माया से तुरंत मुक्त होने का उपाय और मार्ग जानने के लिए पढ़ें...

Edited By Updated: 05 Dec, 2015 03:24 PM

bhagwad gita swami prabhupada

जीव श्रीकृष्ण से पृथक नहीं हो सकता श्रीमद्भगवद्गीता यथारूप व्याख्याकार : स्वामी प्रभुपाद अध्याय 4 (दिव्यज्ञान)

जीव श्रीकृष्ण से पृथक नहीं हो सकता 

श्रीमद्भगवद्गीता यथारूप व्याख्याकार : स्वामी प्रभुपाद 
अध्याय 4 (दिव्यज्ञान)
 
यज्ज्ञात्वा न पुनर्मोहमेवं यास्यसि पांडव।
येन भूतान्यशेषाणि द्रक्ष्यस्यात्मन्यथो मयि।।35।।
 
यत्—जिसे; ज्ञात्वा—जानकर; न—कभी नहीं; पुन:—फिर; मोहम्—मोह को; एवम्—इस प्रकार; यास्यसि—जाओगे; पांडव—हे पांडवपुत्र; येन—जिससे; भूतानि—जीवों को; अशेषाणि—समस्त; द्रक्ष्यसि—देखोगे; आत्मनि—परमात्मा में; अथ उ—अथवा अन्य शब्दों में; मयि—मुझमें।
 
अनुवाद : स्वरूपसिद्ध व्यक्ति से वास्तविक ज्ञान प्राप्त कर चुकने पर तुम पुन: कभी ऐसे मोह को प्राप्त नहीं होगे क्योंकि इस ज्ञान के द्वारा तुम देख सकोगे कि सभी जीव परमात्मा के अंशस्वरूप हैं, अर्थात् वे सब मेरे हैं।
 
तात्पर्य : स्वरूपसिद्ध व्यक्ति से ज्ञान प्राप्त होने का परिणाम यह होता है कि यह पता चल जाता है कि सारे जीव भगवान् श्रीकृष्ण के भिन्न अंश हैं। श्रीकृष्ण से पृथक अस्तित्व का भाव माया (मा-नहीं, या-यह) कहलाती है। कुछ लोग सोचते हैं कि हमें कृष्ण से क्या लेना-देना है, वे तो केवल महान ऐतिहासिक पुरुष हैं और परब्रह्म तो निराकार है। 
 
वस्तुत: जैसा कि भगवद्गीता में कहा गया है यह निराकार ब्रह्म श्रीकृष्ण का व्यक्तिगत तेज है। कृष्ण भगवान् के रूप में प्रत्येक वस्तु के कारण हैं। ब्रह्मसंहिता में स्पष्ट कहा गया है कि कृष्ण श्रीभगवान् हैं और सभी कारणों के कारण हैं। यहां तक कि लाखों अवतार उनके विभिन्न विस्तार ही हैं। इसी प्रकार सारे जीव भी कृष्ण के अंश हैं। मायावादियों की यह मिथ्या धारणा है कि कृष्ण अपने अनेक अंशों से अपने निजी पृथक अस्तित्व को मिटा देते हैं।
 
ब्रह्मविद्या का पर्याप्त ज्ञान न होने के कारण हम माया से आवृत हैं इसीलिए हम अपने को कृष्ण से पृथक सोचते हैं। यद्यपि हम कृष्ण के भिन्न अंश हैं किन्तु तो भी हम उनसे भिन्न नहीं हैं। जीवों का शारीरिक अंतर माया है या फिर वास्तविक नहीं है, हम सभी कृष्ण को प्रसन्न करने के निमित्त हैं। 
 
केवल माया के कारण ही अर्जुन ने सोचा कि उसके स्वजनों से उसका क्षणिक शारीरिक संबंध श्री कृष्ण के शाश्वत आध्यात्मिक संबंधों से अधिक महत्वपूर्ण था। गीता का उपदेश इसी ओर लक्षित है कि श्रीकृष्ण का नित्य दास होने के कारण जीव उनसे पृथक नहीं हो सकता। परब्रह्म के भिन्न अंश के रूप में जीवों को एक विशिष्ट उद्देश्य पूरा करना होता है। उस उद्देश्य को भुलाने के कारण ही वे अनादिकाल से मानव, पशु, देवता आदि देहों में स्थित हैं। ऐसे शारीरिक अंतर भगवान् की दिव्य सेवा के विस्मरण से जनित हैं किन्तु जब कोई कृष्णभावनामृत के माध्यम से दिव्य सेवा में लग जाता है तो वह इस माया से तुरंत मुक्त हो जाता है।     
 (क्रमश:)

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