Edited By ,Updated: 02 Oct, 2025 04:24 AM

एक ऐसी सरकार जो केवल एकतरफा बातचीत या सिर्फ ‘मन की बात’ व्यक्त करने में विश्वास करती है और विपक्षी दलों या मीडिया या सामाजिक कार्यकत्र्ताओं के सवालों का जवाब देने को तैयार नहीं है, उसके लिए संवेदनशील लद्दाख क्षेत्र में स्थिति को संभालना हैरान करने...
एक ऐसी सरकार जो केवल एकतरफा बातचीत या सिर्फ ‘मन की बात’ व्यक्त करने में विश्वास करती है और विपक्षी दलों या मीडिया या सामाजिक कार्यकत्र्ताओं के सवालों का जवाब देने को तैयार नहीं है, उसके लिए संवेदनशील लद्दाख क्षेत्र में स्थिति को संभालना हैरान करने वाला है। क्षेत्र के निवासी जो लगभग सभी आदिवासी समुदाय से हैं, अधिक स्वायत्तता की मांग और अपने प्रशासन में अपनी बात रखने के लिए वर्षों से शांतिपूर्ण तरीके से विरोध प्रदर्शन कर रहे हैं। यह मांग 2019 में जम्मू और कश्मीर राज्य के 2 केंद्र शासित प्रदेशों में विभाजन से पहले की है। लद्दाख क्षेत्र के मूल निवासी जो जम्मू और कश्मीर क्षेत्र से लगभग 3 गुना आकार का है, पहले से ही जम्मू और कश्मीर से अलग होने की मांग कर रहे थे क्योंकि इन क्षेत्रों के लोग राज्य की राजनीति पर हावी रहे हैं।
इस तरह लद्दाख के एक अलग केंद्र शासित प्रदेश के निर्माण का स्वागत किया गया। हालांकि, केंद्र सरकार ने जम्मू और कश्मीर केंद्र शासित प्रदेश के लिए एक निर्वाचित विधानसभा का प्रावधान प्रदान किया लेकिन उसने लद्दाख केंद्र शासित प्रदेश के लिए ऐसा नहीं किया। इस प्रकार लद्दाख को नौकरशाही की मदद से एक उपराज्यपाल के प्रशासन के लिए छोड़ दिया गया। लद्दाखी जो लंबे समय से अपने स्थानीय मामलों में ज्यादा अधिकार की मांग कर रहे थे, उनकी शिकायत जायज थी। उन्होंने शांतिपूर्ण विरोध का लोकतांत्रिक रास्ता चुना, जो सरकार की लंबी निष्क्रियता और विरोध प्रदर्शनों की कठोर परिस्थितियों के बावजूद जारी रहा। इन विरोध प्रदर्शनों का नेतृत्व कई लद्दाखी नेताओं ने किया, जिनमें पर्यावरणविद् और नवोन्मेषक सोनम वांगचुक भी शामिल थे, जिन्होंने उपवास करके और अपनी आवाज उठाकर अपना समर्थन दिया।
पिछले साल सितंबर में उनके नेतृत्व में लद्दाखियों के एक समूह ने अपनी मांगें रखने के लिए दिल्ली तक मार्च निकाला था। राष्ट्रीय राजधानी में कोई भी केंद्रीय नेता उनसे मिलने या बात करने तक को तैयार नहीं हुआ। उन्हें लद्दाख भवन तक ही सीमित रखा गया और उन्हें अपने सामान्य धरना स्थल -‘जंतर-मंतर’ पर शांतिपूर्वक विरोध प्रदर्शन करने की भी अनुमति नहीं दी गई। वे केवल आदिवासी क्षेत्रों को अतिक्रमण और शोषण से बचाने के लिए संवैधानिक सुरक्षा उपायों की मांग कर रहे हैं। लद्दाख को पूर्ण राज्य का दर्जा देने की अपनी मांग के अलावा, वे संविधान की छठी अनुसूची में लद्दाख को शामिल करना चाहते हैं, जिसमें क्षेत्रीय स्वशासन संस्थाओं, स्थानीय लोगों के लिए नौकरियों में आरक्षण और लेह तथा कारगिल क्षेत्रों के लिए एक-एक संसदीय सीट का प्रावधान हो।
उनकी सबसे बड़ी चिंता जनसांख्यिकी में बदलाव और आदिवासी जमीनों की सुरक्षा है। उन्हें आशंका है कि देश के दूसरे हिस्सों से लोग उद्योग लगाएंगे, व्यापार स्थापित करेंगे, जमीनें खरीदेंगे, बाहर से लोगों को लाएंगे जिससे जनसांख्यिकी में बदलाव आएगा और स्थानीय लोगों की नौकरियां खत्म हो जाएंगी। यह क्षेत्र, विशेष रूप से लेह और कारगिल, पर्यटकों के बीच बेहद लोकप्रिय हो गए हैं, जिससे अति-पर्यटन की समस्या पैदा हो रही है। इसका असर वहां के युवाओं पर भी कई तरह से पड़ रहा है।
चीन और पाकिस्तान की सीमा से सटे इस क्षेत्र की संवेदनशीलता को कम करके नहीं आंका जा सकता जबकि इनकी कुल आबादी सिर्फ 3 लाख है। लद्दाखियों को सच्चे राष्ट्रवादी और हमारी रक्षा की पहली सीमा के रूप में जाना जाता है। सोनम वांगचुक की कठोर राष्ट्रीय सुरक्षा कानून (एन.एस.ए.) के तहत गिरफ्तारी न तो उचित है और न ही वांछनीय। वे न केवल लद्दाख में बल्कि पूरे देश में एक सम्मानित व्यक्ति हैं। उन्होंने गांधीवादी विरोध शैली अपनाई थी और कभी हिंसा नहीं भड़काई। दरअसल, युवाओं के एक वर्ग के हिंसक हो जाने के बाद उन्होंने अपना अनशन समाप्त कर दिया था। न केवल उन्हें एक समझदार व्यक्ति माना जाता है बल्कि विभिन्न सरकारी विभाग भी विभिन्न मुद्दों पर उनसे सलाह लेते रहे हैं। उनके पाकिस्तानियों के ‘संपर्क’ में होने के बेतुके आरोपों पर सरकार की चुप्पी चौंकाने वाली है और उसे आग से खेलना बंद करना चाहिए। अब समय आ गया है कि सरकार लद्दाख के लोगों तक पहुंचे और उनकी बात सुने। सरकार का अडिय़ल रवैया लद्दाखियों के साथ-साथ देश के लिए भी अच्छा नहीं है। देश ने पूर्वोत्तर के कुछ इलाकों की इसी तरह उपेक्षा की बहुत बड़ी कीमत चुकाई है। लद्दाख में इतिहास को दोहराया नहीं जाना चाहिए।-विपिन पब्बी