ऐसे भी होते थे राजनेता

Edited By Updated: 12 Dec, 2023 05:48 AM

such were the politicians

आज राजनीति एक गंदा शब्द है और नेता होना एक गाली। अगर राजनीति सत्तालोलुपता, अवसरवादिता और भ्रष्टाचार का पर्याय है तो नेता अहंकार, झूठ और मक्कारी के प्रतीक हैं। ऐसे में अगर कोई हमें कहे कि राजनीति में सादगी, सरलता और समर्पण हो सकता है तो हमें यह...

आज राजनीति एक गंदा शब्द है और नेता होना एक गाली। अगर राजनीति सत्तालोलुपता, अवसरवादिता और भ्रष्टाचार का पर्याय है तो नेता अहंकार, झूठ और मक्कारी के प्रतीक हैं। ऐसे में अगर कोई हमें कहे कि राजनीति में सादगी, सरलता और समर्पण हो सकता है तो हमें यह अविश्वसनीय लगता है या फिर किसी गुजरे जमाने का किस्सा। 

नई पीढ़ी के युवाओं को भरोसा नहीं होता कि कुछ समय पहले तक भारतीय राजनीति में न जाने कितने ऐसे नेता और कार्यकत्र्ता होते थे जो व्यक्तिगत महत्वाकांक्षा के लिए नहीं बल्कि बेहतर देश और दुनिया की आकांक्षा के लिए राजनीति करते थे। अनेक सांसदों और विधायकों का गरीबी में जीना बहुत असामान्य नहीं था। राजनीति में रहते हुए भी वे एक अलिखित मर्यादा का पालन करते थे। आज भी जनांदोलनों में ऐसे ढेरों नेता और कार्यकत्र्ता मिल जाएंगे। लेकिन वे हमारे दृष्टि पटल से ओझल रहते हैं। 

मेरा यह सौभाग्य रहा है कि मैं अपने जीवन में ऐसे अनेक नेताओं का सान्निध्य और आशीर्वाद पा सका। बचपन में हमारे शहर श्रीगंगानगर में समाजवादी नेता केदारनाथ शर्मा की सादगी और जनता से नजदीकी को देखा। उच्च शिक्षा के लिए जब जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय गया तो वहां अपने अग्रज सुनील जी से मिला और जाना कि गांधी कैसे रहे होंगे। फिर वहीं किशन पटनायक से मुलाकात हुई और राजनीति में वैचारिक और चारित्रिक ऊंचाई को अपनी आंखों से देखने का मौका मिला। उनकी संगत में रहते हुए सच्चिदानंद सिन्हा, अशोक सेकसेरिया और सुरेंद्र मोहन जैसी शख्सियतों से मुलाकात हुई और वैचारिक शिक्षा के साथ-साथ मर्यादा का संस्कार भी पाया। मेरी राजनीतिक दीक्षा गांधीवादी समाजवादी धारा में हुई, लेकिन आदर्श की राजनीति केवल इस धारा तक सीमित नहीं रही। आजादी से पहले की कांग्रेस और बाद में सोशलिस्ट, कम्युनिस्ट और जनसंघ में भी बेशुमार नेता सादगी और समर्पण के लिए जाने जाते थे।

हमारे सार्वजनिक जीवन से यह प्रजाति लुप्त होती जा रही है लेकिन आज भी आदर्शवादी राजनीति की मिसाल देखी जा सकती है। ऐसे ही एक राजनेता थे शिवपूजन सिंह जिनका 30 नवम्बर को 84 वर्ष की आयु में निधन हो गया। बिहार के रोहतास जिले के दिनारा प्रखंड में एक किसान के घर पैदा हुए शिवपूजन सिंह युवावस्था से ही समाजवादी आंदोलन से जुड़ गए। एमरजैंसी के दौरान जेल में रहे और 1977 में जनता पार्टी की टिकट पर दिनारा क्षेत्र से बिहार विधानसभा के सदस्य बने। 

तब बिहार ने शिवपूजन जी की ईमानदारी के दर्शन किए। विधायकों की ठाठ-बाट का तिरस्कार कर शिवपूजन जी अपने समाजवादी संस्कार के प्रति सच्चे बने रहे। जब सरकार ने विधायकों का वेतन भत्ता बढ़ा दिया था तो शिवपूजन जी इकलौते विधायक थे जिन्होंने विधानसभा में इसका पुरजोर विरोध किया था। यही नहीं, उन्होंने बढ़ा हुआ वेतन लेने से इंकार किया। सरकार की जिद थी कि नियमानुसार हर विधायक को बढ़ा हुआ वेतन ही लेना होगा। ऐसे में शिवपूजन जी को बगैर वेतन के रहना पड़ा था। शिवपूजन जी किसी रईस खानदान से नहीं थे और उन्हें हर किस्म की तंगी का सामना करना पड़ा। लेकिन वह अपने फैसले से नहीं डिगे। विधायक की पैंशन भी उन्होंने 60 साल की उम्र होने तक नहीं ली। जीवन भर खादी के मोटे कपड़े पहने, गांव में किसानों के बीच किसानों की तरह रहे। उनकी बेजोड़ सादगी और बेदाग ईमानदारी के किस्से पूरे बिहार में प्रसिद्ध रहे हैं। 

