Edited By ,Updated: 23 Apr, 2015 09:02 AM
विदेह राजा जनक सही मायनों में वैरागी कोटि के पुरुष थे। एक दिन देवदत्त नामक ब्राह्मण उनके यहां आए। धार्मिक व आध्यात्मिक चर्चा होने लगी। देवदत्त ने राजा जनक से कहा,
विदेह राजा जनक सही मायनों में वैरागी कोटि के पुरुष थे। एक दिन देवदत्त नामक ब्राह्मण उनके यहां आए। धार्मिक व आध्यात्मिक चर्चा होने लगी। देवदत्त ने राजा जनक से कहा, ‘‘महाराज, आपने तो आत्मप्राप्ति का उच्च स्तर छू लिया है, कृपया मुझे कोई उपाय बताइए, जिससे मैं आत्म-प्राप्ति कर सकूं। इसे प्राप्त करने की मेरी बहुत इच्छा है, लेकिन क्या करूं यह मन मानता ही नहीं। यह मन लौकिक सुख, भोग, तृष्णा और वासना से विरत ही नहीं हो पाता।’’
जनक ने कोई जवाब नहीं दिया। वह उठे और एक खंभे से लिपट गए। ब्राह्मण को बहुत अजीब लगा। उन्होंने राजा जनक से कहा, ‘‘महाराज, आप क्या कर रहे हैं? इससे मेरे प्रश्र का उत्तर तो नहीं मिला।’’
अब जनक ने कहा, ‘‘भाई, आप देख नहीं रहे कि इस खंभे ने मुझे पकड़ रखा है। मैं अपने को छुड़ाने की कोशिश में लगा हूं, लेकिन खंभा है कि छोड़ता ही नहीं।’’
देवदत्त बोल उठे, ‘‘महाराज, यह कौन-सी बात हुई? यह जड़ खंभा आपको कैसे पकड़ सकता है?’’
तुरंत जनक बोले, ‘‘भाई, मन भी तो ऐसा ही है, उसके वश में कहां कि आपको पकड़ ले। मन को अचल कीजिए। आत्म प्राप्ति का मूल हासिल हो जाएगा।’’
ब्राह्मण को नया ज्ञान मिल गया।