बिहार में नई राजनीति की आहट

Edited By Updated: 28 Nov, 2025 05:05 AM

the sound of new politics in bihar

बिहार विधानसभा चुनाव के नतीजों से इतर एक नई राजनीति की आहट साफ सुनाई दे रही है। बिहार के नए मंत्रिमंडल की पहली बैठक में ही अगले 5 सालों में 1 करोड़ युवकों को नौकरी-रोजगार का फैसला हो या फिर 25 चीनी मिलें खोलने की घोषणा, साफ संकेत देते हैं कि नीतीश...

बिहार विधानसभा चुनाव के नतीजों से इतर एक नई राजनीति की आहट साफ सुनाई दे रही है। बिहार के नए मंत्रिमंडल की पहली बैठक में ही अगले 5 सालों में 1 करोड़ युवकों को नौकरी-रोजगार का फैसला हो या फिर 25 चीनी मिलें खोलने की घोषणा, साफ संकेत देते हैं कि नीतीश कुमार की सरकार इस बार ठोस आर्थिक विकास के रास्ते पर बढऩा चाहती है। मंत्रिपरिषद की पहली बैठक में बिहार आर्टिफिशियल इंटैलीजैंस मिशन बनाने की भी घोषणा की गई। बिहार में टैक हब, डिफैंस कॉरिडोर, सैमी कंडक्टर मैन्युफैक्चरिंग पार्क, मैगा टैक और फिनटैक सिटी बनने का फैसला भी किया गया। बिहार वासी इस तरह की पहल का लंबे समय से इंतजार कर रहे थे। 

सरकार के इन फैसलों पर विधानसभा चुनावों की छाप साफ दिखाई दे रही है। नीतीश कुमार के नेतृत्व में एन.डी.ए. को अच्छी-खासी जीत भले मिल गई लेकिन चुनाव अभियान के दौरान बिहार से मजदूरों के पलायन, रोजगार, शिक्षा और स्वास्थ्य के मुद्दे पर जवाब देना एन.डी.ए. के नेताओं के लिए भारी पड़ रहा था। इसमें कोई दो राय नहीं कि ‘जंगल राज’ के भय और लाभार्थी मतदाताओं ने एन.डी.ए. की जीत में अहम भूमिका अदा की लेकिन विपक्ष उन मुद्दों को भी जनता तक पहुंचाने में कामयाब रहा जो सालों से बिहार के विकास में रुकावट बने हुए हैं।
सालों बाद यह पहला चुनाव था, जब जाति पर आॢथक मुद्दे हावी रहे। चुनाव के नारे बदले-बदले दिखाई दिए और चुनावी नतीजों के साथ ही नई सरकार के लिए नया एजैंडा छोड़ गए। नई सरकार के सामने अब पलायन और रोजगार बड़े मुद्दे हैं। बदतर  शिक्षा व्यवस्था और बीमार अस्पतालों को लोग स्वीकार नहीं करेंगे। मंत्रिमंडल के फैसले साफ संकेत देते हैं कि सरकार ने इन संकेतों को समझ लिया है। लेकिन सबसे बड़ा सवाल यह है कि लाभार्थी समूह को लुभाने पर खजाना खाली कर चुकी सरकार अब अपनी नई योजनाओं के लिए पैसा कहां से जुटाएगी। बिहार के सामने फिलहाल एक ही रास्ता दिखाई देता है, केंद्र सरकार से मदद। क्या केंद्र इतनी उदारता दिखाएगा? 

बदले-बदले से सरकार : आजादी के बाद से बिहार की राजनीति कांग्रेस और समाजवादी पाॢटयों के इर्द-गिर्द घूमती रही है। लालू यादव और नीतीश कुमार समाजवादी पाॢटयों के दो धड़े ही हैं जिनकी जमीन जय प्रकाश नारायण, कर्पूरी ठाकुर और डा. राम मनोहर लोहिया के विचारों पर टिकी है। नब्बे के दशक के बाद ङ्क्षहदी पट्टी पर धीरे-धीरे भाजपा का भगवा रंग छा गया लेकिन बिहार में उनकी सफलता नीतीश कुमार की बैसाखी पर ही टिकी रही। कम से कम वैचारिक स्तर पर तीसरी शक्ति के रूप में प्रशांत किशोर और उनकी जन सुराज पार्टी के उदय ने भविष्य की राजनीति को नई दिशा देने में महत्वपूर्ण भूमिका अदा की है। 

