श्रीमद्भगवद्गीता: जीवात्मा शरीर और मन से परे

Edited By Updated: 11 Mar, 2017 02:26 PM

sri madbhagwad geeta beyond the body and mind

श्रीमद्भगवद्गीता यथारूप व्याख्याकार : स्वामी प्रभुपाद  अध्याय छ: ध्यानयोग अर्जुन उवाच अयति: श्रद्धयोपेतो योगाच्चलितमानस:। अप्राप्य योगसंसिङ्क्षद्ध कां गतिं कृष्ण गच्छति।। 37।।

श्रीमद्भगवद्गीता यथारूप व्याख्याकार : स्वामी प्रभुपाद 

 

अध्याय छ: ध्यानयोग


अर्जुन उवाच
अयति: श्रद्धयोपेतो योगाच्चलितमानस:।
अप्राप्य योगसंसिङ्क्षद्ध कां गतिं कृष्ण गच्छति।। 37।।


शब्दार्थ
अर्जुन: उवाच—अर्जुन ने कहा;  अयति—असफल योगी;  श्रद्धया—श्रद्धा से; उपेत—लगा हुआ, संलग्र; योगात्—योग से; चलित—विचलित; मानस—मन वाला; अप्राप्य—प्राप्त न करके; योग संसिद्धिम्—योग की सर्वोच्च सिद्धि को; काम्—किस; गतिम्—लक्ष्य को; कृष्ण—हे कृष्ण; गच्छति—प्राप्त करता है।


अनुवाद : अर्जुन ने कहा, हे कृष्ण! उस असफल योगी की गति क्या है जो प्रारंभ में श्रद्धापूर्वक आत्म-साक्षात्कार की विधि ग्रहण करता है, किंतु बाद में भौतिकता के कारण उससे विचलित हो जाता है और योग सिद्धि को प्राप्त नहीं कर पाता?

 

तात्पर्य : भगवद् गीता में आत्म-साक्षात्कार या योग मार्ग का वर्णन है। आत्म-साक्षात्कार का मूलभूत नियम यह है कि जीवात्मा यह भौतिक शरीर नहीं है, अपितु इससे भिन्न है और उसका सुख शाश्वत जीवन, आनंद तथा ज्ञान में निहित है। ये शरीर तथा मन दोनों से परे हैं। आत्म-साक्षात्कार की खोज ज्ञान द्वारा की जाती है। इसके लिए अष्टांग विधि या भक्तियोग का अभ्यास करना होता है। इनमें से प्रत्येक विधि में जीव को अपनी स्वाभाविक स्थिति, भगवान से अपने संबंध तथा उन कार्यों की अनुभूति प्राप्त करनी होती है, जिनके द्वारा वह टूटी हुई शृंखला को जोड़ सके और कृष्णभावनामृत की सर्वोच्च सिद्ध-अवस्था प्राप्त कर सके।


इन तीनों विधियों में से किसी एक का भी पालन करके मनुष्य देर-सवेर अपने चरम लक्ष्य को प्राप्त होता है। भगवान ने द्वितीय अध्याय में इस पर बल दिया कि दिव्यमार्ग में थोड़े से प्रयास से भी मोक्ष की महती आशा है। इन तीनों में से इस युग के लिए भक्तियोग विशेष रूप से उपयुक्त है, क्योंकि ईश-साक्षात्कार की यह श्रेष्ठतम प्रत्यक्ष विधि है। अत: अर्जुन पुन: आश्वस्त होने की दृष्टि से भगवान कृष्ण से अपने पूर्व कथन की पुष्टि करने को कहता है। 


भले ही कोई आत्म-साक्षात्कार के मार्ग को निष्ठापूर्वक क्यों न स्वीकार करे, किंतु ज्ञान की अनुशीलन विधि तथा अष्टांगयोग का अभ्यास इस युग के लिए सामान्यतया बहुत कठिन है, अत: निरंतर प्रयास होने पर भी मनुष्य अनेक कारणों से असफल हो सकता है।


पहला कारण तो यह है कि मनुष्य इस विधि का पालन करने में पर्याप्त सतर्क न रह सके। दिव्यमार्ग का अनुसरण बहुत कुछ माया के ऊपर धावा बोलने जैसा है। फलत: जब भी मनुष्य माया के पाश से छूटना चाहता है, तब वह विविध प्रलोभन के द्वारा अभ्यासकर्ता को पराजित करना चाहती है। बद्धजीव पहले से प्रकृति के गुणों द्वारा मोहित रहता है और दिव्य अनुशासनों का पालन करते समय भी उसके पुन: मोहित होने की संभावना बनी रहती है। यही योगाच्चलितमानस अर्थात दिव्य पथ से विचलन कहलाता है। अर्जुन आत्म-साक्षात्कार के मार्ग से विचलन के प्रभाव के संबंध में जिज्ञासा करता है। 

(क्रमश)

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