Edited By Niyati Bhandari,Updated: 18 Jan, 2023 10:04 AM

श्री कृष्ण कहते हैं कि मन की प्रसन्नता होने पर इसके सम्पूर्ण दुखों का अभाव हो जाता है और उस प्रसन्नचित्त वाले कर्मयोगी की बुद्धि शीघ्र ही सब ओर से हटकर एक परमात्मा में ही भलीभांति स्थिर हो जाती है।
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Srimad Bhagavad Gita: श्री कृष्ण कहते हैं कि मन की प्रसन्नता होने पर इसके सम्पूर्ण दुखों का अभाव हो जाता है और उस प्रसन्नचित्त वाले कर्मयोगी की बुद्धि शीघ्र ही सब ओर से हटकर एक परमात्मा में ही भलीभांति स्थिर हो जाती है। यह हमारी समझ के विपरीत चलता है कि एक बार जब हमारी इच्छाएं पूरी हो जाती हैं तो हम संतुष्ट हो जाते हैं और सुख को प्राप्त करते तथा दुख को नष्ट कर देते हैं लेकिन श्री कृष्ण हमें पहले संतुष्ट होने के लिए कहते हैं और बाकी अपने आप हो जाता है।
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उदाहरण के लिए, हम यह निष्कर्ष निकालते हैं कि बुखार, दर्द आदि जैसे लक्षण होने पर हम स्वस्थ नहीं हैं। इन लक्षणों का दमन हमें तब तक स्वस्थ नहीं करेगा जब तक इन लक्षणों की जड़ का इलाज नहीं किया जाता। वहीं दूसरी ओर पौष्टिक आहार, अच्छी नींद, फिटनैस व्यवस्था आदि हमें अच्छा स्वास्थ्य प्रदान करते हैं।

इसी तरह, भय, क्रोध और द्वेष, जो दुख का हिस्सा हैं, संतोष की कमी के संकेत हैं और उनका दमन हमें अपने आप संतुष्ट नहीं करेगा।
स्वीकार्य व्यवहार करने के लिए इन संकेतों को दबाने के लिए कई त्वरित सुधारों का प्रचार और अभ्यास किया गया है लेकिन यह संचित दमन बाद में और अधिक जोश के साथ इन चीजों को वापस लाता है। उदाहरण के लिए, दफ्तर में अधिकारी के विरुद्ध दबा हुआ गुस्सा अक्सर अपने साथियों या परिवार के सदस्यों के विरुद्ध निकाला जाता है।
आनन्द का मार्ग दुनिया की ध्रुवीय प्रकृति के बारे में जागरूक होना है। कर्म फल की अपेक्षा के बिना कर्म के बारे में जागरूकता है कि हमारे कार्यों, विचारों और भावनाओं के लिए हम कर्ता नहीं बल्कि साक्षी हैं। देही/आत्मा, जो हमारा अव्यक्त भाग है, हमेशा संतुष्ट रहता है, परन्तु हम प्रकट के साथ पहचान करते हैं, जो दुख का कारण है, जैसे रस्सी को सांप समझ बैठना।

श्री कृष्ण यह भी बताते हैं कि आत्मा के साथ तादात्म्य होने से दुख दूर हो जाता है और इस अवस्था को वह आत्मरमण या आत्मवान बनना कहते हैं। यह न तो दुख का दमन है और न ही अभिव्यक्ति है बल्कि उन्हें देखने और पार करने में सक्षम बनना है।
