देश-धर्म के लिए श्री गुरु गोबिंद सिंह जी का महान बलिदान

Edited By ,Updated: 09 Jan, 2022 06:01 AM

great sacrifice of shri guru gobind singh ji for the country and religion

इतिहास पुरुष कभी भी राजसत्ता प्राप्ति, जमीन-जायदाद, धन-सम्पदा या यश प्राप्ति के लिए लड़ाइयां नहीं लड़ते। श्री गुरु गोबिंद सिंह जी ऐसे इतिहास पुरुष थे, जिन्होंने ताउम्र अन्याय, अधर्म, अत्याचार

इतिहास पुरुष कभी भी राजसत्ता प्राप्ति, जमीन-जायदाद, धन-सम्पदा या यश प्राप्ति के लिए लड़ाइयां नहीं लड़ते। श्री गुरु गोबिंद सिंह जी ऐसे इतिहास पुरुष थे, जिन्होंने ताउम्र अन्याय, अधर्म, अत्याचार और दमन के खिलाफ तलवार उठाई और लड़ाइयां लड़ीं। गुरु जी की 3 पीढिय़ों ने देश-धर्म की रक्षा के लिए महान बलिदान दिया। 

आज देश अपनी स्वतंत्रता की 75वीं वर्षगांठ ‘आजादी के अमृत महोत्सव’ के रूप में मना रहा है, ऐसे में पूरे देश में स्वतंत्रता सेनानियों, शहीदों, बलिदानियों को याद किया जा रहा है। सिखों के 10वें गुरु श्री गुरु गोबिंद सिंह जी को उनकी जयंती पर नमन कर प्रत्येक भारतवासी गर्व महसूस कर रहा है। 

श्री गुरु गोबिंद सिंह जी एक महान दार्शनिक, प्रख्यात कवि, निडर एवं निर्भीक योद्धा, महान लेखक, युद्ध कौशल और संगीत के पारखी भी थे। उनका जन्म 1666 में पटना में हुआ। वे 9वें सिख गुरु, श्री गुरु तेग बहादर और माता गुजरी के इकलौते बेटे थे, जिनका बचपन का नाम गोबिंद राय था। 

सन् 1699 में बैसाखी के दिन श्री गुरु गोबिंद सिंह जी ने खालसा पंथ की स्थापना कर 5 व्यक्तियों को अमृत चखा कर ‘पांच प्यारे’ बना दिया। इन पांच प्यारों में सभी वर्गों के व्यक्ति थे। इस प्रकार से उन्होंने जात-पात मिटाने के उद्देश्य से अमृत चखाया। 

बाद में उन्होंने स्वयं भी अमृत चखा और गोबिंद राय से गोबिंद सिंह बन गए। श्री गुरु गोबिंद सिंह जी ने एक खालसा वाणी ‘वाहे गुरुजी का खालसा, वाहे गुरुजी की फतेह’, स्थापित की। साथ ही उन्होंने आदर्श जीवन जीने और स्वयं पर नियंत्रण के लिए खालसा के पांच मूल सिद्धांतों की भी स्थापना की। जिनमें केश, कंघा, कड़ा, कच्छा, किरपाण शामिल हैं। ये सिद्धांत चरित्र निर्माण के मार्ग थे। उनका मानना था कि व्यक्ति चरित्रवान होकर ही विपरीत परिस्थितियों व अत्याचारों के खिलाफ लड़ सकता है। 

श्री गुरु गोबिंद सिंह जी की वीरता और लोकप्रियता से आस-पास के पहाड़ी राजा द्वेष करने लगे, यहां तक कि बिलासपुर के राजा भीमचंद सहित गढ़वाल, कांगड़ा के राजाओं ने मुगल शासक औरंगजेब के पास जाकर श्री गुरु गोबिंद सिंह जी के खिलाफ लडऩे के लिए सैनिक सहायता मांगी और कहा कि इसके बदले में वे वार्षिक लगान देंगे। भीमचंद की माता चम्पा देवी ने श्री गुरु गोबिंद सिंह जी के खिलाफ युद्ध का विरोध किया और कहा कि वह एक महान संत हैं, उनके साथ युद्ध नहीं, बल्कि उनको घर बुला कर सम्मान देना चाहिए। 

इसी प्रकार जब औरंगजेब की सेना का जनरल सैयद खान युद्ध के लिए आनंदपुर साहिब जाने लगा तो रास्ते में सढौरा नामक स्थान पर अपनी बहन नसरीना से मिला। उसकी बहन ने सैयद खान को श्री गुरुगोबिंद सिंह जी के खिलाफ युद्ध करने से रोका और कहा कि वह पहले से ही गुरु जी की अनुयायी हैं और श्री गुरु गोबिंद सिंह जी एक धार्मिक व आध्यात्मिक संत हैं। यहां तक कि उन्होंने पहले से ही सैयद खान की हार की भविष्यवाणी कर दी थी। नसरीना खान ने अपने पति व बेटों को श्री गुरु गोबिंद सिंह जी की सेना में भर्ती करवा दिया था। 

