स्वास्थ्य के लिए अस्पताल खोलने ही काफी नहीं

Edited By ,Updated: 02 May, 2021 04:52 AM

it is not enough to open a hospital for health

समाज के व्यापक कल्याण हेतु केन्द्र सरकार व राज्य सरकारों नेे स्वास्थ्य क्षेत्र में बहुत से कदम उठाए हैं, ताकि कोई भी व्यक्ति बिना इलाज के अपना जीवन व्यतीत करने के लिए मजबूर

समाज के व्यापक कल्याण हेतु केन्द्र सरकार व राज्य सरकारों नेे स्वास्थ्य क्षेत्र में बहुत से कदम उठाए हैं, ताकि कोई भी व्यक्ति बिना इलाज के अपना जीवन व्यतीत करने के लिए मजबूर न हो पाए। जिला मु यालय के अतिरिक्त हर गांव व कस्बे में किसी न किसी प्रकार की स्वास्थ्य संबंधी सुविधा प्रदान करने की कोशिश की गई है। विभिन्न नीतियों के अंतर्गत न केवल स्वास्थ्य सुविधा बल्कि स्वास्थ्य बीमा करने की सुविधा भी उपलब्ध की गई है। इसी के साथ-साथ निजी अस्पतालों को भी मान्यता दी गई है ताकि मरीजों को हर प्रकार का इलाज उपलब्ध हो सके। 

भारत सरकार ने कई स्कीमें जैसा कि प्रधानमंत्री सुरक्षा बीमा योजना, आयुष्मान भारत स्कीम व आम आदमी बीमा योजना इत्यादि चलाई हैं तथा मरीजों के इलाज के लिए लाखों-करोड़ों रुपए खर्चे जा रहे हैं। इन सब के बावजूद भ्रष्टाचार के सर्वत्र तांडव में आज सरकारी व निजी दोनों अस्पतालों में कई प्रकार के किस्से सुनने को मिलते हैं जिन्हें सुनकर शर्मसार होना पड़ता है। 

वास्तव में भ्रष्टाचार का रास्ता चिकना व ढलानदार भी है तथा यही कारण है कि इसने शिक्षा व चिकित्सा के क्षेत्र को भी नहीं बक्शा। कोरोना काल की विकट घड़ी में भी कई निजी व सरकारी अस्पतालों में दवाइयां व संबंधित उपकरणों की खरीद में घोटालों की घटनाएं देखने को मिलती रही हैं। कई फार्मा कंपनियां डाक्टरों से मिलीभगत करके घटिया व महंगी दवाइयों का उत्पादन करके मरीजों के जीवन से खिलवाड़ कर रही हैं। डाक्टरों के पास विभिन्न कंपनियों के मैडीकल प्रतिनिधि किसी भी समय मंडराते हुए देखे जा सकते हैं जोकि उनकी मुट्ठी गर्म करते रहते हैं तथा इस सभी का नुक्सान मरीजों को ही उठाना पड़ता है।

सरकार ने कुछेक जैनरिक दवाइयों का उत्पादन अवश्य किया है मगर डाक्टर लोग इन दवाइयों को मरीजों द्वारा खरीदे जानेे के लिए प्रेरित नहीं करते तथा जिस कंपनी के साथ सांठ-गांंठ हो उसी की दवाई खरीदने के लिए मजबूर किया जाता है। 

कई डाक्टर तो इन दवाइयों को खरीदने के लिए मरीजों को इतना मजबूर कर देते हैं कि वे खरीदी गई दवाइयों को उन्हेंं दिखाने के लिए मजबूर करते रहते हैं। आज अधिकतर बहुत से सरकारी अस्पतालों की स्थिति इतनी दयनीय बनी हुर्ई है कि विशेषज्ञ डाक्टरों की तैनाती तो कर दी गई है मगर उनके पास छोटे-मोटे परीक्षण करने की सुविधा भी नहीं है।परिणामस्वरूप मरीजों को पी.जी.आई.या फिर अन्य निजी अस्पतालों के लिए रैफर कर दिया जाता है तथा कई मरीज तो रास्ते में ही दम तोड़ जाते हैं। ऐसी भयावह स्थिति को क्या कहा जाए? क्या यह सरकार की उदासीनता का परिणाम है या फिर संबंधित विभाग के अधिकारियों व राजनीतिज्ञों की सांठ-गांंठ का कोई रूप है। 

बहुत से निजी अस्पतालों के तो वारे ही न्यारे हैं। इनके मालिकों व डाक्टरों को पता है कि कोई भी मरीज उनके पास किसी मजबूरी के कारण ही आता है तथा वे मरीजों के साथ न केवल तानाशाही व्यवहार करते हैं बल्कि उन्हें ऐसी बीमारी का रूप बता दिया जाता है जिसका इलाज शल्य चिकित्सा या फिर महंगी-महंगी दवाइयों द्वारा ही संभव बताया जाता है। मरीज को पर्ची बनवाने के लिए 200 रुपए से 1000 रुपए तक शुल्क देना पड़ता है तथा उसके बाद भी डाक्टर की मर्जी है कि मरीज को कब और कितनी बार आने के लिए मजबूर करना है। 

