सफलता का परचम लहराती बेटियों के सामने ‘चुनौतियां’

Edited By ,Updated: 27 Aug, 2019 01:42 AM

challenges in front of waving daughters

पी.वी. सिंधू ने बैडमिंटन विश्व चैम्पियनशिप 2019 के फाइनल में जापान की नोजोमी ओकुहारा को हराकर चैम्पियनशिप में पहली बार स्वर्ण पदक जीत लिया। इस जीत के साथ ही सिंधू विश्व चैम्पियनशिप में स्वर्ण पदक जीतने वाली पहली भारतीय खिलाड़ी बन गई हैं। यह...

पी.वी. सिंधू ने बैडमिंटन विश्व चैम्पियनशिप 2019 के फाइनल में जापान की नोजोमी ओकुहारा को हराकर चैम्पियनशिप में पहली बार स्वर्ण पदक जीत लिया। इस जीत के साथ ही सिंधू विश्व चैम्पियनशिप में स्वर्ण पदक जीतने वाली पहली भारतीय खिलाड़ी बन गई हैं। 

यह दुर्भाग्यपूर्ण ही है कि एक तरफ  बेटियां सफलता की नई कहानियां लिख रही हैं तो दूसरी तरफ बेटियों पर अत्याचार की घटनाएं लगातार बढ़ती जा रही हैं। इस प्रगतिशील दौर में हमें यह सोचना होगा कि बेटियों के बारे में बड़ी-बड़ी बातें करने वाला यह समाज वास्तव में उनके संदर्भ में खोखला आदर्शवाद क्यों अपना लेता है? इस दौर में बेटियों से बलात्कार की घटनाएं बढ़ती जा रही हैं। हमें इस बात पर भी विचार करना होगा कि एक  इंसान के तौर पर हमारी इस गिरावट का कारण क्या है? 

हम बाहर की कानून व्यवस्था को कोस कर संतुष्ट हो सकते हैं लेकिन अपने अंतर की कानून व्यवस्था की जिम्मेदारी तो हमें स्वयं ही लेनी होगी। दुर्भाग्यपूर्ण यह है कि हम बाहर की कानून व्यवस्था के लिए तो विभिन्न सरकारों को जिम्मेदार ठहराते रहते हैं लेकिन अपने अंतर की कानून व्यवस्था सुधारने पर ध्यान नहीं देते हैं। क्या यह समाज बेटियों की इज्जत और जान बचाने में इतना असहाय और असमर्थ हो गया है कि उसके सामने बेटियों पर विभिन्न तौर-तरीकों से हमले होते रहें और वह चुप्पी साध ले। बेटियों के मामले में हमारे समाज का खोखला आदर्शवाद कई बार प्रकट हो चुका है। छोटी-छोटी बच्चियों को शिकार बनाते हुए अगर हमारा दिल नहीं पसीजता है तो इससे शर्मनाक कुछ नहीं हो सकता। 

सम्मान देना नहीं सीख पाए
यह दुर्भाग्यपूर्ण ही है कि हम अभी तक बेटियों को सम्मान देना नहीं सीख पाए हैं लेकिन बेटियां इस सबसे बेपरवाह हमें सम्मान देने में जुटी हुई हैं। बेटियां उड़कर आसमां छू रही हैं और हम जमीन पर उन्हें दबोच कर उनके आत्मसम्मान को ठेस पहुंचा रहे हैं। हमारे देश की बेटियों ने यह कई बार सिद्ध किया है कि यदि उन्हें प्रोत्साहन और सम्मान दिया जाए तो वे हमारे देश को अंतर्राष्ट्रीय फलक पर एक नई पहचान दिला सकती हैं लेकिन आजादी के इतने वर्षों बाद भी हमारे समाज में बेटियां वह सम्मान प्राप्त नहीं कर पाईं जिसकी वे हकदार थीं। यह सही है कि इस दौर में बेटियों को लेकर समाज की सोच बदल रही है, परिवार बेटियों के पालन-पोषण और शिक्षा पर ध्यान जरूर दे रहे हैं लेकिन हमारे समाज के सामूहिक मन में बेटियों को लेकर एक अजीब-सी नकारात्मकता है। 

रियो डि जेनेरियो ओलिम्पिक्स में कांस्य पदक जीतने वाली महिला पहलवान साक्षी मलिक के पिता ने कुछ समय पहले बताया था कि जब मैं पहली बार अपनी बेटी को कुश्ती सिखाने के लिए अखाड़े में लेकर गया तो मुझे समाज के ताने सुनने पड़े थे। समाज की यह नकारात्मकता लड़कियों के आत्मविश्वास को कम करती है। जो लड़कियां इस नकारात्मकता को चुनौती के रूप में लेती हैं, वे एक न एक दिन सफलता का परचम जरूर लहराती हैं। 

