शराबबंदी के हक में क्यों हैं औरतें

Edited By Updated: 01 Aug, 2023 05:39 AM

why women are in favor of prohibition

आई. आई.टी. दिल्ली के 3 शोधकत्र्ताओं की नवीनतम रिसर्च देश के नीति निर्माताओं को शराबबंदी के सवाल पर नए सिरे से सोचने को मजबूर कर सकती है। उन्हें दिखा सकती है कि इस मुद्दे पर औरतों को केंद्र में रखकर कैसे सोचें। यह समझा सकती है कि देश भर में महिलाएं...

आई. आई.टी. दिल्ली के 3 शोधकत्र्ताओं की नवीनतम रिसर्च देश के नीति निर्माताओं को शराबबंदी के सवाल पर नए सिरे से सोचने को मजबूर कर सकती है। उन्हें दिखा सकती है कि इस मुद्दे पर औरतों को केंद्र में रखकर कैसे सोचें। यह समझा सकती है कि देश भर में महिलाएं क्यों शराबबंदी का समर्थन करती हैं। कम से कम इतना तो सिखा सकती है कि शराबबंदी के सवाल पर कैसे सोचा जाए। शराबबंदी के सवाल पर राष्ट्रीय बहस दो किस्म की भ्रामक सोच का शिकार रहती है। एक तरफ तो पूर्ण नशाबंदी के समर्थक हैं जो इसे एक नैतिक, चारित्रिक और सांस्कृतिक सवाल के रूप में पेश करते हैं। दूसरी तरफ सरकार द्वारा शराबबंदी का विरोध करने वाले लोग हैं जो इसे व्यक्तिगत स्वतंत्रता का उल्लंघन और गैर-आधुनिक दकियानूसी सोच बताते हैं। 

दोनों ही तर्क फूहड़ हैं। शराब पीने या न पीने भर से किसी का चरित्र अच्छा या बुरा नहीं हो जाता। यूं भी हमारे समाज में किसी न किसी मादक द्रव्य का प्रयोग करने का पुराना रिवाज है। उधर पश्चिम की हर नकल को आधुनिकता कहना तो मानसिक गुलामी की निशानी है। वैसे भी, अगर सरकार सिगरेट पर पाबंदी और हैल्मेट की अनिवार्यता के नियम बना सकती है तो शराब पर क्यों नहीं? शराब के नियमन के बारे में हमें एक नई दृष्टि बनाने की जरूरत है। मद्यपान और मद्यनिषेध को नैतिकता बनाम व्यक्तिगत स्वतंत्रता की फिजूल बहस से बाहर निकाल सार्वजनिक स्वास्थ्य और सामाजिक न्याय की कसौटी पर कसने की जरूरत है। इस दृष्टिकोण से शराब के असीमित प्रचलन की असली दिक्कत यह है कि इससे स्वास्थ्य पर बुरा असर पड़ता है, गरीब घरों की आर्थिक स्थिति चरमरा जाती है और घर-परिवार टूटते हैं। 

सवाल यह है कि शराब के इन दुष्परिणामों से निपटने के लिए क्या पूर्ण शराबबंदी एक कारगर उपाय है? हमारे देश में गुजरात, आंध्र प्रदेश और हरियाणा में पूर्ण शराबबंदी के अनुभव से इस नीति के भी कई दुष्परिणाम सामने आए हैं। एक राज्य में शराब बंद करने से बात नहीं बनती क्योंकि पड़ोसी राज्यों से समगलिंग शुरू हो जाती है, कालाबाजारी करने वाला माफिया पैदा हो जाता है। शराब को कानूनी रूप से बंद करने पर कच्ची दारू, जहरीली शराब और अन्य नशे फैलने लगते हैं। इन तर्कों के चलते शराबबंदी पर राष्ट्रीय सहमति नहीं बन पाती। सरकारों के लिए सबसे बड़ा तर्क यह है कि शराबबंदी से उन्हें राजस्व का भारी घाटा होता है। दुर्भाग्यवश शराब की खपत पर लगने वाला आबकारी शुल्क राज्य सरकारों की आमदनी का सबसे बड़ा स्रोत है। ऐसे में नीतीश कुमार की सरकार द्वारा 2016 में बिहार में पूर्ण नशाबंदी लागू करने के फैसले ने सबको चौंकाया था। पिछले 7 सालों से इस नीति के अच्छे-बुरे परिणामों के बारे में खबरें आती रही हैं लेकिन इसके नफे-नुक्सान के बारे में कोई स्पष्ट राय नहीं बन पाई है। 

