राजनीतिक चंदे की थोड़ी बहुत पारदर्शिता भी ‘इलैक्शन बांड’ से खत्म हो जाएगी

Edited By ,Updated: 08 Feb, 2017 11:18 PM

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संसद में मेजों की थपथपाहट सुन कर मेरा माथा ठनका

संसद में मेजों की थपथपाहट सुन कर मेरा माथा ठनका। गुरदास मान का गीत याद आया.... ‘‘मामला गड़बड़ है’’। जिन राजनेताओं के कालेधन को रोकने के लिए प्रस्ताव लाया जाए वही सब मिलकर इसका स्वागत करें, और आप क्या कहेंगे। मामला गड़बड़ है।

अरुण जेतली ने अपने बजट भाषण के दौरान बड़ी अदा के साथ कहा कि वह राजनीतिक फंड में पारदर्शिता लाने के लिए एक बड़ा प्रस्ताव ला रहे हैं। राजनीतिक दल अब 2000 रुपए से अधिक कैश नहीं ले सकेंगे और राजनीति में साफ धन लाने के लिए ‘इलैक्शन बांड’ लाए जाएंगे। इस प्रस्ताव का सांसदों ने मेज थपथपाकर स्वागत किया। टी.वी. चैनलों ने जयघोष किया। अगले दिन अखबारों की सुर्खियों और संपादकीय ने भी संतोष व्यक्त किया, चलो ठीक दिशा में एक कदम तो उठाया। वित्त मंत्री का काम बन गया। बजट खत्म पैसा हजम।

दरअसल वित्त मंत्री ने क्या घोषणा कि यह उस दिन किसी को समझ ही नहीं आया। इलैक्शन बांड वाला मामला तो बंद पिटारे जैसा था। धीरे-धीरे बजट के दस्तावेज खुले और तब यह बात समझ में आई कि यह अरुण जेतली की एक और गुगली थी। बॉल जिस दिशा में स्पिन होती दिखती है दरअसल उससे विपरीत दिशा में घूमती है। इससे राजनीति में काला धन जरा भी नहीं रुकेगा। उलटे आज राजनीतिक अकाऊंटिंग में जो थोड़ी-बहुत पारदर्शिता है वह भी खत्म हो जाएगी। इसलिए बरसों से राजनीति में पारदर्शिता की मांग करने वाले ‘एसोसिएशन फॉर डैमोक्रेटिक रिफॉर्म’ जैसे संगठन अपना माथा पकड़ कर बैठे हैं।

वित्त मंत्री का पहला प्रस्ताव है कि राजनीतिक दलों को कैश में मिलने वाले चंदे की अधिकतम सीमा 2000 कर दी जाए। फिलहाल ऐसी कोई सीमा नहींहै। पहली नजर में अच्छी बात लगती है कि सैंकड़ों करोड़ों रुपए का गुमनाम कैश चंदे का दावा करने वाली पार्टियों पर कुछ सख्ती तो हुई लेकिन जरा ध्यान से देखें तो पता लगेगा कुछ भी नहीं हुआ। कानून कहता है कि पार्टी को 20000 रुपए से कम के किसी भी चंदे का हिसाब देने की कोई जरूरत नहीं है। 
इसका फायदा उठाकर तमाम नेता और पार्टियां हवाला, प्रोपर्टी और भ्रष्टाचार के जरिए अपनी काली कमाई को राजनीतिक चंदे के तौर पर दिखा कर ब्लैक को व्हाइट कर लेती हैं।

इसे रोकने के लिए दो तरह के नियमों की जरूरत थी। पहला कि हिसाब न देने की छूट को पूरी तरह से खत्म किया जाए, जैसा बाकी संगठनों को करना पड़ता है, उसी तरह से पार्टियोंं को भी अपने हर चंदे का हिसाब देना और रखना पड़े। चाहे कैश में हो या चैक, चाहे 50,000 का हो या 50 लाख का। दूसरा, कोई भी पार्टी कैश में कितना चंदा ले सकती है उसकी सीमा बंधती। यह नियम बन सकता था कि पार्टियां अपने कुल चंदे का सिर्फ 10 प्रतिशत ही कैश में ले सकती हैं लेकिन वित्त मंत्री ने ऐसा कुछ नहीं किया। यहां तक कि हिसाब देने की छूट को भी 20000 से घटाकर 2000 कर दिया।

नतीजा यह होगा कि कुछ भी नहीं बदलेगा। कल तक जो नेता जी या बहन जी किसी अकाऊंटैंट को बुलाकर कहते थे भाई ये रहे 100 करोड़, इसे 20-20 हजार के चंदे की तरह दिखा कर एंट्री कर दो। अब वे कहेंगे भाई ये रहे 100 करोड़, इसे 2-2 हजार के चंदे की एंट्री दिखा दो। जो कल तक सैंकड़ों करोड़ के 2 नम्बर के पैसे को एक नम्बर कर रहे थे वे आज भी वही करेंगे।