मुझे उनके जीवन की सादगी के साथ-साथ उनके चरित्र की सादगी ने हमेशा आकॢषत किया। राजनीति में सादगी का जीवन जीने वाले लोग अक्सर आत्मश्लाघा का लोभ संवरण नहीं कर पाते। त्याग का अहंकार अक्सर झलक जाता है। लेकिन शिवपूजन जी में मैंने रत्ती भर अहंकार नहीं पाया। उनके स्वभाव में एक बाल सुलभ सरलता थी जिसके चलते उन्हें राजनीति में कई बार धोखा और नुकसान उठाना पड़ा। साथ ही उनके बोलचाल और व्यवहार में नारी सुलभ संकोच और मृदुता थी जो राजनीति में दिखाई नहीं देती। अपने आप को पीछे रख साथियों और संगठन को प्राथमिकता देना उनके स्वभाव का हिस्सा था। 

लेकिन मृदुता का अर्थ यह नहीं कि वह सिद्धांतों से समझौता करें। शिवपूजन जी जीवन भर किसान आंदोलन से जुड़े रहे और अनेक बार जेल गए। वह 80 के दशक में महेंद्र सिंह टिकैत के नजदीकी सहयोगी भी रहे थे। वर्ष 1980 में नहर के पानी के आंदोलन में उनकी गिरफ्तारी हुई थी। उन्होंने फैसला किया कि वह जमानत नहीं लेंगे। नतीजतन 26 महीनों तक वह सासाराम जेल में रहे। उनकी रिहाई के लिए उनके क्षेत्र के किसानों ने दिनारा से सासाराम तक 40 किलोमीटर का पैदल मार्च किया था। एक बार विधायक बनने के बाद शिवपूजन जी ने बड़ी पाॢटयों से किनारा कर लिया। इसके चलते हुए चुनावी राजनीति में फिर कभी सफल नहीं हो पाए लेकिन तमाम प्रलोभनों के बावजूद उन्होंने सत्ता की राजनीति से समझौता नहीं किया। 

सत्य के प्रति अडिग रहना और सिद्धांतों से कभी समझौता न करना उनके समाजवादी संस्कार का परिचायक थी। मैं अक्सर सोचता हूं कि राजनीति के दलदल में रहते हुए भी उन जैसे लोग कैसे अपने आप को बचा पाए। जाहिर है इसके पीछे उनका अपना चारित्रिक बल रहा होगा लेकिन इसका एक बड़ा कारण वह समूह था जिसके साथ उन्होंने अपनी राजनीति की यात्रा की। उनका संपर्क 1967 में किशन पटनायक से हुआ और जीवन पर्यंत उनके साथ जुड़े रहे। पहले लोहिया विचार मंच फिर जनता पार्टी और समता संगठन से जुड़े रहे शिवपूजन जी समाजवादी जन परिषद के संस्थापकों में से थे। जैसा मैंने ऊपर कहा किशन जी के संसर्ग में बने इस राजनीतिक ‘घराने’ में शुचिता और मर्यादा सर्वोपरि थी। 

पिछले चार दशकों के सार्वजनिक जीवन में मुझे शिवपूजन सिंह जी के सान्निध्य का सौभाग्य मिला। समता संगठन से समाजवादी जन परिषद होते हुए स्वराज इंडिया तक की यात्रा में मुझे हमेशा शिवपूजन जी का नेतृत्व और मार्गदर्शन मिला। पिछले दो वर्षों से उनकी तबीयत खराब रहने लगी थी, फिर भी वह पत्र के माध्यम से सलाह और निर्देश देते रहते थे। उनका निधन मुझ जैसे कार्यकत्र्ताओं के लिए व्यक्तिगत नुकसान तो है ही, साथ ही राजनेताओं की इस जमात का उठ जाना हमारे लोकतंत्र के प्रभाव का संकेत भी है। आने वाली पीढिय़ों को विश्वास नहीं होगा कि ऐसे राजनेता कभी हमारे देश में हुआ करते थे। आदर्श राजनीति करने वाले ये नेता संख्या में सदैव कम थे लेकिन देश की राजनीति की दिशा और दशा को बनाए रखने में इनकी महत्वपूर्ण भूमिका रहती थी। सार्वजनिक जीवन में लुप्त होती इस प्रजाति को बचाना ही शिवपूजन जी के लिए सच्ची श्रद्धांजलि होगी।-योगेन्द्र यादव

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