मीडिया में बार-बार इस नीति को विफल घोषित किया गया है, इससे अपराध बढऩे का दावा किया गया है लेकिन बिहार सरकार ने इसे शराब माफिया का प्रचार बताया है और इसे पलटने से इंकार किया है। हाल ही में आई.आई.टी. दिल्ली के 3 अर्थशास्त्रियों (जी हां, आई.आई.टी. में केवल विज्ञान और तकनीक पर ही नहीं, समाजशास्त्र और मानविकी आदि पर भी अच्छा शोध होता है) ने बिहार में नशाबंदी की नीति के महिलाओं पर हुए असर की पड़ताल कर इस नीति के वस्तुगत मूल्यांकन का रास्ता खोला है। शिशिर डेबनाथ, सौरभ पॉल और कोमल सरीन ने अपने शोध में एक बड़े सवाल को केंद्र में रखा है। क्या शराबबंदी से महिलाओं पर होने वाली ङ्क्षहसा में कमी होती है? इस संबंध में दावे और खंडन तो किए जाते हैं लेकिन इसका कोई स्पष्ट प्रमाण अब तक नहीं मिला। 

इस शोध के लिए इन तीनों शोधकत्र्ताओं ने नैशनल फैमिली हैल्थ सर्वे का सहारा लिया है जोकि इस विषय पर देश का सबसे बड़ा और प्रामाणिक सूचना का स्रोत है। इस सर्वेक्षण की खासियत यह है कि इसमें शराब की खपत नापने  के लिए सरकारी आंकड़ों का इस्तेमाल नहीं किया जाता, बल्कि घर में महिलाओं से पूछा जाता है। इसी तरह महिलाओं पर हुई ङ्क्षहसा या वर्जनाओं के बारे में पुलिस स्टेशन का रिकॉर्ड नहीं देखा जाता जो बहुत भ्रामक होता है, बल्कि इस बारे में खुद महिलाओं से एकांत में पूछा जाता है। देश में स्वास्थ्य के साथ-साथ महिलाओं के विरुद्ध हो रही हिंसा के आंकड़ों का यह सबसे प्रामाणिक स्रोत है। यह सर्वे पहले 2005-06 फिर 2015-16 और नवीनतम 2019-20 में हुआ था। 

संयोग यह है कि सर्वे का दूसरा राऊंड बिहार में शराबबंदी लागू होने से तुरंत पहले ही हुआ था। यानी कि इसके आधार पर शराबबंदी के असर को जांचा जा सकता है। सर्वे के आंकड़ों के बारीक विश्लेषण के आधार पर इन शोधकत्र्ताओं ने दिखाया है कि शराबबंदी लागू होने के बाद बिहार में (परिवार की महिलाओं के कथनानुसार) मर्दों द्वारा शराब की खपत पहले से बहुत कम हुई है, जबकि इस अवधि में बाकी सब राज्यों में इसकी खपत बढ़ी थी। 
यह तो अपेक्षित था। ज्यादा महत्वपूर्ण निष्कर्ष यह है कि 2016 के बाद बिहार में मर्द द्वारा घर में औरत पर नाना प्रकार की ङ्क्षहसा में भी साफ तौर पर कमी आई है। यही नहीं मर्दों द्वारा औरतों पर बाहर जाने, खर्च करने आदि पर टोका-टाकी और बंदिशों में भी कमी आई है। शोधकत्र्ताओं ने इस संभावना की सावधानी से जांच कर उसे खारिज किया है कि यह बदलाव संयोग से किसी अन्य सरकारी नीति या अन्य किसी कारण से हुआ होगा। 

इस शोध ने पहली बार महिला संगठनों और जन आंदोलनों के अनुभव की पुष्टि की है जो महिलाओं पर ङ्क्षहसा को शराब से जोड़ता है और इस कारण से शराबबंदी की मांग करता है। उम्मीद करनी चाहिए कि नीति निर्माता शराबबंदी के सवाल पर सोचते वक्त इस पहलू पर भी ध्यान देना शुरू करेंगे लेकिन जिस हफ्ते यह शोध प्रकाशित हुआ उसी हफ्ते सरकार ने नैशनल फैमिली हैल्थ सर्वे करने वाली संस्था इंडियन इंस्टीच्यूट ऑफ पापुलेशन स्टडीज के निदेशक को निलंबित कर दिया। जानकारों का मानना है कि निदेशक को हटाने की असली वजह यह थी कि सरकार को इस सर्वेक्षण के आंकड़े पसंद नहीं थे। ऐसे में इस शोध पर आधारित नीति निर्माण की कितनी उम्मीद लगाएं, यह एक बड़ा सवाल है।-योगेन्द्र यादव
 

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