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यू.पी. में चुनाव एकतरफा नहीं त्रिकोणीय है

Edited By ,Updated: 18 Jan, 2022 06:15 AM

u p the election is not one sided but triangular in

लखनऊ के पास काकोरी में राम सिंह यादव सबको बता रहे थे कि अब तो पूरा चुनावी माहौल बदल गया है। देखो भाजपा से बड़े-बड़े नेता अब अखिलेश के साथ आ रहे हैं। हवा का रुख जान गए

लखनऊ के पास काकोरी में राम सिंह यादव सबको बता रहे थे कि अब तो पूरा चुनावी माहौल बदल गया है। देखो भाजपा से बड़े-बड़े नेता अब अखिलेश के साथ आ रहे हैं। हवा का रुख जान गए हैं। कोई लड़ाई ही नहीं बची। उनकी बात सुन कर पास ही एक पान की दुकान में खड़े सुंदर मौर्य से पूछता हूं कि अब चुनाव में क्या होने जा रहा है? चुनाव किस करवट बैठेगा? सुंदर व्यंग्य से मुस्कुराते हैं और कहते हैं- ये बता तो रहे कि सब कुछ बदल गया है। चुनाव एकतरफा हो गया है, लेकिन ऐसा है नहीं।

वहीं खड़े गणेश लोधी कहते हैं कि कुछ भी हो, संकट के समय मोदी ने साथ बहुत दिया है। पहले कभी किसी सरकार से इतनी ज्यादा मदद नहीं मिली। राम सिंह उनकी बातें सुन कर नाराज हो जाते हैं और कहते हैं कि गांव में जो मु त का गल्ला बंट रहा है, उसका यह गुणगान कर रहे हैं। सब सत्यानाश हो गया है, फिर भी मोदी-योगी की बड़ाई कर रहे हैं। दरअसल गांव की जमीनी हकीकत यही है कि कोरोना काल के बाद केंद्र और राज्य सरकार द्वारा जो-जो मदद पहुंचाई गई, उसका गहरा असर है। वास्तव में भारतीय जनता पार्टी ने एक ऐसा वोट बैंक तैयार किया है, जो बोलता नहीं, लेकिन वोट डालता है। 

पिछले दिनों समाजवादी पार्टी के नेता अखिलेश यादव जब चुनाव प्रचार के लिए निकले और उनकी जनसभाओं में भारी भीड़ उमड़ी तो लगा कि भारतीय जनता पार्टी का एकमात्र विकल्प अखिलेश यादव हैं। इससे एक जो चुनावी परिदृश्य साफ हुआ कि अखिलेश यादव का जनाधार मजबूत हुआ है। लेकिन सवाल यही है कि क्या वह निर्णायक स्थिति में पहुंच गए हैं, जहां वह राज्य में सरकार बना सकें? राजनीतिक पर्यवेक्षक जानते हैं कि इस चुनाव में मुस्लिम और यादव मतदाताओं के मन में यह भरोसा जगा है कि भारतीय जनता पार्टी को हराया जा सकता है और यह भरोसा ही सपा समर्थकों को सड़क तक ले जा रहा है और इसमें भी कोई संदेह नहीं कि उन्हें मतदान केंद्र तक भी ले जाएगा। 

लेकिन इस सामाजिक स्थिति का गहराई से अध्ययन किया जाए तो साफ हो जाता है कि अब भी यह लड़ाई इतनी आसान नहीं है। भाजपा का परंपरागत अति पिछड़ा वोटर उसके साथ खड़ा है। कानपुर के पाली गांव के शत्रुघ्न मौर्य कहते हैं कि मोदी उनके नेता हैं और नेता इसलिए भी हैं, कि उन्होंने लोगों की मदद की है।  इसलिए पिछड़े अब भी उनके साथ हैं। 

उन्नाव जिले के अजगैन के पास एक दुकान में बैठे मोह मद अशरफ कहते हैं कि इस बार लोग बदलाव चाहते हैं। सभी लोग परेशान हैं आवारा पशुओं से, महंगाई से। इस बार बदलाव जरूर होगा। लेकिन उनके पास ही बैठे रामदीन कुशवाहा कहते हैं कि ये बदलाव करना चाहते हैं और हम लोग योगी और मोदी को ही रखना चाहते हैं। ज्यादातर परिवारों को मु त में अनाज मिल रहा है। बहुत से लोगों के खाते में पैसा आया है। सरकार काम कर रही है, इसलिए बदलाव की क्या जरूरत। 

