मृत्यु पर भी पाई जा सकती है विजय

Edited By ,Updated: 27 Jun, 2015 01:13 PM

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शास्त्रों में 101 तरह की मृत्यु बताई हैं। इनमें 100 तो अकाल मृत्यु हैं और एक वास्तविक मृत्यु है। अधिकांश आजकल अकाल मृत्यु से ही मरते हैं।

शास्त्रों में 101 तरह की मृत्यु बताई हैं। इनमें 100 तो अकाल मृत्यु हैं और एक वास्तविक मृत्यु है। अधिकांश आजकल अकाल मृत्यु से ही मरते हैं। पूर्णायुष्य की वास्तविक मृत्यु तक तो कोई पहुंचता ही नहीं इसलिए यह रहस्य मार्कण्डेय चरित्र के रूप में सबके अन्त में समझाया गया है।

मार्कण्डेय जी का चरित्र एक इतनी बड़ी प्रेरणा देता है कि यदि गंभीरता से पढ़ा जाए तो मृत्यु से बचने का उपाय स्पष्ट समझ में आ जाता है। कोई यदि सोचे कि मार्कण्डेय बनना तो बड़ा कठिन है। ठीक है, मार्कण्डेय न सही तो कुछ तो बन ही सकते हैं। कुछ अंश में तो अपने को बचा ही सकते हैं।

इनके पिता मर्कण्ड में द्विजातीय संस्कारोपरान्त इन्हें गुरू आश्रम में विद्याध्ययन हेतु भेज दिया था। शम, दम, यम, नियम आदि के साथ उन्होंने ब्रह्मचर्य का पालन करते हुए पूर्ण निष्ठा के साथ गुरू सेवा में रहकर विद्यार्जन किया। जो कुछ भिक्षा में मिलता गुरूजी को अर्पण कर देते। वे कुछ दे दें तो पा लें अन्यथा व्रत कर लेते और भगवद् ध्यान में लगे रहते। छ: कल्प तक उन्होंने इतना तप किया कि मृत्यु को भी जीत लिया। 

नारायण भगवान प्रसन्न हुए। वरदान मांगने को कहा। प्रभु के दर्शन से तो वे पहले ही कृतकृत्य हो गए थे, परन्तु प्रभु की लीला प्रलय देखने की इच्छा हो गई। प्रभु तो भक्तवाञ्छा-कल्पतरू हैं वैसा ही थोड़ी देर में अपनी योगमाया से विधान बना दिया। इतनी भीषण प्रलयकालीन वर्षा हुई कि चारों ओर जल ही जल दिखाई देने लगा। जड़ चेतन सब जलमग्न हो गया। कुछ ही क्षणों में उन्हें ऐसी अनुभूति होने लगी कि हजारों वर्ष भूख-प्यास का कष्ट सहते हो गए हैं। वे कष्ट से व्याकुल हो गए।

ऐसी प्रलयकालीन बेला में मार्कण्डेयजी ने देखा जल में एक वट वृक्ष पर बाल कृष्ण शयन कर रहे हैं और उन्हें देख कर मंद-मंद मुलस्करा रहे हैं। उनकी मुस्कराहट से मार्कण्डेयजी का सारा कष्ट दूर हो गया। बाल कृष्ण का स्पर्श करने को वह जैसे ही आगे बढ़े एक मच्छर की तरह श्वांस के साथ उनके उदर में पहुंच गए, वहां पृथ्वी, आकाश, पाताल, समुद्र, जड़-चेतन सब कुछ देखा और श्वांस बाहर आते ही फिर से उसी जल में गिर पड़े।

बार-बार मार्कण्डेयजी अंदर जाएं और बाहर आएं। इस दिव्य झांकी से उनका सारा भ्रम नष्ट हो गया। अंत में भगवान अन्तर्ध्यान हो गए और मार्कण्डेयजी ने खुद को आश्रम में पाया। एक व्यक्ति की मृत्यु तो बहुत छोटी सी बात है सारा जगत ही मर गया। सारा संसार डूब गया, फिर भी वह बचे रहे। 

इसका कारण था उनकी साधना जो श्री मद्भागवत में वर्णित है कि मनुष्य संस्कार संपन्न तथा वैदिक ज्ञान से युक्त होकर तप और स्वाध्याय करे। ब्रह्मचार्य व्रत अत्यवश्यक है। शांत रहे, संग्रह रहित रहन-सहन और सात्विक प्रवृति का हो।

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