जब भगवान शिव की अर्धांगिनी का शरीर बना कलंक रूप

Edited By Updated: 11 Dec, 2017 08:40 AM

lord shiva sati story

सती के पिता महाराज दक्ष को ब्रह्मा जी ने प्रजापति-नायक के पद पर अभिशिक्त किया। महान अधिकार की प्राप्ति से दक्ष के मन में भारी अहंकार उत्पन्न हो गया। संसार में ऐसा कौन है जिसे प्रभुता पाकर मद न हो। एक बार ब्रह्मा की सभा में बड़े-बड़े ऋषि, देवता और...

सती के पिता महाराज दक्ष को ब्रह्मा जी ने प्रजापति-नायक के पद पर अभिशिक्त किया। महान अधिकार की प्राप्ति से दक्ष के मन में भारी अहंकार उत्पन्न हो गया। संसार में ऐसा कौन है जिसे प्रभुता पाकर मद न हो। एक बार ब्रह्मा की सभा में बड़े-बड़े ऋषि, देवता और मुनि उपस्थित हुए। उस सभा में भगवान शंकर भी विराजमान थे। उसी समय दक्ष प्रजापति भी वहां पधारे। उनके स्वागत में सभी सभासद उठ कर खड़े हो गए। केवल ब्रह्मा जी और भगवान शिव अपने स्थान पर बैठे रहे। दक्ष ने ब्रह्मा जी को प्रणाम किया, किंतु शंकर जी का बैठे रहना उनको बहुत बुरा लगा।


उन्हें इस बात से विशेष कष्ट हुआ कि ब्रह्मा जी तो उनके पिता थे, किंतु शंकर जी तो उनके दामाद थे। उन्होंने उठकर उन्हें प्रणाम क्यों नहीं किया? अत: उन्होंने भरी सभा में शंकर जी की बड़ी निंदा की और शाप तक दे डाला। फिर भी उनका क्रोध शांत नहीं हुआ और भगवान शिव को अपमानित करने के उद्देश्य से एक विशाल यज्ञ का आयोजन किया, जिसमें शिव जी से वैर-बुद्धि के कारण अपनी पुत्री सती को भी नहीं बुलाया। 


आकाश मार्ग से विमानों में बैठकर सभी देवताओं, विद्याधरों और किन्नरियों को जाते हुए देखकर सती ने भगवान शंकर से पूछा, ‘‘भगवान! ये लोग कहां जा रहे हैं?’’


भगवान शिव ने कहा, ‘‘तुम्हारे पिता ने बहुत बड़े यज्ञ का आयोजन किया है। ये लोग उसी में सम्मिलित होने के लिए जा रहे हैं।’’ 


सती जी बोलीं, ‘‘प्रभो! पिता जी के यहां यज्ञ हो रहा है तो उसमें मेरी अन्य बहनें भी अवश्य पधारेंगी। माता-पिता से मिले हुए भी मुझे बहुत समय बीत गया। यदि आपकी आज्ञा हो तो हम दोनों को भी वहां चलना चाहिए। यह ठीक है कि उन्होंने हमको निमंत्रण नहीं दिया है, किंतु माता-पिता और गुरु के घर बिना बुलाए जाने में भी दोष नहीं है।’’


शिवजी बोले, ‘‘इसमें संदेह नहीं है कि माता-पिता तथा गुरुजनों आदि के यहां बिना बुलाए भी जाया जा सकता है, परंत जहां कोई विरोध मानता हो, वहां जाने से कदापि कल्याण नहीं होता। इसलिए तुम्हें वहां जाने का विचार त्याग देना चाहिए।’’


भगवान शंकर के समझाने पर भी सती जी नहीं मानीं और आंखों में आंसू भरकर रोने लगीं। तदनन्तर भगवान शिव ने अपने प्रमुख गणों के साथ उन्हें विदा कर दिया। दक्ष यज्ञ में पहुंचने पर सती को वहां भगवान शिव का कोई भाग नहीं दिखाई दिया। दक्ष ने भी सती का कोई सत्कार नहीं किया। उनकी बहनों ने भी उन्हें देखकर व्यंग्यपूर्वक मुस्करा दिया। 


केवल उनकी माता बड़े प्रेम से मिलीं। भगवान शिव का अपमान देखकर सती को बड़ा क्रोध हुआ। उन्होंने दक्ष से कहा, ‘‘पिता जी! जिन भगवान शिव का दो अक्षरों का नाम बातचीत के प्रसंग में अनायास जिह्वा पर आ जाने पर भी नाम लेने वाले के समस्त पापों का विनाश कर देता है, आप उन्हीं भगवान शिव से द्वेष करते हैं। अत: आपके अंग के संसर्ग से उत्पन्न इस शरीर को मैं तत्काल त्याग दूंगी, क्योंकि यह मेरे लिए कलंक रूप है।’’ 


ऐसा कह कर सती ने भगवान शिव का ध्यान करके अपने शरीर को योगाग्रि में भस्म कर दिया। सती का यह दिव्य पति प्रेम आज भी भारतीय नारियों के लिए महान आदर्श है। 

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