2014 से पहले पिछड़ा और दलित वोट सपा और बसपा में बंटा हुआ था। इन दोनों दलों की मजबूती का आधार भी यही वोट बैंक था।  लेकिन 2014 में नरेंद्र मोदी के आने के बाद यह मतदाता भाजपा के साथ जुड़ गया । 2017 के विधानसभा चुनाव में इसी वोट बैंक को तोडऩे के लिए अखिलेश और राहुल गांधी के बीच चुनावी गठजोड़ हुआ था, लेकिन कामयाब नहीं रहा। इस चुनाव में भाजपा को विराट जनसमर्थन मिला। 

2019 के लोकसभा चुनाव में सामाजिक दृष्टि से सबसे ताकतवर महागठबंधन हुआ और इसमें समाजवादी पार्टी, बहुजन समाज पार्टी और राष्ट्रीय लोक दल तीनों शामिल थे। यदि इस गठजोड़ के सामाजिक समीकरणों को देखा जाए तो 2019 के लोकसभा चुनाव में उत्तर प्रदेश में एकतरफा चुनाव होना चाहिए था। महागठजोड़ के नेता भी यह दावा भी कर रहे थे कि उन्हें 70 से 75 सीटें मिलेंगी। राजनीतिक पर्यवेक्षक भी महागठबंधन को इसी तरह के बड़ी सफलता के दावे कर रहे थे। लेकिन मिलीं सिर्फ 15 सीटें ही। 

विरोधी दलों के सामने सबसे बड़ी चुनौती यही है कि कैसे पिछड़ा और दलित वोट भाजपा से छीना जाए। भारतीय जनता पार्टी के कुछ नेताओं का दलबदल और उनके इस्तीफे में एक ही आरोप, कि भाजपा दलित और पिछड़ा विरोधी है, इसी रणनीति का हिस्सा है। वास्तव में भाजपा से पिछड़ा और दलित वोट छीनने का यह नया प्रयोग है। अखिलेश यादव और बसपा अध्यक्ष मायावती भी जानती हैं कि जब तक भाजपा से पिछड़ा और दलित वोट नहीं कटेगा, तब तक उसे हटाना मुश्किल है।लेकिन यह दलबदल और बगावत भी भाजपा के समर्थक वोटर में बहुत प्रभाव नहीं डाल पा रही। यह सवाल उठ रहे हैं कि 5 साल तक कुर्सी का मजा लेने के बाद पिछड़ा और दलित की चिंता क्यों सताने लगी? 

झांसी जिले के रकसा कस्बे में सहकारी समिति से खाद खरीदने आए अरुण राजपूत कहते हैं कि 2019 और 2022 के चुनाव में बहुत भारी बदलाव नहीं हुआ। कुछ वोट जरूर सपा के पक्ष में गए हैं लेकिन इतने नहीं कि चुनाव को बदल दें। ऐसा क्यों हुआ, इस पर उनके साथी दीनू कश्यप कहते हैं कि लोगों को परेशानियां हुई हैं, महंगाई बढ़ी है। आवारा पशुओं से फसल को नुक्सान हुआ है लेकिन सरकारी मदद भी खूब मिली है। उरई के ही रामेंद्र पस्तोर इस बात को अपने ढंग से कहते हैं। वह सरकार से नाराज हैं, जिसका कारण यह कि उन्हें लगता है कि बड़ी सं या में लोगों को मुफ्त अनाज और मदद दी जा रही है, इससे उनके खेतों के लिए मजदूर नहीं मिल रहे। पुराने चुनावी परिदृश्य का गहराई से आकलन करने के बाद साफ हो जाता है कि उत्तर प्रदेश में लड़ाई त्रिकोणीय है। 

जो लोग मायावती को बिल्कुल किनारे कर रहे हैं, उन्हें जमीनी हकीकत की जानकारी नहीं है। मायावती का कोर वोट उनके साथ जुड़ा हुआ है और कई क्षेत्रों में भाजपा के खिलाफ बसपा ही कड़ी लड़ाई में है। लेकिन फिलहाल भारतीय जनता पार्टी अपने प्रतिद्वंद्वियों से थोड़ी बढ़त बनाए हुए है, लेकिन ज्यों-ज्यों चुनाव आगे बढ़ेगा, ये चुनावी समीकरण बने रहेंगे, कहना कठिन है।-बृजेश शुक्ल
 

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