सच्चा कर्मयोगी बनने के लिए याद रखें ये 4 नियम

Edited By Niyati Bhandari,Updated: 30 Dec, 2021 12:59 PM

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कर्मयोगी को सकाम और निष्काम कर्मों का अंतर पहचानना बहुत आवश्यक है। उसके बिना वह योगी नहीं बन सकता। यह अंतर कर्मों का नहीं वरन उस बुद्धि का है जिससे प्रेरित होकर मनुष्य कर्म करता है इसीलिए

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 Karma Yogi: कर्मयोगी को सकाम और निष्काम कर्मों का अंतर पहचानना बहुत आवश्यक है। उसके बिना वह योगी नहीं बन सकता। यह अंतर कर्मों का नहीं वरन उस बुद्धि का है जिससे प्रेरित होकर मनुष्य कर्म करता है इसीलिए भगवान कर्मयोग को बुद्धियोग कहना अधिक सार्थक समझते हैं। कामना की दृष्टि से बुद्धि दो प्रकार की होती है- सकाम और निष्काम। सकाम बुद्धि से किए गए कर्म संक्षेप में सकाम कर्म कहलाते हैं इसलिए संक्षेप में कर्मयोग की व्याख्या करने वाला सर्वप्रसिद्ध श्लोक इस प्रकार है-

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कर्मण्येवाधिकारस्ते मा फलेषु कदाचन। मा कर्मफलहेतुर्भूर्मा ते सङ्गोऽस्तवकर्मणि।।

पर्याप्त विचार किए बिना उपर्युक्त श्लोक का अर्थ असंभव ही प्रतीत होगा। केवल बौद्धिक विचार करने वाले व्यक्ति को फलासक्ति न रखकर कर्म करने का आदेश अव्यावहारिक और असंभव प्रतीत होगा परन्तु वही व्यक्ति अध्ययन के पश्चात अपने कर्म क्षेत्र में इसका पालन करके देखे तो उसे ज्ञात होगा कि जीवन में वास्तविक सफलताएं प्राप्त करने की यही एक मात्र कुंजी है।

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इस श्लोक में यह नहीं कहा गया है कि कर्म निरुद्देश्य करो या बिना किसी योजना के अव्यवस्थित रूप में करो या उसके परिणामों पर विचार ही न करो। कर्म करने वालों को विशेष रूप से बुद्धिपूर्वक विचार कर अपनी सामर्थ्य और परिस्थिति देखकर एक व्यवस्थित योजना बनानी चाहिए और फिर उस योजना के अनुसार तत्परता से कार्य करते रहना चाहिए। 

इस श्लोक में केवल इसी बात की मनाही है कि कार्य करते समय ढील डालकर फल की चिंता में शक्ति और समय नष्ट नहीं करना चाहिए जबकि प्राय: मनुष्य यही गलती करते हैं। इससे कर्म में उत्कृष्टता नहीं आ पाती और उसकी सफलता भी उतनी ही मात्रा में कम हो जाती है।

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एक सच्चा कर्मयोगी बनने के लिए चार नियम याद रखने चाहिएं।
कर्म करने मात्र में मेरा अधिकार है।
कर्मफल की चिंता करने की आवश्यकता नहीं है।
किसी कर्म विशेष के एक निश्चित फल का आग्रह या उद्देश्य मन में नहीं करना चाहिए।
इन सबका निष्कर्ष यह नहीं कि अकर्म में प्रीति जोड़ ली जाए।

इस उपदेश का प्रयोजन मनुष्य को चिंतामुक्त बनाकर कर्म करते हुए दैवी आनंद में निमग्न रहकर जीना सिखाना है। कर्म करना ही उसके लिए सबसे बड़ा पुरस्कार है। श्रेष्ठ कर्म करने से प्राप्त संतोष और आनंद में वह अपने क्षुद्र अहं को भूल जाता है।

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