‘गरीबी हटाओ’ के नारों का आज तक कोई खास नतीजा नहीं निकला

Edited By Updated: 30 Sep, 2017 12:50 AM

the slogans of  garibi hatao have not yielded any special results till date

भविष्य के ‘न्यू इंडिया’ के संबंध में प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी की उद्घोषणाओं की सिंह गर्जना के बावजूद सामाजिक विषमता के सबसे महत्वपूर्ण मुद्दे....

भविष्य के ‘न्यू इंडिया’ के संबंध में प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी की उद्घोषणाओं की सिंह गर्जना के बावजूद सामाजिक विषमता के सबसे महत्वपूर्ण मुद्दे की ओर सरकार का कोई खास ध्यान नहीं गया है। ऐसा कहने का यह अभिप्राय नहीं कि मैं प्रधानमंत्री के नेक इरादों पर सवाल खड़े कर रहा हूं। मैं तो देश में बढ़ती सामाजिक विषमता और इससे जुड़े हुए गरीबी जैसे घटनाक्रम के लिए भी उन्हें दोष नहीं देता। 

यह तो कांग्रेस के 60 वर्ष के शासन की धरोहर है। प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने सबसे पहले  ‘गरीबी हटाओ’ का जयघोष किया था लेकिन जमीनी स्तर पर इसका कोई खास नतीजा नहीं निकला था। यही भारत की त्रासदी है। देश का राजनीतिक वर्ग बिना कोई प्रभावी कारगुजारी दिखाए लोगों को ‘शाइनिंग इंडिया’ के राजपथ पर ले जाने के लिए केवल और केवल नारेबाजी का ही सहारा लेता आया है। खेद की बात है कि हमारे इतिहास के विभिन्न पड़ावों पर अलग-अलग नेताओं ने बहुत धूमधाम से गरीबी विरोधी कार्यक्रमों का श्रीगणेश किया था। इसके बावजूद कड़वी सच्चाई यह है कि गरीबी की समस्या हमारे लिए सदा की तरह विकराल बनी हुई है। 30 करोड़ से अधिक लोग अभी भी दो जून की रोटी का जुगाड़ करने के लिए संघर्षरत हैं।

इस स्थिति के लिए मुख्यत: यह कारण जिम्मेदार है कि संस्थागत ढांचे में बहुअपेक्षित आधारभूत बदलावों की ओर किसी ने ध्यान नहीं दिया। ऐसे में यदि हमारे समाज का विषमतापूर्ण ढांचा पहले की तरह फल-फूल रहा है तो इसमें हैरानी की कोई बात नहीं। लेकिन लंबे समय तक यह स्थिति जारी रहने का नतीजा यह हुआ है कि कागजी कार्रवाई (यानी कानूनों के सृजन) तथा सुधारों की नीतियों के कार्यान्वयन के बीच खाई लगातार चौड़ी होती जा रही है। यहां तक कि सत्ता के विकेन्द्रीकरण के वांछित परिणाम हासिल नहीं हुए हैं। यदि कोई नतीजा निकला है तो वह केवल यह है कि ओछी अमीरशाही के हाथों में सत्ता केन्द्रित होने का मार्ग प्रशस्त हुआ है। मुझे खेद से कहना पड़ता है कि प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने भी बहुत हद तक प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष रूप में परस्पर जुड़ी हुई गरीबी और सामाजिक विषमता की दोहरी समस्याओं से निपटने के लिए अनिवार्य ढांचागत सुधारों की ओर कोई खास तवज्जो नहीं दी है। 

यही कारण है कि घड़े जैसे पेट वाले कुपोषित बच्चों और भूखे मुंहों वाला गरीबी का बाजार लगातार बढ़ता जा रहा है। होता यह है कि गरीबी का आधारभूत मुद्दा हमारे नेताओं व उनके पिछलग्गुओं की राजनीति के साथ-साथ गरीबी उन्मूलन के अधकचरे एवं छिद्रों से भरे गरीबी उन्मूलन कार्यक्रमों में उलझ कर रह गया है। अब देश में सामाजिक व आर्थिक विषमता बढऩे की रिपोर्टें लगातार आती रहती हैं और विचलित भी करती हैं। फिर भी शासक वर्ग में यह एहसास पैदा नहीं होता कि बढ़ती विषमता पायदार आर्थिक वृद्धि की जड़ों में तेल देने के साथ-साथ गरीबी उन्मूलन के चल रहे कार्यक्रमों की रफ्तार भी सुस्त कर देती है। वल्र्ड इक्नॉमिक फोरम की वैश्विक जोखिमों के बारे में रिपोर्ट यह स्पष्ट दिखाती है कि आर्थिक विषमता के फलस्वरूप स्वास्थ्य, शिक्षा एवं मानसिक रोगों व हिंसक अपराधों जैसी सामाजिक समस्याओं का मार्ग प्रशस्त होता है। 

