कीर्तन का जमा ऐसा रंग, मंदिर पूर्वाभिमुखी से घूमकर पश्चिमाभिमुखी हो गया

Edited By Updated: 18 Oct, 2019 08:43 AM

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राधा-माधव के युगल स्वरूप के माधुर्य भावोपासक भक्त शिरोमणि मधुकर शाह नियमित रूप से प्रात:काल युगलकिशोर जी के मंदिर में दर्शन करने जाते थे और रात्रि में अपने गुरु हरिराम जी व्यास एवं अन्य

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राधा-माधव के युगल स्वरूप के माधुर्य भावोपासक भक्त शिरोमणि मधुकर शाह नियमित रूप से प्रात:काल युगलकिशोर जी के मंदिर में दर्शन करने जाते थे और रात्रि में अपने गुरु हरिराम जी व्यास एवं अन्य भक्तों के साथ पैरों में घुंघरू बांध कर गायन करते हुए नृत्यलीन हो जाते थे। नृत्य करते-करते बेसुध हो जाना तो उनके लिए एक सामान्य-सी बात हो गई थी। 

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एक दिन किन्हीं विषम परिस्थितियों के कारण ओरछा में होते हुए भी वह नित्य की भांति रात्रि में निश्चित समय पर युगलकिशोर सरकार के मंदिर में उपस्थित न हो सके। यथासमय सरकार की शयन आरती के पश्चात मंदिर के कपाट बंद हो गए। अधिकांश भक्त जन अपने-अपने घरों को लौट गए। हरिराम जी व्यास कुछ अन्य भक्तों के साथ मंदिर के बाहर बैठ कर ओरछेश के आने की प्रतीक्षा करने लगे।

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लगभग अर्धरात्रि के समय मधुकर शाह अपने नियम की पूर्ति हेतु मंदिर पहुंचे। अपने गुरुजी को प्रतीक्षारत पाकर उन्होंने विलम्ब से उपस्थित होने का स्पष्टीकरण देते हुए क्षमा-याचना की और निवेदन किया कि क्यों न मंदिर के पिछवाड़े चलकर थोड़े ही समय कीर्तन कर लिया जाए, जिससे सरकार के शयन में बाधा भी उत्पन्न न हो और नित्य-नियम की आंशिक पूर्ति भी हो जाए।

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उस निस्तब्ध निशा में ऐसा कीर्तन जमा कि सभी के नेत्रों से प्रेमाश्रुओं की अविरल धारा प्रवाहित होने लगी। ‘राधे-राधे’ का उद्घोष आनंद में कई गुना वृद्धि कर रहा था। मधुकर शाह अपनी विलक्षण प्रीतिधारा में प्रवाहित हो सुध-बुध ही खो बैठे थे। प्रेमी अपने प्रेमास्पद के प्रेम में तल्लीन हो और प्रेमास्पद, भक्तवत्सल युगलकिशोर शयन करते रहें, भला यह कैसे संभव था।

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सहसा मंदिर पूर्वाभिमुखी के स्थान पर घूमकर पश्चिमाभिमुखी हो गया। मंदिर के कपाट स्वत: ही अनावृत हो गए और युगलकिशोर सरकार साक्षात प्रकट होकर भक्तों के साथ नृत्य करने लगे। इस आलौकिक दृश्य को देखकर देवताओं ने आकाश से पुष्प-वृष्टि की, जो पृथ्वी का स्पर्श पाते ही स्वर्ण के हो गए। मधुकर शाह अपने आपको सरकार के अत्यंत निकट पाकर प्रेमाश्रु बहाते हुए उनके श्री चरणों में लोट गए। अपने अनन्य भक्त के साथ नृत्य करते हुए उसे दर्शन देकर युगलकिशोर अंतर्ध्यान हो गए।

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इस आलौकिक घटना का साक्षी युगलकिशोर सरकार का वह देवालय महाराज छत्रसाल द्वारा युगलकिशोर के श्रीविग्रह को ओरछा से पन्ना ले जाए जाने के कारण रिक्त हो गया। अपने अतीत की वैभवपूर्ण मधुर स्मृतियों को संजोए यह ऐतिहासिक देवालय उपेक्षा का शिकार होकर भग्नावस्था में अब भी ओरछा में विद्यमान है।

युगलकिशोर सरकार की प्रेमोपासना में निरंतर लीन रहते हुए एक दिन मधुकर शाह स्वयं प्रभु में लीन हो गए। भगवत रसिक रचित ‘भक्त-नामावली’ राजा नागरीदास रचित ‘पद-प्रसंगमाला’ एवं नाभादास जी रचित ‘श्रीभक्तमाल’ जैसे ग्रंथों में मधुकर शाह को अपनी प्रेमा-भक्ति के कारण ही विशिष्ट स्थान प्राप्त हुआ है। 

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