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सीमा पर तनाव कम करने के लिए भारत और चीन ने उठाया पहला कदम

Edited By ,Updated: 28 Oct, 2024 05:12 AM

india and china took the first step to reduce tension on the border

भारत-चीन में 2020 से चले आ रहे सीमा विवाद को लेकर दोनों देशों के बीच 21 अक्तूबर को एक संधि पर हस्ताक्षर हुए हैं। हालांकि इस मामले में अभी पूरा विवरण सामने नहीं आया है परंतु कहा गया है कि दोनों पक्षों के सैनिक एल.ए.सी. पर देपसांग व डेमचोक में...

भारत-चीन में 2020 से चले आ रहे सीमा विवाद को लेकर दोनों देशों के बीच 21 अक्तूबर को एक संधि पर हस्ताक्षर हुए हैं। हालांकि इस मामले में अभी पूरा विवरण सामने नहीं आया है परंतु कहा गया है कि दोनों पक्षों के सैनिक एल.ए.सी. पर देपसांग व डेमचोक में आमने-सामने की स्थिति से बचने के लिए समन्वित गश्त करेंगे और अप्रैल, 2020 से पहले की स्थिति में पीछे हटेंगे जिसके 29 अक्तूबर तक दोनों क्षेत्रों में पूरा होने की आशा है। 

इस बात पर भी सहमति बनी कि अरुणाचल प्रदेश में ‘यांगस्टे’ में चीनी गश्त को पहले की तरह अनुमति दी जाएगी और उसे रोका नहीं जाएगा। यह समझौता इसलिए महत्वपूर्ण है क्योंकि एक वर्ष पहले चीनी पक्ष ने देपसांग तथा डेमचोक पर चर्चा करने पर भी अनिच्छा जाहिर की थी परंतु अभी तक  यह स्पष्टï नहीं हुआ है कि हम किस संधि को मान कर चल रहे हैं? अभी तक यह भी पूरी तरह स्पष्टï नहीं है कि कौन सा पक्ष किस स्थान से पीछे हटेगा या दोनों पक्ष कितना पीछे हट रहे हैं।उल्लेखनीय है कि 1954 के बाद से अब तक भारत और चीन के बीच कम से कम 5 समझौते हो चुके हैं। पंचशील के समझौते के समय एक चिन्हित रेखा थी, जिसे 1961 में चीनियों ने तोड़ा तथा अक्साइचिन आदि के अंदर घुसपैठ कर गए थे।हालांकि चीन ने उस समय अरुणाचल प्रदेश में कब्जाया हमारा क्षेत्र लौटा दिया परंतु वे वास्तविक नियंत्रण रेखा पर कभी वापस नहीं गए। उसके बाद कुछ वर्षों तक कूङ्क्षलग पीरियड सा रहा परंतु उसके बाद फिर समझौते तोडऩे का सिलसिला शुरू हो गया। 

1995 और फिर 2013 में हस्ताक्षरित समझौते भी चीन ने तोड़े और अब हमने जो संधि की है, हमें चीन पर विश्वास तो करना चाहिए परंतु उनकी नीयत को जांच-परख लेने के बाद और हमें अपनी प्रतिरक्षा को भी कम नहीं करना है। भारत ने बार-बार यही सबक सीखा है कि चीनी नेताओं की बातों पर आंख मूंद कर भरोसा नहीं कर लेना चाहिए। हालांकि यह भी सर्वविदित है कि ईसा पूर्व 2000 की सिंधु घाटी सभ्यता तथा चीन की तत्कालीन सभ्यता के दौर से ही दोनों देशोंं के बीच व्यापारिक सम्बन्ध थे और वहां से शुरू होकर आधुनिक दौर तक कभी भी युद्ध नहीं हुआ और जहां भारत ने ‘सिल्क रूट’ के जरिए चीन को बौद्ध धर्म भेजा, वहीं ‘सिल्क रूट’ के रास्ते ही हम मध्य-पूर्व के देशों तथा यूरोप को सामान भेजते थे।

1949 में चीन में कम्युनिस्ट पार्टी के सत्ता में आने तक चीन की ओर से भारत पर कोई हमला नहीं किया गया था परंतु चीन द्वारा स्वयं को एशिया में सर्वाधिक प्रभावशाली देश के रूप में पेश करने की नीति और इच्छा इतनी प्रबल है कि वह भारत को एक बराबर के भागीदार के रूप में स्वीकार ही नहीं कर पा रहा है। यही कारण है कि चीन बार-बार भारत के पड़ोसी देशों नेपाल, म्यांमार, पाकिस्तान, श्रीलंका पर अपना वर्चस्व कायम करके भारत को ‘घेरने’ की कोशिशों में लगा रहता है। पाकिस्तान के अंदर चीन व्यापार के लिए अपनी महत्वाकांक्षी ‘बैल्ट एंड रोड परियोजना’ चला रहा है।और तो और, अफगानिस्तान में भी पैर जमाने की कोशिश चीन कर रहा है। दक्षिण चीन सागर में भी वर्चस्व कायम करने की चीनी शासकों की कोशिशें लगातार जारी हंै। इस प्रकार यह स्पष्टï है कि चीन अपने लाभ के लिए हमेशा भारत को घेरने की कोशिश में रहा है।

हालांकि पश्चिमी देशों के साथ भारत का जुडऩा चीन को पसंद नहीं है परंतु यदि भारत, चीन, रूस आदि सभी ब्रिक्स देश अपने गठबंधन को अर्थपूर्ण रूप दे कर डालर, पौंड या यूरो में आपस में व्यापार करने की बजाय अपनी एक सांझी करंसी बना कर व्यापार करने लगें तो यह इस क्षेत्र के सभी देशों के लिए लाभदायक होगा परंतु राजनीतिक इच्छा सर्वोपरि होने के कारण ऐसा शायद न हो सके।

2008 से 2021 के बीच चीन भारत का सबसे बड़ा व्यापारिक भागीदार रहा है परंतु इसके बावजूद दोनों के हितों में टकराव आक्रामकता का कारण बनता है। जहां पाकिस्तान तथा उत्तर पूर्व के भारत के अलगाववादी गिरोहों के साथ चीन की नजदीकी को लेकर भारत ङ्क्षचतित रहा है, वहीं विवादग्रस्त दक्षिण चीन सागर में भारत की सैन्य एवं आॢथक गतिविधियों को लेकर चीन ङ्क्षचता व्यक्त करता रहा है। भारत की विदेश नीति अब तक ठीक रही है। हम तटस्थ रह कर भी अपनी छाप पाश्चात्य तथा पूर्वी देशों पर छोडऩे में सफल रहे हैं जिसे बनाए रखने के लिए यह अत्यंत आवश्यक है कि भारत अपने आधुनिकीकरण की गति बढ़ाए परंतु इसके लिए हमें अपना संरचनात्मक ढांचा ठीक करना ही पड़ेगा। यह कठिन है परंतु अपने स्वतंत्र अस्तित्व के लिए यह कीमत तो चुकानी ही पड़ेगी।

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