सैयद खान युद्ध के लिए निकल पड़ा। युद्ध के मैदान में नीले घोड़े पर सवार श्री गुरु गोबिन्द सिंह जी जब मुगल सैनिकों को मौत के घाट उतार रहे थे तो सैयद खान गुरु जी के सामने आया। तब गुरु जी स्वयं घोड़े से उतरे और वह सैयद खान को मारने के लिए तैयार नहीं हुए। सैयद खान गुरु जी का आभा और तेज से प्रभावित हुआ और युद्ध मैदान छोड़ कर योग, ध्यान व शांति प्राप्ति के लिए पर्वतों में चला गया। 

श्री गुरु गोबिंद सिंह जी के 4 पुत्र थे, जिनके नाम साहिबजादा अजीत सिंह, साहिबजादा जुझार सिंह, साहिबजादा जोरावर सिंह, साहिबजादा फतेह सिंह थे। उन्होंने अपने चारों पुत्र धर्म की रक्षा के लिए कुर्बान किए। मुगल शासक द्वारा दो पुत्रों जोरावर सिंह और फतेह सिंह को सरहिंद में दीवार में चुनवा दिया गया। दो पुत्र अजीत सिंह और जुझार सिंह युद्ध में वीरगति को प्राप्त हुए। श्री गुरु गोबिंद सिंह जी ने अपने पुत्रों की शहादत पर कहा था : 
इन पुत्रन के सीस पर, वार दिए सुत चार।
चार मुुए तो क्या हुआ, जीवित कई हजार॥ 

श्री गुरु गोबिंद सिंह जी ने अपने जीवन में आनंदपुर, भंगानी, नंदौन, गुलेर, निर्मोहगढ़, बसोली, चमकौर, सिरसा व मुक्तसर सहित 14 युद्ध किए। इन जंगों में पहाड़ी राजाओं एवं मुगल सूबेदारों ने हर बार मुंह की खाई। श्री गुरु गोबिंद सिंह जी ने कभी स्वार्थ व निज-हित के लिए नहीं, बल्कि उत्पीडऩ व अन्याय के खिलाफ  लड़ाई लड़ी। इस कारण हिन्दू व मुस्लिम धर्मों के लोग उनके अनुयायी थे। 

सितम्बर 1708 में गुरु जी नांदेड़ चले गए और बैरागी लक्ष्मण दास को अमृत छका कर और युद्ध कौशल से पारंगत कर बंदा सिंह बहादुर बनाया तथा उन्हें खालसा सेना का कमांडर बना कर संघर्ष के लिए पंजाब भेज दिया। पंजाब पहुंच कर बंदा सिंह बहादुर ने चप्पड़ चिड़ी की जंग जीती। अक्तूबर 1708 में महाराष्ट्र के नांदेड़ साहिब में श्री गुरु गोबिंद सिंह जी ने अपनी आखिरी सांस ली। इस प्रकार पहले पिता श्री गुरु तेग बहादर साहिब जी, फिर चारों पुत्रों ने और बाद में श्री गुरु गोबिंद सिंह जी ने स्वयं बलिदान देकर धर्म की रक्षा की। 

स्वामी विवेकानंद जी ने गुरु गोबिंद सिंह जी को एक महान दार्शनिक, संत, आत्मबलिदानी, तपस्वी और स्व:अनुशासित बता कर उनकी बहादुरी की प्रशंसा की थी। स्वामी विवेकानंद जी ने कहा था मुगल काल में जब हिन्दू और मुसलमान दोनों ही धर्मों के लोगों का उत्पीडऩ हो रहा था, तब श्री गुरु गोबिंद जी ने अन्याय, अधर्म और अत्याचारों के खिलाफ और उत्पीड़ित जनता की भलाई के लिए बलिदान दिया, जो एक महान बलिदान है। इस प्रकार से गुरु गोबिंद सिंह जी महानों में महान थे।  

गीता में कहा गया है कि ‘कर्म करो, फल की चिन्ता न करो’। ठीक इसी प्रकार श्री गुरु गोबिंद सिंह जी ने कहा है ‘देहि शिवा वर मोहे इहै, शुभ करमन ते कबहूं न टरूं’ यानी हम अच्छे कर्मों से कभी पीछे न हटें, परिणाम भले चाहे जो भी हो। उनके इन विचारों व वाणियों से पता चलता है कि गुरु गोबिंद सिंह जी ने कर्म, सिद्धान्त, समभाव, समानता, निडरता, स्वतंत्रता का संदेश देकर समाज को एक सूत्र में पिरोने का काम किया। उन्होंने कभी भी मानवीय  व नैतिक मूल्यों से समझौता नहीं किया। आज फिर जरूरत है कि उनके बताए मार्ग पर चल कर हम सभी धर्म, समाज व भाईचारे को मजबूत कर ‘एक भारत, श्रेष्ठ भारत’ के लिए कार्य करें।-बंडारू दत्तात्रेय(माननीय राज्यपाल हरियाणा)

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