज श्री आनंदपुर साहिब विश्व के नक्शे पर एक विशेष स्थान रखता है। 1999 ई. में खालसा पंथ का तीन सौ साला सृजना दिवस यहां बड़े पैमाने पर आयोजित किया गया था। ‘निशान ए खालसा’ और सिख हैरीटेज सैंटर’ श्री आनंदपुर साहिब को एक महान ऐतिहासिक केंद्र के रूप में स्थापित करते हैं।


शहीदों के रक्त से रंजित यह सरजमीं ‘गुरु की नगरी’ आज सिख धर्म की गतिविधियों का महत्वपूर्ण केंद्र है। ‘होला मोहल्ला’ और ‘वैसाखी’ के अवसर पर यहां बड़ी संख्या में संगत एकत्र होती है। यहां की पवित्र वायु में श्री गुरु गोबिंद सिंह जी के ये वचन गूंजते सुनाई देते हैं:
देह सिवा बर मोहे इहे, शुभ करमन ते कभुं न टरूं।
न डरों अरि सौं जब जाय लड़ों, निश्चय कर अपनी जीत करौं। 
अरु सिख हों आपने ही मन कौ, इह लालच हउ गुन तउ उचरों।
जब आव की अउध निदान बनै अति ही रन मै तब जूझ मरों।

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