स्वयं विचार करें कैसा वैवाहिक जीवन है आपका?

Edited By ,Updated: 23 May, 2015 03:14 PM

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गृहस्थ ही एक मात्र धर्म है जिससे परमेश्वर द्वारा रचित इस सृष्टि की व्यवस्था का सुचारू रूप से संचालन होता है। शास्त्रों में चार आश्रमों का वर्णन आता है ब्रह्मचर्याश्रम, गृहस्थाश्रम, सन्यासाश्राम और वानप्रस्थाश्रम लेकिन

गृहस्थ ही एक मात्र धर्म है जिससे परमेश्वर द्वारा रचित इस सृष्टि की व्यवस्था का सुचारू रूप से संचालन होता है। शास्त्रों में चार आश्रमों का वर्णन आता है ब्रह्मचर्याश्रम, गृहस्थाश्रम, सन्यासाश्राम और वानप्रस्थाश्रम लेकिन इनमें सबसे उपयोगी, कर्मशील और प्रभावी आश्रम है वह गृहस्थाश्राम ही है। सृष्टि के प्रारम्भ से ही गृहस्थाश्रम की शुरूआत होने लगी थी। शुरूआत में मानसिक सृष्टि हुआ करती थी।

परमेश्वर की आज्ञा के अनुसार भगवान ब्रह्मा जी ने तरह-तरह की सृष्टि का निर्माण किया। ऋषि, देवता, यक्ष, किन्नर, गन्धर्व, राक्षस आदि। फिर उन्होंने अपने दाएं भाग से मानव रूप में मनु और बाएं भाग से स्त्री रूप में शतरूपा को प्रगट किया। यहीं से मैथुनी सृष्टि का प्रारम्भ हुआ, ऐसा पौराणिक शास्त्र अनुसार वर्णन मिलता है। मनु और शतरूपा ने अति उत्तम गृहस्थ धर्म का पालन करते हुए अपना जीवन-यापन किया और आगे ये वृहत् संसार की रचना होती चली गई।

गृहस्थ आश्रम (वैवाहिक जीवन) के तीन प्रकार

१. उत्तम गृहस्थ: जो स्त्री पुरुष आपस में ज्ञानवान हों, किसी कार्य को करने के लिए आपस में मानने वाले हों, मिलजुलकर कार्य करते हों, एक दूसरे की बातों में विश्वास रखते हों, वही गृहस्थ उत्तम तथा स्वर्ग के समान है।

२. मध्यम गृहस्थ: यदि स्त्री पुरुष में से एक बुद्धिमान हो तथा दूसरा बुद्धिहीन हो, एक दूसरे की नहीं मानते हों, आपस में झगड़ते हों, एक दूसरे पर विश्वास न रखते हों, वह मध्यम गृहस्थ कहलाता है। वह न स्वर्ग के समान है और न ही नरक के समान है।

३. लघु गृहस्थ: जो स्त्री पुरुष आपस में दोनों ही बुद्धिहीन हों, जिनमें ना कमाने का ढंग हो, ना खाने का तथा ना कपड़े पहनने का, ना खुद का मकान है, ना बच्चे पालने का ढंग है। वह गृहस्थ नरक के समान है।

इस तरह से कई श्रेणियों के अन्तर्गत मनुष्य की गृस्हथी का निरूपण किया जाता है।

आचार्य कमल नंदलाल
ईमेल kamal.nandlal@gmail.com

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