जोहान्सबर्ग आधारित कम्पनी ‘न्यू वल्र्ड वैल्थ’ की रिपोर्ट कहती है कि ‘‘वैश्विक स्तर पर भारत दूसरा सबसे अधिक विषमता भरा देश है। जहां अरबपति भी इसकी 54 प्रतिशत दौलत पर काबिज हैं, दूसरी ओर कुल 5600 अरब डालर की व्यक्तिगत दौलत के चलते यह दुनिया के 10 सबसे अमीर देशों में से एक है। इसके बावजूद औसत भारतीय अपेक्षाकृत गरीब है।’’ कितनी विरोधाभासी स्थिति है! स्विट्जरलैंड के ‘क्रैडिट स्विस’ बैंक के ताजातरीन आंकड़े दिखाते हैं कि भारत के 1 प्रतिशत सबसे अमीर लोग इसकी 53 प्रतिशत दौलत पर काबिज हैं। विडम्बना देखिए कि इस आंकड़े के मामले में भारत ने अमरीका को भी पीछे छोड़ दिया है क्योंकि वहां सबसे धनाढ्य 1 प्रतिशत लोग केवल 37.3 प्रतिशत दौलत पर काबिज हैं।

अर्थशास्त्रियों टॉमस पिकेट्टी एवं ल्यूकस चैंसल द्वारा तैयार किया गया शोध पत्र हमें यह भी बताता है कि भारत का यह सबसे अमीर वर्ग सबसे निचले 50 प्रतिशत लोगों की तुलना में 130 गुणा अमीर हुआ है जबकि 40 प्रतिशत मध्यवर्गीय लोग निचले 50 प्रतिशत की तुलना में 3 गुणा अधिक अमीर हुए हैं। ‘ऑक्सफैम’ के अनुसार भारत की विषमता में यह तीसरी वृद्धि... ‘‘गरीबी उन्मूलन की रफ्तार घटाने, आर्थिक वृद्धि की पायदारी को पलीता लगाने, पुरुषों और महिलाओं के बीच विषमता बढ़ाने के साथ-साथ स्वास्थ्य, शिक्षा एवं जीवनप्रत्याशा के मामले में भी विषमता को बढ़ावा देने का मार्ग प्रशस्त करेगी।’’ 

नीतिगत बदलावों पर काम करते हुए भारत के राजनीतिक-नौकरशाह स्वामी क्या इन कड़वे सामाजिक आर्थिक तथ्यों का संज्ञान लेते हैं? शायद नहीं। देश का शासक वर्ग गरीबों और वंचितों के प्रति संवेदनहीनता के लिए पहले ही काफी बदनाम है। हम जानते हैं कि आमदन की विषमताएं किस तरह शिक्षा एवं स्वास्थ्य सेवाओं के क्षेत्र में तबाही मचा रही हैं और इससे समाज के वंचित लोगों को ही नुक्सान पहुंचता है। यह बात खास तौर पर निराशाजनक है कि 3 वर्ष का कार्यकाल बीत जाने के बाद भी मोदी सरकार खुद को पूर्ववर्ती कांग्रेस सरकारों से अलग तरह का सिद्ध नहीं कर पाई है। ऐसी बात नहीं कि सामाजिक विषमता की समस्या को प्रभावशाली ढंग से हाथ न डाला जा सके। इस काम के लिए नीतिगत बदलावों के साथ-साथ कराधान एवं सामाजिक खर्च के क्षेत्र में भी सुधार करने होंगे। 

टैक्स सुधार का सबसे पहला लक्ष्य संसाधनों का इस ढंग से पुन: वितरण होना चाहिए कि लाभ कमाने वाली कम्पनियां और अमीर व्यक्ति अधिक टैक्स अदा करें जिससे समाज के व्यापक कल्याण हेतु दौलत के विवेकपूर्ण वितरण में सहायता मिले। भारत जैसे विकासशील देश में केवल ऐसी नीति को न्यायपूर्ण एवं समतावादी कह सकता हूं। यह अच्छी बात है कि नरेन्द्र मोदी सर्वसमावेशी विकास के बारे में बातें करते हैं लेकिन जब तक वे ‘आय वितरण’ तथा समावेश को राष्ट्रीय नीति तथा आर्थिक सुधारों का अटूट अंग नहीं बनाते तब तक यह काम किस तरह संभव हो पाएगा?

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