Edited By Niyati Bhandari,Updated: 12 Sep, 2023 09:12 AM
महाराज जनक स्वयं बहुत विद्वान थे। वह वेदों, शास्त्रों, उपनिषदों तथा पुराणों के ज्ञाता थे परन्तु उनकी और अधिक ज्ञान पाने की इच्छा रुक न रही थी।
शास्त्रों की बात, जानें धर्म के साथ
Story of Ashtavakra and Janaka Maharaj: महाराज जनक स्वयं बहुत विद्वान थे। वह वेदों, शास्त्रों, उपनिषदों तथा पुराणों के ज्ञाता थे परन्तु उनकी और अधिक ज्ञान पाने की इच्छा रुक न रही थी। वह प्रभु तथा उसकी अपरम्पार माया का अधिक से अधिक ज्ञान पाना चाहते थे। उनके मन में धर्म मार्ग पर आगे से आगे बढ़ने की इच्छा बनी रहती।
उनकी भेंट ऋषि कुमार अष्टावक्र से हो गई। राजा जनक इस कुमार से बेहद प्रभावित हो गए। राजा जनक ने उनसे कहा, ‘‘आप मुझे सच्चा ज्ञान प्रदान करें। मैं इसके लिए विनम्र निवेदन करता हूं।’’
‘‘बिना गुरु दक्षिणा का संकल्प किए कैसे पाओगे ज्ञान ?’’ ऋषि कुमार अष्टावक्र ने कहा।
‘‘मुझे तो ज्ञान चाहिए। अपनी प्यास बुझानी है। इसके लिए मैं अपना अपार राजकोष आप के चरणों में रखने को तैयार हूं। ले लीजिए।’’
‘‘राजा जनक ! आप ठीक कहते हैं। मगर यह आप का है ही नहीं, तो मुझे कैसे देंगे ? यह तो प्रजा का धन है। प्रजा का खजाना है। आप इसे इस तरह दान में देने के अधिकारी नहीं हैं।’’
‘‘तब मेरा पूरा राज्य लेकर मुझे ज्ञान प्रदान करें।’’ महाराज जनक बोले।
‘‘राज्य भी अनित्य है, ऐसा मेरा मानना है।’’
‘‘मेरा शरीर तो मेरा अपना है। ऋषि कुमार, आप इसे ही गुरु दक्षिणा में स्वीकार करें।’’
‘‘राजन, मैं आप का शरीर लेकर क्या करूंगा ? यह आपके अधीन है ही नहीं। यह तो आपके मन के अधीन है।’’ अष्टावक्र बोले।
‘‘ठीक कहा आपने। तब आप मेरा मन ही स्वीकार करें। मैं इसे अर्पित करता हूं।’’ राजा जनक ने हाथ जोड़ कर कहा।
इस पर अष्टाचक्र ने सहर्ष बोले, ‘‘मैं आपके मन को दक्षिणा के रूप में स्वीकार करता हूं। राजन ! आज अपने मन को ज्ञान के अधीन करें। आज से ही समस्त जीवों में अपनी आत्मा को देखें, यही सच्चा ज्ञान है। ज्ञान की चरम स्थिति है।’’