मध्यमहेश्वर मंदिर में होती है शिव नाभि की पूजा, जानें क्या है इस स्थल का रहस्य

Edited By Updated: 04 Jun, 2021 02:27 PM

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खबरों के अनुसार पंच केदार में प्रसिद्ध द्वितीय केदार कहलाने वाले मध्यमहेश्वर मंदिर के कपाट वैशाख मास के शुक्ल पक्ष की त्रयोदशी यानी 24 मई को मंत्रोच्चारण

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खबरों के अनुसार पंच केदार में प्रसिद्ध द्वितीय केदार कहलाने वाले मध्यमहेश्वर मंदिर के कपाट वैशाख मास के शुक्ल पक्ष की त्रयोदशी यानी 24 मई को मंत्रोच्चारण के साथ खोल दिए गए हैं। दैनिक मान्यताओं के अनुसार मध्य महेश्वर में भगवान शिव की नाभि की पूजा की जाती है। बता दें यह उत्तराखंड के गढ़वाल क्षेत्र के रुद्रप्रयाग जिले मैं समुद्र तल से 3289 मीटर की ऊंचाई पर स्थित है। यह खूबसूरत व रमणीय स्थान चारों ओर से हिमालय पहाड़ों के साथ घिरा हुआ है। मध्यमहेश्वर मंदिर से लगभग 3-4 कि.मी की दूरी पर एक अन्य मंदिर है जिसे बूढ़ा मध्यमेश्वर कहा जाता है।

शिव पुराण के अनुसार महाभारत युद्ध के बाद पांडवों को जब गुरु हत्या, गोत्र हत्या, और अपने ही भाइयों की हत्या का दुख सताने लगा तो वे इसका पश्चाताप करने के लिए श्री कृष्ण भगवान के पास गए। श्री कृष्ण ने उन्हें वेदव्यास जी के पास भेजा तो वेदव्यास जी ने उन्हें भगवान शिव की तपस्या करने के लिए कहा। जिसके बाद पांडवों ने उनकी तपस्या शुरू कर दी। कथाओं के अनुसार भगवान शिव की तपस्या भ्रमण करते करते काफी समय बीत गया।

एक दिन भगवान शिव की स्तुति के दौरान उन्हें एक विशालकाय बैल दिखा। ऐसा माना जाता है कि असल में वह बैल के रूप में भगवान शिव ही थे जो उस रूप में पांडवों की परीक्षा लेने के लिए आए थे। भगवान शिव गोत्र हत्या के चलते पांडवों से नाराज थे जिस कारण उन्हें साक्षात दर्शन नहीं देना चाहते थे। परंतु पांडवों ने उनका यह रूप पहचान लिया और उनका पीछा करने लगे। तब एक समय ऐसा आया कि बैल रूपी शिव ने अपनी गति बढ़ानी चाहिए परंतु भीम दौड़कर बैल के पीछे आने लगे।

ऐसा पाकर भगवान शंकर ने खुद को धरती में छुपाना चाहा, परंतु भीम ने बैल की पूंछ अपने हाथ में पकड़ ली। जिस कारण बैल का केवल आधा भागी धरती में समा पाया। कहा जाता है कि इस बैल का आधा भाग सुदूर हिमालय क्षेत्र में जमीन से निकला जो वर्तमान समय में नेपाल में है और इसी स्थान को प्रसिद्ध पशुपतिनाथ के नाम से जाना जाता है। तो वहीं बैल का शेष भाग यानी भुजाएं तुंगनाथ में, नाभि का मध्य भाग में मध्यमहेश्वर में, मुख रुद्रनाथ में तथा जटा एक एंकल्पेश्वर में निकली थीं।
 

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