नए प्रस्ताव से उन पर कोई फर्क नहीं पड़ेगा। बस चार्टर्ड अकाऊंटैंट की मेहनत और फीस बढ़ जाएगी।चुनावी बांड वाली घोषणा का इरादा है कि जनता के लिए पार्टियों को एक नम्बर का पैसा देना सरल और सुगम बनाया जाए। बात सही है क्योंकि राजनीति में दो नम्बर के पैसे को रोकने के साथ-साथ एक नम्बर के पैसे को भी बढ़ावा देना जरूरी है लेकिन इस बहाने वित्त मंत्री कोई दूसरा ही खेल खेल गए। राजनीति में मुक्तदान के बजाय वित्त मंत्री ने गुप्तदान की व्यवस्था कर दी है। इलैक्शन बांड से राजनीतिक चंदे में जो थोड़ी-बहुत पारदर्शिता थी वह भी खत्म हो जाएगी।

सरकार की योजना यह है कि जो भी व्यक्ति किसी पार्टी को एक नम्बर में पैसा देना चाहे वह बैंक जाकर उतनी रकम का इलैक्ट्रिक बांड खरीद लेगा। उस बांड पर न खरीदने वाले का नाम होगा, न ही उस पार्टी का जिसे ये बांड दिया जाएगा। वह जिस पार्टी को चाहे बांड पकड़ा देगा। न दान देने वाले को बताना पड़ेगा कि उसने किस पार्टी को दान दिया और न ही पार्टियों को ये बताना पड़ेगा कि उसे किस व्यक्ति और कम्पनी से दान मिला है। सबसे खतरनाक बात यह है कि पार्टी को यह भी नहीं बताना पड़ेगा कि उसे कुल कितनी रकम के बांड मिले। पहले जिस 2000 तक के चंदे का हिसाब न देने की छूट थी, इलैक्शन बांड के लिए उस छूट की सीमा ही समाप्त कर दी गई।

मान लीजिए कि अगर कोई सरकार किसी बड़ी कम्पनी को किसी बड़ी डील में 5 हजार करोड़ का फायदा पहुंचाती है। 50-50 का सौदा हो जाता है वह कम्पनी या उसका मालिक 2.5 हजार करोड़ का इलैक्शन बांड खरीदती है और चुपचाप से सत्तारूढ़ पार्टी को पकड़ा देती है। अगर आज की व्यवस्था में कम्पनी पार्टी को अढ़ाई हजार करोड़ देती तो कम्पनी को अपनी बैलेंस शीट में इसका खुलासा करना पड़ता और उस पार्टी को इंकम टैक्स के हिस्से में इसकी घोषणा करनी पड़ती लेकिन जेतली जी के  इस ‘सुधार’ से ये सारा लेन-देन रिकॉर्ड से गायब हो जाएगा। इस सौदे का सिर्फ 2 लोगों को पता होगा। कम्पनी के मालिक और पार्टी के नेता। यानी कि एक नम्बर के पैसे को दोनम्बर के रास्ते से देने का पक्का इंतजाम कर दिया गया है।

राजनीति हर कोई जानता है कि हमारे देश में कालेधन और भ्रष्टाचार की जड़ है राजनीतिक भ्रष्टाचार और उसका मूल है चुनावी खर्चा और राजनीतिक फंङ्क्षडग। हर कोई यह भी जानता है कि पार्टियों का अधिकांश फंड या तो नेता जी की जेब में होता है या पार्टियों की तिजोरी में। राजनीतिक फंड का आटे में नमक के बराबर का हिस्सा बैंक अकाऊंट में रखा जाता है। वही चुटकी भर फंड इन्कम टैक्स और चुनाव आयोग के सामने घोषित होता है।

उस छोटी-सी रकम में भी बड़े-बड़े घपले पकड़े गए हैं। अगर राजनीति की फंडिंग में सुधार करना था तो ऐसी व्यवस्था जरूरी थी जिससे पार्टियों के लिए एक नम्बर के पैसे का अनुपात बढ़ता। साथ ही इस पैसे के जांच की पुख्ता व्यवस्था बनती। ऐसा करने के बजाय वित्त मंत्री ने जिस चुटकी भर राजनीतिक फंड की छानबीन हो सकती थी उस पर भी पर्दा डाल दिया।

कुछ यूं समझ लीजिए कि राजनीतिक फंडिंग की टंकी लीक कर रही थी। उस छेद को बंद करने के बजाय वित्त मंत्री ने नियम बना दिया चाहे टंकी में कितने भी छेद करो, कोई भी छेद दो उंगली से बड़ा नहीं हो सकता। साथ ही टंकी का ढक्कन और खोल दिया चाहे कितना भी लोटा पानी ले लीजिए और उस पर तुर्रा यह कि सबके सामने एक बड़ी स्क्रीन लगा दी जिस पर लिखा है पारदर्शिता टंकी का पानी पहले से भी ज्यादा रिस रहा है, लुट रहा है लेकिन अब दिखना बंद हो गया। सब पारदर्शिता की स्क्रीन को देखकर तालियां बजा रहे हैं और सांसद मेज थपथपा रहे हैं।

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