1990 से लेकर 2025 चुनाव पूर्व की राजनीति मुख्यत: सामाजिक न्याय की दो शक्तियों में बंटी हुई थी। एक खेमा अधिक उग्र और आक्रामक था, जिसका नेतृत्व पहले लालू प्रसाद यादव ने किया और अब तेजस्वी यादव कर रहे हैं। इस दौर में यादव जैसे अपेक्षाकृत समृद्ध पिछड़े वर्ग ने अल्पसंख्यकों के साथ मिलकर संसाधनों पर सवर्ण वर्चस्व को चुनौती दी। दूसरा खेमा उदार और समावेशी था, जिसका नेतृत्व नीतीश कुमार ने किया। नीतीश ने ही इसे अति पिछड़ा और अति दलित का नाम दिया। यह धड़ा सवर्ण को साथ लेकर चलते हुए भी सामाजिक न्याय के रास्ते पर ही आगे बढ़ा। लेकिन राज्य में औद्योगिक विकास के अभाव ने लोगों को वास्तविक सामाजिक न्याय से दूर रखा।

बिहार से दूर बिहारी : गुजरात या राजस्थान (मारवाड़) की तरह आम बिहारी ख़ुद उद्योग-धंधा शुरू करने की स्वाभाविक प्रवृत्ति नहीं रखते। उन्हें नौकरी चाहिए-सरकारी या कम से कम प्राइवेट। लेकिन अनेक बिहारियों ने राज्य के बाहर जाकर बड़े उद्योग खड़े किए। अनिल अग्रवाल बिहार के ही हैं, जिनकी वेदांता कंपनी देश और दुनिया में स्टील और खनन के क्षेत्र में अग्रणी है। उनका पूंजी निवेश ओडिशा और अन्य कई राज्यों तथा विदेश में है लेकिन बिहार में नहीं। संप्रदा सिंह की मुंबई स्थित अलकेम लैबोरेटरीज देश की शीर्ष दवा निर्माण कंपनी है।  

1990 के बाद बिहार में सामाजिक न्याय आंदोलन तो तेज हुआ लेकिन उद्योगों का सर्वनाश भी इसी दौर में शुरू हुआ। उस समय देश का लगभग 36 प्रतिशत चीनी उत्पादन बिहार में होता था। 1990 के बाद करीब 15 चीनी मिलें बंद हो गईं। बिहार में पिछले 35-40 सालों से सरकारों ने उद्योग विकास पर कभी ध्यान ही नहीं दिया। 

लालू बनाम नीतीश : नीतीश ने जातियों से ऊपर उठ कर महिलाओं को पिछड़ों के अलग समूह के रूप में पहचाना, जहां लालू चूक गए थे। नीतीश ने लड़कियों की शिक्षा को सर्वोपरि रखा। 2007 में स्कूल जाने वाली लड़कियों को साइकिल बांटना शुरू करके नीतीश ने महिला को राजनीतिक शक्ति बनाने की पहल शुरू की। पंचायती संस्थाओं में महिलाओं के लिए आरक्षण ने महिलाओं की अलग राजनीतिक पहचान बनाने में मदद की। अंतत: जीविका दीदी के रूप में रोजगार सृजन ने महिलाओं को आंशिक रूप से आत्मनिर्भर बनने का रास्ता दिखाया। 

लालू का दौर (1990-2005) सामाजिक संघर्ष के चलते उथल-पुथल से भरा हुआ था। राज्य के कुछ क्षेत्रों में नक्सलवादियों का वर्चस्व, जातीय सेनाओं का उदय और विस्तार, सामूहिक हत्या और राजनीति संरक्षित अराजक समूहों का दबदबा उनके दौर की दु:स्वप्न गाथा बन गई। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और गृह मंत्री अमित शाह ने चुनाव अभियान में इसे ही ‘जंगल राज’ का नाम दिया। लालू अब राजनीति में निष्क्रिय हैं, लेकिन उनके पुत्र तेजस्वी यादव को उसका जवाब भी देना पड़ रहा है और नुकसान भी उठाना पड़ रहा है। यह एक बड़ा कारण है, जिसके चलते बिहारी उद्योगपतियों ने कभी बिहार की तरफ नहीं देखा। चुनाव के नतीजे कुछ भी हों, बिहार में सरकार की परीक्षा अब इन्हीं मानदंडों पर होगी। अब कोई नेता यह कह कर शायद युवा पीढ़ी को संतुष्ट नहीं कर पाएगा कि बिहार में उद्योग के लिए जमीन नहीं है। जमीन तो है, नीयत ठीक करने और औद्योगिक दृष्टि की जरूरत है। महिलाओं ने सीड मनी (10 हजार का अनुदान) देख ली है, आगे उसकी भूख बढ़ेगी। तेजस्वी ने 30 हजार का सपना पहले ही दिखा दिया है। नई सरकार पुराना डर दिखा कर नए दौर के अपराधों को चुपचाप सहने के लिए मजबूर नहीं कर सकती। इस चुनाव ने एक नए बिहार का बीज बो दिया है।-शैलेश कुमार 
 

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