परंपरा के नाम पर यहां होता है कुछ ऐसा सुनकर देने लगेंगे दांतों तले उंगली

Edited By Jyoti,Updated: 30 Oct, 2019 01:48 PM

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बुंदेलखंड (कीर्ति राजेश चौरसिया): बुंदेलखंड में सैकड़ों वर्षों से ऐसी कई पंरपराओं और मान्यताओं का चलन चला आ रहा है जिसे पूरा करने में बहुत से लोग आज भी अपनी जान की बाज़ी भी लगा चुके हैं।

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बुंदेलखंड (कीर्ति राजेश चौरसिया): बुंदेलखंड में सैकड़ों वर्षों से ऐसी कई पंरपराओं और मान्यताओं का चलन चला आ रहा है जिसे पूरा करने में बहुत से लोग आज भी अपनी जान की बाज़ी भी लगा चुके हैं। कहने का भाव है कि यहां इन मान्यताओं को पूरा करने के लिए लोग अपनी जिंदगी मौत तक की परवाह नहीं करते। हम बात कर रहे हैं छतरपुर जिले के नौगांव अनुविभाग थाना क्षेत्र के बिलहरी ग्राम का। जहां से ताज़ा मामला सामना आया है कि यहां ग्वालटौली के लोग आज भी तकरीबन तीन-सौ साल पुरानी परंपरा का निर्वाहण कर रहे हैं। आइए आपको बताते हैं कि आख़िर ये परंपरा है क्या।
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बता दें कि दीपावली के दूसरे दिन सुबह ग्वाले लोग अपनी-अपनी गायों को मोर के पंखों से बनी मालाएं और रंग बिरंगी रस्सियों से बने जोत पहना कर एक मैदान में लेकर एक जुट होते हैं। जहां यानि मैदान में ही इनके देवता का चबूतरा बना हुआ होता है। यहां एक सुअर जो कि बरार लोगों से खरीद कर लाया जाता है और उसे बांधकर उन गायों के पास ले जाया जाता है जहां गायें उस सुअर को अपने सींगों व पैरों से मार मार कर और उसे लहूलुहान और घायल कर देतीं हैं। बताया जाता है सुअर कि दशा इतनी खराब हो जाती है कि वह अपना बचाव नहीं कर पाता। क्योंकि अगर वह बचने का प्रयास करता भी है तो रस्सी से बंधे होने के कारण ये ग्वाले उसे गायों के पैरों के नीचे डाल देते हैं। इस दौरान वह लहूलुहान और घायल हो जाता है जिससे उसकी जान भी चली जाती है।

ग्वाल टोली के तुलसीदास यादव और दिल्ले पाल ने बताया कि पुराने पूर्वज लोग बताते हैं कि पुराने समय मे जंगल अधिक होने की वजह से गायों को ट्रेंड किया जाता था कि अगर गाय चराते समय कोई जंगली जानवर आ जाए और चारवाहे पर हमला कर दे तो गायें किस तरह से अपने मालिक को बचाकर उनकी रक्षा करें।

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ऐसे में यह खेल जारी रखते थे और सुअर के गाय के छुलने से दूसरी गाय एक दूसरे से छुल जाऐ या जिस जगह गाय बंधती या रहती है वहां पर कोई बीमारी या रोग-दोग, बीमारी नहीँ आती। इसलिए गायों को सुअर से लड़ाया जाता है। फिर चाहे इससे जान ही क्यों न चली जाए।

मानवता को शर्मशार कर देने वाला यह खेल लोग सरेआम और सार्वजनिक तौर पर खेलते हैं। बता दें कि स्थानीय शासन और प्रशासन को भी इस खूनी खेल पशु क्रूरता की जानकारी रहती है बाबजूद इसके वह आंख, नाक, कान बंद किए रहते हैं और सभी ग्वाले लोग परंपरा के नाम पर मौत का खेल खेलते हैं साथ ही नाचते-गाते हैं।
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