यह विडम्बना ही है कि शिक्षित होने के बावजूद हम अभी आत्मिक रूप से विकास नहीं कर पाए हैं। पितृ सत्तात्मक समाज में लड़कियों को रोज नई-नई चुनौतियों का सामना करना पड़ता है। इस दौर में हमारे समाज के एक छोटे से तबके में लड़कियों को पूर्ण छूट दी जाने लगी है लेकिन यहां उनकी चुनौतियां अलग तरह की होती हैं। कुल मिलाकर पितृ सत्तात्मक समाज लड़कियों के लिए अनेक तरह के अवरोध खड़े कर रहा है, जिनके समर्थन में अलग तरह के तर्क गढ़ता है। 

क्या है प्रगतिशीलता
21वीं सदी में भी यदि लड़कियों को आगे बढऩे की कोशिश करने पर ताने सुनने पड़ें तो हमें यह सोचना होगा कि हमारी प्रगतिशीलता में कहां कमी रह गई है? केवल भाषणबाजी से समाज में प्रगतिशीलता नहीं आती है। प्रगतिशील बनने के लिए हमें बहुत-सी सड़ी-गली परम्पराओं को दाव पर लगाना पड़ता है। केवल डिग्रियां बटोर कर शिक्षित हो जाना ही समाज की प्रगतिशीलता का पैमाना नहीं है। शिक्षा ग्रहण कर समाज के हर वर्ग के उत्थान में उसका उपयोग करना ही सच्ची प्रगतिशीलता है। इस दौर में विचारणीय प्रश्न यह है कि क्या हम लड़कियों के संदर्भ में सच्चे अर्थों में प्रगतिशील हैं? क्या लड़कियों को पढ़ाना-लिखाना और आधुनिक परिधान पहनने की अनुमति देना ही प्रगतिशीलता है? दरअसल हम प्रगतिशीलता के अर्थ का उपयोग बहुत ही सीमित संदर्भों में करते हैं। 

दुर्भाग्यपूर्ण यह है कि खेलों में भी लड़कियों को अनेक स्तरों पर चुनौतियां झेलनी पड़ती हैं। छोटी उम्र में अनेक लड़कियों को समाज के डर से अपने शौक की कुर्बानी देनी पड़ती है। इसीलिए हमारे देश में बहुत सारी महिला प्रतिभाएं जन्म ही नहीं ले पाती हैं या फिर असमय दम तोड़ देती हैं। जो महिला प्रतिभाएं परिवार के प्रोत्साहन से खेलों की तरफ  रुख करती हैं, उन्हें भी अनेक पापड़ बेलने पड़ते हैं। कुछ समय पहले महिला खिलाडिय़ों के शारीरिक शोषण की घटनाएं प्रकाश में आई थीं। 

कई बार ऐसी घटनाएं प्रकाश में नहीं आ पाती हैं और खिलाडिय़ों को ताउम्र यह दर्द झेलना पड़ता है। प्रशिक्षण के दौरान और मैदान पर महिला खिलाडिय़ों से छेड़छाड़ की घटनाएं भी आम हैं। ऐसी घटनाओं और वातावरण को देखकर अन्य परिवारों का मनोबल भी टूट जाता है और वे अपनी बेटियों को खेल के क्षेत्र में भेजने से कतराने लगते हैं। रही-सही कसर खेल जगत में पसरी राजनीति पूरी कर देती है। बेटियों के खिलाफ समाज में पसरी यह राजनीति अंतत: सामाजिक विकास को पीछे धकेलती है। 

फिर भी हौसले बुलंद
इस दौर में बेटियों से बलात्कार की बढ़ती हुई घटनाएं और उन पर लगातार हो रहे हमले इस बात का प्रमाण हैं कि हम आज भी बेटियों को मात्र भोग की वस्तु मानते हैं। इस तथ्य को गलत सिद्ध करने के लिए यह कहा जा सकता है कि सारा समाज ऐसा नहीं है लेकिन वास्तविकता यह है कि जब सामने से कोई लड़की गुजरती है तो सभ्य लोगों के चेहरे पर भी एक कुटिल मुस्कान बिखर जाती है। यह कुटिल मुस्कान सिद्ध करती है कि हमारी सोच में कोई न कोई खोट जरूर है। सुखद यह है कि इस माहौल में भी लड़कियों के हौसले बुलंद हैं और वे लगातार सफलता की नई कहानियां लिख रही हैं।-रोहित कौशिक

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