Mythology of Aparajita Devi: विजयदशमी से जुड़ी है अपराजिता पूजा की कथा, पढ़ें रामायण का इतिहास

Edited By Updated: 02 Oct, 2025 08:28 AM

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Aparajita Puja story 2025: अपराजिता पूजा और विजयदशमी केवल एक धार्मिक अनुष्ठान नहीं बल्कि जीवन जीने की कला है। यह सिखाती है कि हमें अपने अंदर की नकारात्मकताओं (रावण रूपी दोषों) को हराना होगा। यह बताती है कि श्रद्धा और भक्ति से किया गया संकल्प अजय...

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Aparajita Puja story 2025: अपराजिता पूजा और विजयदशमी केवल एक धार्मिक अनुष्ठान नहीं बल्कि जीवन जीने की कला है। यह सिखाती है कि हमें अपने अंदर की नकारात्मकताओं (रावण रूपी दोषों) को हराना होगा। यह बताती है कि श्रद्धा और भक्ति से किया गया संकल्प अजय बनाता है और सबसे महत्वपूर्ण अपराजिता का आशीर्वाद हमें कभी हारने नहीं देता।

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इतिहास साक्षी है जब-जब धरती पर अधर्म बढ़ा है, तब-तब देवताओं ने मां दुर्गा के विभिन्न स्वरूपों को पुकारा है। उन्हीं स्वरूपों में से एक है माता अपराजिता। जिनका नाम ही है जिसे कोई पराजित न कर सके। कहा जाता है कि चारों युगों की शुरुआत से ही अपराजिता देवी की पूजा का विधान रहा है। वे संपूर्ण ब्रह्माण्ड की शक्तिदायिनी हैं। उनके बिना न देवताओं की शक्ति पूर्ण होती है और न ही मनुष्यों की यात्रा सफल हो पाती है।

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रामायण से जुड़ी है माता अपराजिता की कथा
रामायण काल में जब भगवान श्रीराम रावण से युद्ध करने की तैयारी कर रहे थे, तब ऋषियों ने उन्हें एक विशेष पूजा का मार्ग बताया। उन्होंने कहा– "हे राघव! यदि आप राक्षसों पर विजय चाहते हैं तो पहले माता अपराजिता का पूजन करें। उनका आशीर्वाद ही आपकी यात्रा और युद्ध दोनों को सफल बनाएगा।"

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श्रीराम ने विधि-विधान से माता अपराजिता की आराधना की। उन्होंने पुष्प, अक्षत, जल और मंत्रों के साथ प्रार्थना की –
"माते! हमें वह शक्ति दो जिससे हम अधर्म का नाश कर सकें और धर्म की विजय कर सकें।"

कहते हैं कि पूजा पूरी होते ही श्रीराम का आत्मबल दोगुना हो गया। वानरों की सेना में उत्साह भर गया और सभी ने युद्धभूमि की ओर प्रस्थान किया। अष्टमी-नवमी के संधिकाल में रावण का अंत हुआ और दशमी तिथि को उसकी चिता जलाई गई। तभी से यह दिन विजयदशमी कहलाने लगा, असत्य पर सत्य की विजय का पर्व।

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अपराजिता देवी का स्वरूप
शास्त्रों में देवी अपराजिता को बहुत ही दिव्य रूप में वर्णित किया गया है। उनका शरीर नीलकमल की भांति श्याम है। गले में सर्प का आभूषण है। मस्तक पर चंद्रमा के समान कांति है। तीन नेत्रों से वे सम्पूर्ण जगत को देखती हैं। आठ दल वाले कमल पर विराजमान होकर, त्रिशूल धारण करती हैं। वे पृथ्वी तत्त्व से प्रकट होकर जीवों का कल्याण करती हैं और दिक्पाल व ग्रामदेवताओं की सहायता से आसुरी शक्तियों का नाश करती हैं।

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