Srimad Bhagavad Gita: श्री कृष्ण कहते हैं, भक्ति मनुष्य को कर्मबंधन से मुक्त करती है

Edited By Niyati Bhandari,Updated: 15 Aug, 2023 09:18 AM

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अध्याय पांच - ‘कर्मयोग’ ‘कृष्णभावनाभावित कर्म’ अर्जुन उवाच-संन्यासं कर्मणां कृष्ण पुनर्योगं च शंससि। यच्छ्रेय एतयोरेकं तन्मे ब्रूहि सुनिश्चितम्।

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Srimad Bhagavad Gita: ‘श्रीमद्भगवद्गीता यथारूप’
अध्याय पांच - ‘कर्मयोग’ ‘कृष्णभावनाभावित कर्म’
अर्जुन उवाच-संन्यासं कर्मणां कृष्ण पुनर्योगं च शंससि। यच्छ्रेय एतयोरेकं तन्मे ब्रूहि सुनिश्चितम्।

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अनुवाद एवं तात्पर्य : अर्जुन ने कहा - हे कृष्ण ! पहले आप मुझसे कर्म त्यागने के लिए कहते हैं और फिर भक्तिपूर्वक कर्म करने का आदेश देते हैं। क्या आप अब कृपा करके निश्चित रूप से मुझे बताएंगे कि इन दोनों में से कौन अधिक लाभप्रद है?

भगवद्‍गीता के इस पंचम अध्याय में भगवान बताते हैं कि भक्तिपूर्वक किया गया कर्म शुष्क चिंतन से श्रेष्ठ है। भक्ति पथ अधिक सुगम है क्योंकि दिव्य स्वरूपता भक्ति, मनुष्य को कर्मबंधन से मुक्त करती है। द्वितीय अध्याय में आत्मा तथा उसके शरीर बंधन का सामान्य ज्ञान बतलाया गया है। उसी में बुद्धियोग अर्थात भक्ति द्वारा इस भौतिक बंधन से निकलने का भी वर्णन हुआ है।

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तृतीय अध्याय में यह बताया गया है कि ज्ञानी को कोई कार्य नहीं करने पड़ते। चतुर्थ अध्याय में भगवान ने अर्जुन को बताया है कि सारे यज्ञों का पर्यवसान ज्ञान में होता है, किन्तु चतुर्थ अध्याय के अंत में भगवान ने अर्जुन को सलाह दी कि वह पूर्णज्ञान से युक्त होकर, उठ करके युद्ध करे। अत: इस प्रकार एक ही साथ भक्तिमय कर्म तथा ज्ञानयुक्त अकर्म की महत्ता पर बल देते हुए कृष्ण ने अर्जुन के संकल्प को भ्रमित कर दिया है।

अर्जुन यह समझता है कि ज्ञानमय संन्यास का अर्थ है इंद्रिय कार्यों के रूप में समस्त प्रकार के कार्यकलापों का परित्याग किन्तु यदि भक्तियोग में कोई कर्म करता है तो फिर कर्म का किस प्रकार त्याग हुआ?

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दूसरे शब्दों में वह यह सोचता है कि ज्ञानमय संन्यास को सभी प्रकार के कार्यों से मुक्त होना चाहिए क्योंकि उसे कर्म तथा ज्ञान असंगत से लगते हैं। ऐसा लगता है कि वह यह नहीं समझ पाया कि ज्ञान के साथ किया गया कर्म बंधनकारी न होने के कारण अकर्म के ही तुल्य है। अंत एव वह पूछता है कि वह सब प्रकार से कर्म त्याग कर दे या पूर्णज्ञान से मुक्त होकर कर्म करे।

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