सेना में अधिकारियों और जवानों की कमी चिंताजनक

Edited By ,Updated: 09 Aug, 2022 06:01 AM

worrying shortage of officers and soldiers in the army

लोकसभा में 21 जुलाई को सशस्त्र सेनाओं की अनेकों चुनौतियों के समक्ष 2 बड़े पहलू उभर कर सामने आए। पहला सेना में अधिकारियों तथा जवानों की कमी तथा दूसरा रक्षा मामलों के बारे में संसद

लोकसभा में 21 जुलाई को सशस्त्र सेनाओं की अनेकों चुनौतियों के समक्ष 2 बड़े पहलू उभर कर सामने आए। पहला सेना में अधिकारियों तथा जवानों की कमी तथा दूसरा रक्षा मामलों के बारे में संसद की केंद्रीय स्थायी कमेटी की कार्यशैली। संसद में जो विवरण टेबल पर रखे गए उनके अनुसार मंजूरशुदा 14 लाख से ज्यादा शक्तिशाली भारतीय सशस्त्र सेनाओं में 9797 अधिकारियों तथा 1.26 लाख सिपाहियों, एयरमैन तथा नाविकों की कमी है। सार्वजनिक किए गए विवरण के अनुसार सेना में 7779 अधिकारियों तथा 1.08 लाख जवानों की कमी है। नौसेना में 1446 अधिकारियों तथा 1291 नाविकों तथा वायुसेना में 572 अधिकारियों तथा 5217 एयरमैन्स की कमी है। 

रक्षा राज्यमंत्री अजय भट्ट ने एक सवाल के जवाब में लिखती तौर पर अग्रिपथ स्कीमों का उल्लेख करते हुए यह जिक्र भी किया कि अधिकारी से लेकर नीचे तक के रैंकों में भर्ती होने की इच्छा रखने वाले नवयुवकों की कोई कमी नहीं है मगर अधिकारियों की स्थिति चिंताजनक बनी हुई है, आखिर इसका समाधान क्या हो? 

कमी क्यों? प्रभाव तथा सुझाव
सेना में अधिकारियों तथा जवानों की कमी वाला पहला झटका हिंदी-चीनी भाई-भाई का नारा देने वालों को तब लगा जब वर्ष 1962 में चीन ने लद्दाख से लेकर नेफा (अब अरुणाचल प्रदेश) के सीमावर्ती क्षेत्रों में भारतीय सेना को मात्र खदेड़ा ही नहीं बल्कि भारत के करीब 38000 वर्ग किलोमीटर वाले क्षेत्र को भी अपने अधिकार में ले लिया। 

फिर सरकार का ध्यान सेना की ओर आकर्षित हुआ तथा अधिकारियों की कमी को पूरा करने हेतु वर्ष 1963 से एमरजैंसी कमिशन (ई.सी.) चालू किया गया जोकि ई.सी.-12 कोर्स तक लागू रहा। उन जवानों में से बड़ी कम गिनती में अधिकारियों को स्थायी कमिशन देने हेतु फिर से सिलैक्शन प्रक्रिया में से गुजरते हुए चुना गया। सेवानिवृत्त किए गए अधिकारियों में से कुछ ही सिविल सर्विसेज, पुलिस तथा बी.एस.एफ. इत्यादि के लिए चुने गए और बाकी को परेशानियों से दो-चार होना पड़ा क्योंकि उनको स्थायी तौर पर स्थापित करने के लिए कोई ठोस नीति नहीं थी। 

जब वर्ष 1971 के युद्ध के दौरान कटौती किए गए अधिकारियों को फिर से देश की सेवा के लिए बुलाया गया तो उन्होंने योगदान तो पाया मगर फिर घर वापसी की। इस तरह वर्ष 1965 में शार्ट सर्विस कमिशन (एस.एस.सी.) अस्तित्व में आया जोकि पहले 10 वर्षों के लिए फिर 4 वर्षों की बढ़ौतरी परन्तु 15 वर्ष न गुजरने दिए गए। जैसे कि अब अग्रिवीरों के लिए भी यही नीति लागू रहेगी क्योंकि उन्हें पैंशन न देनी पड़े। 

आपबीती : यह मेरी खुशकिस्मती रही कि वर्ष 1971 के युद्ध के समय बतौर कैप्टन, फिर मेजर के तौर पर मुझे इस पलटन के बहादुर जवानों के साथ उड़ी-बारामूला-तंगधार में युद्ध लडऩे का मौका मिला। उसके बाद 1983 में पुंछ के सरहदी क्षेत्रों में पहले लैफ्टिनैंट कर्नल, फिर कर्नल के तौर पर कमांड करने का सौभाग्य प्राप्त हुआ। यूनिट में जहां अधिकारियों की निर्धारित संख्या 25-26 होनी चाहिए वहां करीब 8 से 10 अधिकारियों से ही काम चलाना पड़ा। यही हालत इन्फैंट्री पलटनों की थी और आज भी है। 

बाज वाली नजर : सैनिकों का वेतन भत्ते तथा पैंशन में बढ़ौतरी तो की गई मगर मुख्य रूप में सेना का दर्जा कम ही होता गया। न तो अभी तक सैनिकों तथा उनके परिवारों के लिए कोई राष्ट्रीय नीति है और न ही सैन्य कमिशन। कार्पोरेट सैक्टर तकनीकी शिक्षा प्राप्त नवयुवकों को अच्छा पैकेज देकर अपनी ओर खींच रहा है। वैसे भी आजकल होनहार योग्य जवान सेना में ज्यादा खतरे लेने की बजाय ए.सी. लगे दफ्तरों में काम करना पसंद करते हैं। वह समय बीत गया जब राजे-महाराजाओं की औलाद सेना में जाना पसंद करती थी। यदि देशवासियों के अंदर कोई राष्ट्रीय जज्बा पैदा करना है तो नौजवान राजनीतिज्ञों को टिकट बांटने से पूर्व तथा अफसरशाही को भी अग्रिवीरों की तरह कम से कम 2 वर्षों के लिए सेना में जरूर भेजा जाए। फिर कहीं जाकर सेना में अधिकारियों की कमी पूरी होने की कोई उम्मीद लगाई जा सकती है। 

हम रक्षा मंत्रालयों से संबंधित संसद की स्थायी कमेटी से अपील करते हैं कि वह एल.ओ.सी., एल.ए.सी. तथा छावनियों में पहुंच कर अधिकारियों की कमी के मसले को गंभीर होकर प्राथमिकता के आधार पर उन पर विचार करे और अधिकारियों की कमी को पूरा करने के बारे में विवरण सहित सिफारिश संसद में पेश करे। जरूरत इस बात की भी है कि सेना का राजनीतिकरण होना बंद हो। इसी में देश की भलाई होगी।-ब्रिगे. कुलदीप सिंह काहलों (रिटा.)    
 

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