Edited By Niyati Bhandari,Updated: 25 Aug, 2025 02:00 PM

lord mahavir story: इतिहास साक्षी है कि जब भी कोई महापुरुष गृह त्याग कर सत्य की खोज के लिए प्रस्थान करता है तो उसे विरोधों और संकटों का सामना करना पड़ता है। भगवान महावीर इसके अपवाद नहीं थे। उन्हें साधना काल और आत्मबोध (केवल ज्ञान) के पश्चात संकटों...
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lord mahavir story: इतिहास साक्षी है कि जब भी कोई महापुरुष गृह त्याग कर सत्य की खोज के लिए प्रस्थान करता है तो उसे विरोधों और संकटों का सामना करना पड़ता है। भगवान महावीर इसके अपवाद नहीं थे। उन्हें साधना काल और आत्मबोध (केवल ज्ञान) के पश्चात संकटों तथा विरोधों का सामना करना पड़ा।
भगवान महावीर आत्म साधना में प्राय: मौन रहते थे, स्तुति निंदा में समभाव रखते थे। एक बार वह मोरांक नामक ग्राम में दुइजन्त नामक कुलपति के आश्रम में चातुर्मास के लिए ठहरे हुए थे। दुइजन्त भगवान महावीर के पिता राजा सिद्धार्थ के मित्र थे। भगवान महावीर समाधिस्थ खड़े थे। कुटिया घास-फूस की बनी थी। गऊएं आईं और कुटिया को उजाड़ गईं। जब कुलपति को पता चला तो उसने महावीर को बुरा-भला कहा कि तुम कैसे तपस्वी हो जो आस-पास की रक्षा नहीं कर सकते। तब से महावीर ने संकल्प किया कि मैं ऐसे स्थान पर नहीं ठहरूंगा, जहां दूसरों को कष्ट हो।

महावीर को तपस्वी जीवन में लोग तरह-तरह के कष्ट देते थे परन्तु सब पर समभाव रखते थे। चंडकौशिक सर्प ने उनके पांव पर दंशाघात (डंक) किया परन्तु उसे चेति-चेति (सावधान) कह कर पूर्व जन्म का ज्ञान दिया।

देवलोक के इंद्र ने भगवान की सहनशक्ति की प्रशंसा की, परन्तु एक संगम नामक देवता ने उन्हें अनेकों कष्ट दिए। इसी तरह एक ग्वाले ने उन्हें असह्य यातना दी परन्तु महावीर ने उन्हें क्षमा कर दिया।
आत्मबोध की प्राप्ति के पश्चात भगवान महावीर ने अपने युग में बढ़ रही यज्ञों में पशु बलि का विरोध करते हुए कहा कि इससे देवता प्रसन्न नहीं होते। उन्होंने छूआछूत का विरोध किया और कहा कि धर्म करने का अधिकार केवल उच्च जातियों को ही नहीं है परन्तु प्रत्येक व्यक्ति इसे अंगीकार कर सकता है। महावीर की इस धारणा पर उन्हें अधार्मिक, निंदक और नास्तिक तक कहा गया परन्तु, उन्होंने सत्य के मार्ग का आलंबन नहीं छोड़ा।
उन्होंने कहा कि धर्म के क्षेत्र में जाति की नहीं कर्म की प्रधानता है। उनकी सबसे महत्वपूर्ण घटना आजीवक सम्प्रदाय के प्रवर्तक गौशालक से संबंधित है। वह कभी भगवान महावीर का शिष्य था, परन्तु उन्हीं से समस्त सिद्धियां प्राप्त कर उन्हीं का विरोध कर अपने आपको तीर्थंकर कहने लगा।

उन्हीं दिनों भगवान महावीर का 27वां चातुर्मास श्रावस्ती नगरी में था। गौशालक का सिद्धांत नियतिवाद (भाग्यवाद) पर आधारित था। इस सिद्धांत के अनुसार ‘भाग्य कलति सर्वत्र न विद्या न च पौरूषम्’
अर्थात- जो होनहार है वह होकर ही रहती है, ज्ञान और पुरुषार्थ महत्व नहीं रखते।
भगवान महावीर ने इस सिद्धांत का विरोध किया। इससे गौशालक आवेश में आ गया और उसने भगवान पर तेजो लेश्या (दूसरों को जला देने की शक्ति) का प्रहार किया परन्तु करुणा के अवतार महावीर पर इसका कोई प्रभाव न पड़ा और उल्टी तेजो लेश्या गौशालक पर ही जा गिरी। इस प्रकार इस घटना को महावीर ने सहज भाव से लिया। अत: माना जा सकता है कि भगवान महावीर ने अपने आत्मबल से सभी कष्टों और विरोधों को स्वीकार किया।
