Krishna Janmashtami: निधिवन ही नहीं इस स्थान के पेड़ों में भी बसते हैं राधाकृष्ण

Edited By Niyati Bhandari,Updated: 23 Aug, 2019 02:15 PM

vrindavan mathura tatiya place

वृंदावन के वृक्ष को मरमु न जाने कोय, डार-डार औ पात-पात श्री राधे-राधे होय॥ ब्रज मंडल में वृंदावन है, जो भगवान कृष्ण की लीला से जुड़ा हुआ है। यहां श्री कृष्ण और राधा रानी के मंदिरों की विशाल संख्या है। वृंदावन की प्राकृतिक छटा देखने योग्य है। यमुना...

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वृंदावन के वृक्ष को मरमु न जाने कोय, डार-डार औ पात-पात श्री राधे-राधे होय॥

ब्रज मंडल में वृंदावन है, जो भगवान कृष्ण की लीला से जुड़ा हुआ है। यहां श्री कृष्ण और राधा रानी के मंदिरों की विशाल संख्या है। वृंदावन की प्राकृतिक छटा देखने योग्य है। यमुना जी ने इसे तीन ओर से घेर रखा है। यहां के सघन कुंजों में विविध पुष्पों से शोभित लताएं तथा ऊंचे-ऊंचे घने वृक्ष मन में उल्लास भरते हैं। बसंत ऋतु के आगमन पर यहां की छटा और सावन-भादों की हरियाली आंखों को शीतलता प्रदान करती है, वह श्री राधा-माधव के प्रतिबिंबों के दर्शनों का ही प्रतिफल है।

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वृंदावन का कण-कण रसमय है। यहां प्रेम-भक्ति का ही साम्राज्य है। इसे गोलोक धाम से अधिक बढ़कर माना गया है। यही कारण है कि हजारों धर्म-परायणजन अपने-अपने कामों से अवकाश प्राप्त कर अपना शेष जीवन बिताने के लिए यहां अपने निवास स्थान बनाकर रहते हैं। वे नित्य रासलीलाओं, साधु-संगतों, हरिनाम संकीर्तन, भागवत आदि ग्रंथों के होने वाले पाठों में सम्मिलित होकर धर्म-लाभ प्राप्त करते हैं।

वृंदावन- मथुरा भगवान कृष्ण की लीला से जुड़ा हुआ है। ब्रज के केंद्र में स्थित वृंदावन में सैंकड़ों मंदिर हैं जिनमें से अनेक ऐतिहासिक धरोहर भी हैं। यहां सैंकड़ों आश्रम और कई गौशालाएं हैं। गौड़ीय वैष्णव, वैष्णव और हिन्दुओं के धार्मिक क्रिया-कलापों के लिए वृंदावन विश्व भर में प्रसिद्ध है।

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श्री धाम टटिया स्थान: श्री रंग जी मंदिर के दाहिने हाथ पर यमुना जी को जाने वाली पक्की सड़क के आखिर में ही यह रमणीय टटिया स्थान विशाल भूखंड पर फैला हुआ है। किन्तु कोई दीवार, पत्थरों की घेराबंदी नहीं है, केवल बांस की खपच्चियां या टटियाओं से घिरा हुआ है। इसलिए टटिया स्थान के नाम से प्रसिद्ध है। संगीत शिरोमणि स्वामी हरिदास जी महाराज की तपोस्थली है। यह एक ऐसा स्थल है जहां के हर वृक्ष और पत्तों में भक्तों ने राधा-कृष्ण की अनुभूति की है। 

स्थान की स्थापना : स्वामी श्री हरिदास जी की शिष्य परंपरा के सातवें आचार्य श्री ललित किशोरी जी ने इस भूमि को अपनी भजन स्थली बनाया था। उनके शिष्य महंत श्री ललित मोहन दास जी ने संवत 1823 में इस स्थान पर ठाकुर श्री मोहिनी बिहारी जी को प्रतिष्ठित किया था, तभी चारों ओर बांस की टटिया लगाई गई थी, तभी से यहां के सेवा पूजाधिकारी विरक्त साधु ही चले आ रहे हैं, उनकी विशेष वेशभूषा भी है। यहां श्री मोहिनी बिहारी जी का श्रीविग्रह प्रतिष्ठित है।

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मंदिर का अनोखा नियम : ऐसा सुना जाता है कि श्री ललित मोहिनी दास जी के समय इस स्थान पर यह नियम था कि जो भी आटा-दाल-घी दूध भेंट में आए उसे उसी दिन ही ठाकुर भोग और साधु सेवा में लगाया जाता है। संध्या के समय के बाद सब बर्तन खाली करके धो-मांजकर उल्टे करके रख दिए जाते हैं, कभी भी यहां अन्न सामग्री की कमी न रहती थी। एक बार दिल्ली के यवन शासक ने जब यह नियम सुना तो परीक्षा के लिए अपने एक हिन्दू कर्मचारी के हाथ एक पोटली में सच्चे मोती भर कर सेवा के लिए संध्या के बाद रात को भेजे। श्री महंत जी बोले, वाह खूब समय पर आप भेंट लाए हैं। महंत जी ने तुरंत उन्हें खरल में पिसवाया और पान में भर कर श्री ठाकुर जी को भोग में अर्पण कर दिया। कल के लिए कुछ नहीं रखा। उनका यह भी नियम था कि चाहे कितने मिष्ठान व्यंजन पकवान भोग लगें, स्वयं उनमें से प्रसाद रूप में कणिका मात्र ग्रहण करते सब पदार्थ संत सेवा में लगा देते और स्वयं मधुकरी करते।

मंदिर में विशेष प्रसाद: यहां के महंत अपने स्थान से बाहर कहीं भी नहीं जाते। स्वामी हरिदास जी के आविर्भाव दिवस श्री राधाष्टमी के दिन यहां भक्तों की विशाल भीड़ लगती है। श्री स्वामी जी के कडुवा और दंड के उस दिन सबको दर्शन लाभ होते हैं। उस दिन विशेष प्रकार की स्वादिष्ट अरवी (गुइयां) का भोग लगता है और बांटा जाता है, जो दही और घी में विशेष प्रक्रिया से तैयार की जाती है। यहां का अरवी प्रसाद प्रसिद्ध है।

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