कुछ ही वर्ष पहले कुछ शीर्ष निजी अस्पतालों की करतूतें सामने आई थीं जब इन्होंंनेे कुछ गरीब मरीजों के इलाज हेतु बहुत ही ऊंची दरों पर बिल चार्ज किए थे जिसमें पाया गया था कि किस तरह डाक्टरों द्वारा मरीजों के दैनिक परीक्षण तीन-चार बार दर्शा कर उनसे मनमाने ढंग से पैसे वसूल किए गए। यही नहीं मरीजों को अनचाहे उपकरणों इत्यादि द्वारा इलाज करने हेतु (जैसे  कि वैंटीलेटर)  का अत्यधिक प्रयोग दर्शा कर ऊंची दरों पर बिल बनाए जाते रहे हैं। 

विड बना यह है कि स्वास्थ्य मंत्रालयों के अधिकारी आंखें मूंद कर बैठे रहते हैं तथा वह सुनिश्चित नहीं करते कि गरीब लोगों का शोषण न हो पाए। इस संबंध में मैं कुछ सुझाव प्रस्तुत कर रहा हूं जिसकी तरफ सरकार को ध्यान देना चाहिए। 

1. निजी अस्पतालों को मान्यता देने के लिए उच्च स्तरीय कमेटी का गठन करना चाहिए जिसमें संबंधित जिलों के डिप्टी कमिश्नर, मु य चिकित्सा अधिकारी व स्वास्थ्य मंत्रालय का संबंधित उच्च स्तरीय अधिकारी इन अस्पतालों का भ्रमण करे तथा मान्यता देने से पहले सुनिश्चित करें कि संबंधित अस्पताल आवश्यक मापदंड पूर्ण करता है।
2. अस्पताल के डाक्टरों व स्टाफ का मरीजों व उनके अभिभावकों के साथ उचित सौहार्दपूर्ण व्यवहार संबंधी साक्षात्कार रखा जाना चाहिए।
3. वर्ष में कभी भी गठित की गई उच्च स्तरीय कमेटी द्वारा औचक निरीक्षण करना चाहिए तथा जरूरत के अनुसार उनकी मान्यता पर पुनर्विचार करना चाहिए।
4. अस्पताल में उचित स्थानों पर एक शिकायत पत्र पेटी लगानी चाहिए जिसमें कोई भी व्यक्ति अस्पताल में मिल रही सुविधाओं तथा डाक्टरों व स्टाफ का मरीजों के साथ व्यवहार से संबंधित शिकायत पत्र डाल सके। यह पेटी सीलबंद होनी चाहिए तथा महीने में एक बार जिले में गठित की गई कमेटी द्वारा खोली जानी चाहिए तथा जरूरत के अनुसार शिकायतकत्र्ता को बुला कर संबंधित डाक्टर/स्टाफ को जि मेदार ठहराना चाहिए। 

5.यदि कोई अस्पताल किसी बात की अवहेलना करता पाया जाता है तो उसकी मैनेजिंग कमेटी को एक- दो बार वाॄनग देने के उपरांत उस अस्पताल की मान्यता रद्द कर देनी चाहिए।
6.जिला स्तरीय सतर्कता कमेटी में कोई रिटायर्ड आई.ए.एस./ आई.पी.एस. या अन्य रिटायर्ड अधिकारी को स िमलित करना चाहिए।
7. डाक्टरों व मैडीकल कंपनियों व कैमिस्टों की आपसी सांठ-गांठ के संबंध में भी समय-समय पर जांच होनी चाहिए।
8. सरकारी डाक्टरों  जिन्हें एन.पी.ए. भी दिया जाता है, द्वारा अपने घरों में या किसी निजी अस्पताल में सेवाएं देने के लिए स्थानीय विजीलैंस पुलिस या किसी अन्य संस्था को नजर रखने के लिए अधिकृत किया जाना चाहिए। 

9.सरकारी अस्पतालों में तैनात डाक्टरों के स्थानांतरण हेतु स्थानीय राजनीतिज्ञ के हस्तक्षेप पर रोक लगानी चाहिए तथा योग्य डाक्टरों की प्रताडऩा नहीं होनी चाहिए।
10. दवा बनाने वाली फार्मा कंपनियों द्वारा दवाइयों की मनमानी कीमत निश्चित करने पर अंकुश लगाना चाहिए तथा उनके द्वारा तय की गई एम.आर.पी. (अधिकतम मार्कीट कीमत) की समीक्षा करनी चाहिए ताकि मरीजों को दस रुपए वाली गोली खरीदने के लिए 70 से 80 रुपए न चुकाने पड़ें।-राजेंद्र मोहन शर्मा
 

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